स्वस्थ मिट्टी, स्वस्थ भविष्यः क्यों मिट्टी में पाए जाने वाले जीवों यानि माइक्रोबायोम का प्रबन्धन प्रत्यास्थ खेती के लिए है ज़रूरी
28 अगस्त 2025, नई दिल्ली: स्वस्थ मिट्टी, स्वस्थ भविष्यः क्यों मिट्टी में पाए जाने वाले जीवों यानि माइक्रोबायोम का प्रबन्धन प्रत्यास्थ खेती के लिए है ज़रूरी – मिट्टी यानि मृदा जीवन के गतिशील ब्रह्मांड का प्रतिनिधित्व करती है, जो मात्र धूल’ की अवधारणा से परे हैं। यह कई प्रकार के जीवों से युक्त जीवित ईकाई है जो जटिल पारिस्थिक तंत्र का निर्माण करती है। यह जैविक गतिविधि मिट्टी को जीवन के लिए अनिवार्य बनाती है। मुट्ठी भर मिट्टी में बड़ी मात्रा में सूक्ष्म जीव पाए जाते हैं जिनमें लाखों बैक्टीरिया, फंगस (कवक), प्रोटोज़ोआ तथा बड़े जीव जैसे केंचुए एवं कीट शामिल हैं। ये सभी जीव मिट्टी के स्वास्थ्य के लिए ज़रूरी हैं जो इसमें मौजूद कार्बनिक (ओर्गेनिक) सामग्री को अपघटित करते हैं, पोषक तत्वों पुनः चक्रीकृत करते हैं, मिट्टी की संरचना को इस तरह बनाते हैं कि इसमें से हवा और पानी का प्रवाह ठीक से होता रहे। धरती पर जीवन को बनाए रखने के लिए मिट्टी में इन सभी जीवों का होना ज़रूरी है। मिट्टी स्वस्थ होने से पौधों का विकास ठीक से होता है, पानी साफ होता है, कार्बन नियन्त्रण बने रहने से जलवायु भी नियन्त्रित अवस्था में रहता है। भारत में जहां खेती, ज़मीन और धन के प्रवाह के लिए ज़रूरी है, स्थायी खेती एवं पर्यावरणी योजनाओं को बनाए रखने के लिए मिट्टी में माइक्रोबायोम का महत्व बहुत अधिक है।

इस जैविक भंडार में अभूतपूर्व सैद्धान्तिक क्षमता है; हालांकि मौजूदा प्रक्षेपवक्र पर ध्यान दें तो मिट्टी की व्यवस्था और गुणवत्ता के प्रतिरूप में गिरावट आ रही है। हरित क्रान्ति के चलते जहां एक ओर फसलों का उत्पादन ज़बरदस्त तरीके से बढ़ा, वहीं दूसरी ओर मशीनीकरण के साथ-साथ उर्वरकों एवं कीटनाशकों के उपयोग में भी बढ़ोतरी हुई। इन प्रथाओं के साथ-साथ गहन जुताई, एक ही फसल बार-बार बोने, कृषि रसायनों के इस्तेमाल से मिट्टी के प्राकृतिक माइक्रोबायोम में गिरावट आती रही, जिससे पौधों और सूक्ष्मजीवों के बीच का सहजीवी संबंध नष्ट होने लगा। इस तरह मिट्टी में जीवों के नष्ट होने से पोषक तत्वों की कमी, विषाक्तता का बढ़ना और संरचनात्मक क्षति आम बात हो गई। अब स्थितियां बिल्कुल पलट चुकी हैं, देश की धरती का एक तिहाई हिस्सा क्षरण या अपरदन से ग्रस्त हो चुका है। इस बीच पानी के कारण मिट्टी का क्षरण, अपरदन का मुख्य कारण बन चुका है।
भारत में मिट्टी के पोषण का चिंताजनक रूप से गिर रहा है। 2019-20 में किए गए एक सर्वेक्षण के मुताबिक 55 फीसदी मिट्टी में नाइट्रोजन की कमी है, इसी तरह सर्वेक्षण किए गए क्षेत्र में 42 फीसदी मिट्टी फॉस्फोरस की कमी से तथा 44 फीसदी ओर्गेनिक कार्बन की कमी से ग्रस्त है। मौजूदा एनपीके ऐप्लीकेशन का अनुपात गंभीर रूप से असंतुलित 7.7ः3ः1 है, जबकि वैज्ञानिक मानकों के अनुसार यह 4ः2ः1 होना चाहिए। इस असंतुलन के चलते मिट्टी का स्वास्थ्य कमज़ोर हो रहा है, जिसका बुरा असर कृषि उत्पादकता एवं फसलों पर पड़ता है। इसके अलावा माइक्रोबायोम के नष्ट होने से मिट्टी में पोषक तत्वों की रीसायक्लिंग नहीं हो पाती, और पौधों को पोषक तत्व न मिलने के कारण मुश्किल और बढ़ जाती है। मिट्टी की उर्वरता कम होने से भोजन एवं पोषण सुरक्षा का स्तर खराब होता है, जिससे लोगों में पोषक तत्वों की कमी होने लगती है। पांच साल से कम उम्र के बच्चों का विकास अवरुद्ध हो जाता है।
मिट्टी में निहित जलवायु समाधान
मिट्टी की स्थिति भारत के कृषि संकट को दर्शाती है, हालांकि राष्ट्रीय स्तर पर जलवायु नीति की बात करें तो इसे एक आशावादी टूल भी कहा जा सकता है। आईसीएआर द्वारा किए गए एक अध्ययन के अनुसार भारत की कृषि एवं जलवायु नीतियों में मृदा के स्वास्थ्य को शामिल करना बेहद ज़रूरी है। यह अध्ययन कवर क्रॉपिंग एवं कम जुताई के कारण राज्य स्तर पर होने वाले लाभ पर रोशनी डालता है- ये तरीके पहले से फसलों की उत्पादकता और किसानों की आय बढ़ाने में कारगर हो रहे हैं। उदाहरण के लिए आईसीएआर में पाया कि इन दोनों तरीकों का उपयोग करने वाले किसानों की उत्पादकता 15-20 फीसदी बढ़ी है, ऐसे में ये तथ्य प्रेरणादायी हैं। खासतौर पर तब जबकि ज़मीन के क्षरण के कारण बड़ी संख्या में छोटे किसानों की उत्पादकता गिर रही है। अध्ययन से यह भी साफ हो गया है कि मिट्टी के स्वस्थ होने से सिंचाई और कृत्रिम उर्वरकों की ज़रूरत कम हो जाती है। इससे न सिर्फ किसान का पैसा बचता है बल्कि पर्यावरण पर प्रभाव भी कम होता है।
ये आंकड़े भारत के मृदा संकट के व्यापक आंकड़ों से समर्थित हैं, इसमें 45 फीसदी इनओर्गेनिक अवयव, 5 फीसदी ओर्गेनिक अवयव, 25 फीसदी वायु और 25 फीसदी जल शामिल है। सघन खेती वाले क्षेत्रों में मिट्टी में ओर्गेनिक कार्बन की मात्रा में भारी गिरावट आई है। इस गिरावट से भारत की तकरीबन 98 मिलियन हेक्टेयर ज़मीन प्रभावित है, जिसके कारण हर साल फसलों में भारी नुकसान होता है। ये आंकड़े कृषि में गिरावट के साथ-साथ भारी भरकम आर्थिक बोझ की दोहरी चुनौती को दर्शाते हैं।
गुजरात में स्थित बन्नी घास के मैदान इस संकट से निपटने के लिए नई जलवायु रणनीति हेतु डेटा द्वारा समर्थित आकर्षक मॉडल प्रस्तुत करते हैं। हाल ही में क्षेत्र में किए गए अध्ययन से पता चला है कि इस घास के मैदान का पारिस्थितिक तंत्र अपनी मिट्टी में 27.69 मिलियन टन कार्बन जमा करता है। इसके अलावा इस शोध से यह भी पता चला है कि पुनःस्थापित भूखंड जिन्हें ‘वादास’ कहा जाता है, यहां 142.72 टन ओर्गेनिक कार्बन के साथ प्रति हेक्टेयर कार्बन की उच्च मात्रा पाई गई। ये परिणाम दर्शाते हैं कि मिट्टी के स्वास्थ्य में निवेश न सिर्फ कृषि के लिए अनिवार्य है बल्कि जलवायु परिवर्तन को कम करने के लिए भारत की सबसे सक्षम एवं कम उपयोग की जाने वाली रणनीतियों में से भी एक है।
पुनःसुधार का मार्ग
मिट्टी के माइक्रोबियल स्वास्थ्य में सुधार लाकर ही स्थायी एवं सफल मिट्टी स्वास्थ्य प्रणाली का निर्माण किया जा सकता है। इसके लिए व्यापक एवं व्यवस्थित दृष्टिकोण की आवश्यकता है।
रीजनरेटिव कृषि, जैविक प्रबन्धन की विधी है। यह योजना जैविक-उर्वरकों के उपयोग को प्रोत्साहित करती है। जैविक उर्वरक, जीवित सूक्ष्म जीव हैं, जो न सिर्फ नाइट्रोजन स्थिरीकरण में मदद करते हैं बल्कि मिट्टी की गहराई में स्थित लवणों को उपलब्ध कराकर रसायनिक उर्वरकों पर निर्भरता कम करते हैं। इससे लागत में भी कमी आती है।
संरक्षण कृषि प्रथाओं जैसे कम जुताई, विभिन्न फसलों के चक्रीकरण और कवर क्रॉपिंग के इस्तेमाल से मृदा का प्रवाह कम होता है, कार्बन स्तर बढ़ता है और जल प्रबन्धन में सुधार होता है। अनुकूल नीतियां एवं तकनीकों से इस कृषि पारिस्थितिकी रूपान्तरण को बढ़ावा मिलता है। मौजूदा प्रणालियां जैसे सॉयल हेल्थ कार्ड और परम्परागत कषि विकास योजना जैविक उर्वरकों के उपयोग के साथ तालमेल बनाते हुए रिपोर्टिंग में सहायक हैं। इसके अलावा सटीक निगरानी एवं परिवर्तनशील दर पर उपयोग की जाने वाली तकनीकें, कार्बन कृषि ढांचा नया आकर्षक मूल्य प्रस्ताव पेश करती हैं और किसानों का मुनाफ़ा बढ़ाने में उपयोगी हैं।
सूक्ष्मजीवों पर आधारित समाधानों का लाभ उठाना
मिट्टी के अपरदन को रोकने के लिए सूक्ष्मजीवों पर आधारित हस्तक्षेप उपयोगी हो सकता है। विभिन्न जैविक उर्वरक सक्रिय सूक्ष्मजीव होते हैं, जो वायुमंडल से नाइट्रोजन को स्थिर करते हैं, पोषकों का लवणीकरण करते हैं और इन पोषक तत्वों को पौधे के अनुकूल रूप में उपलब्ध कराते हैं। उदाहरण के लिए राइज़ोबियम लेग्युम फलियों की जड़ों की गांठों में पाया जाता है, यह नाइट्रोजन गैस को अमोनियम में बदल देता है। जिससे अमोनियम से युक्त सिंथेटिक उर्वरकों की ज़रूरत खत्म हो जाती है। फॉस्फेट सॉल्युबाइलाइज़िंग बैक्टीरिया, इसके साथ पोटेशियम मोबिलाइज़िंग माइक्रोब पोटेशियम की ज़रूरत को पूरा करते हैं। इसी तरह ज़िंक सॉल्युबिलाइज़िंग फर्टीलाइज़र पौधे के लिए ज़िंक को सुलभ बनाते हैं।
आगे का मार्ग
भारत में मिट्टी की बढ़ती समस्या को देखते हुए कृषि के स्थायी तरीके अपनाना ज़रूरी है। क्योंकि यह समस्या भोजन की आपूर्ति, अर्थव्यवस्था एवं विश्वस्तरीय जलवायु लक्ष्यों के लिए बड़ा खतरा है। हालांकि इस समस्या का समाधान खुद मिट्टी में निहित है। स्थायी कृषि के लिए मिट्टी में माइक्रोबायोम बढ़ाना ज़रूरी है। इसके साथ सरकारी प्रयास भी इनोवेशन को बढ़ावा दे रहे हैं। तो कुल मिलाकर कई चुनौतियों को एक साथ हल करने के लिए एकीकृत योजना ज़रूरी है। मिट्टी के स्वास्थ्य में सुधार लाकर हम जलवायु संकट को हल करने, भोजनएवं पोषणसुरक्षा को बढ़ाने में योगदान दे सकते हैं और स्वस्थ आबादी के लिए अवशेषों से रहित भोजन उपलब्ध करा सकते हैं। मिट्टी के स्वास्थ्य पर केंद्रित इस तरह का समग्र दृष्टिकोण भारत के स्थायी एवं समावेशी भविष्य के लिए महत्वपूर्ण है।
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