पूंजी की चपेट में पब्लिक का पानी
सेवाओं का निजीकरण अब कोई खास बात नहीं रह गई है। पिछले दो दशकों से संचार, परिवहन, शिक्षा, स्वास्थ्य, बैंकिंग, बीमा जैसे आम जीवन से गहरे जुड़े क्षेत्रों में यह इस कदर हो रहा है कि अब सामान्य लगने लगा है, लेकिन पानी का निजीकरण इससे अलग है। समाज के विभिन्न तबकों की असमान आर्थिक हैसियत के कारण इस पर कई सवाल हैं। शायद इसीलिए पानी के निजीकरण की रफ्तार भी थोड़ी धीमी है।
वर्ष 2000 के आसपास पानी का निजीकरण चर्चा में तब आया था जब छत्तीसगढ़ की शिवनाथ नदी के एक हिस्से को एक निजी कंपनी को बेच दिया गया। नदी की इस बिक्री का अनुबंध अविभाजित मध्यप्रदेश में 1998 में ही हो गया था, लेकिन एक निजी कंपनी ‘रेडियस वाटर’ द्वारा स्थानीय लोगों को पानी के निस्तार तथा सिंचाई के उपयोग से रोकने के बाद मामला प्रकाश में आया।
जल, जंगल, जमीन की त्रयी में पानी सबसे जरूरी और सामुदायिक प्राकृतिक संसाधन है, लेकिन ‘खुले बाजारों में सब कुछ बिकाऊ’ के हल्ले में पानी को भी मुनाफा काटने की जिद में तब्दील किया जा रहा है। मध्यप्रदेश इससे अछूता नहीं है। यहां भी मंहगे बोतलबंद पानी के लिए पूंजी और दक्षता का टोटा दिखाकर निजीकरण की सरकारी तजबीज पेश की जा रही है। प्रस्तुत है, पानी और ऊर्जा का टोटा दिखाकर निजीकरण पर बरसों से काम कर रहे ‘मंथन अध्ययन केन्द्र’ के श्री रेहमत का यह लेख- |
हमारे देश में पेयजल के निजीकरण की व्यवस्थित शुरूआत वर्ष 2007 से केन्द्र सरकार द्वारा विदेशी कर्ज लेकर प्रारंभ की गई ‘जवाहरलाल नेहरू राष्ट्रीय शहरी नवीकरण मिशन’ (जेएनएनयूआरएम) नामक बुनियादी ढांचा परियोजना के साथ हुई थी। वर्ष 2014 में योजना की समाप्ति तक मध्यप्रदेश के 101 नगरों में जलप्रदाय और मल निकास की 114 योजनाएं संचालित थीं जिनमें से खण्डवा और शिवपुरी की जलप्रदाय योजनाओं को निजीकरण के लिए चुना गया था। अब केन्द्र की ‘अमृत’ और प्रदेश सरकार की ‘मुख्यमंत्री शहरी जलप्रदाय योजना’ के माध्यम से जलप्रदाय और मल निकास के ‘अंतिम लक्ष्य’ निजीकरण को प्राप्त करने का प्रयास जारी है। शुरुआत में ही खण्डवा और शिवपुरी शहरों में निजी कंपनियों से अनुबंध कर समस्त जल संसाधनों और जलप्रदाय तंत्रों पर 25 वर्षों के लिए एकाधिकार सौंप दिए गए हैं।
निजीकरण के पक्ष में अव्वल तो तर्क दिया जाता है कि सरकार के पास इतना पैसा नहीं है कि वह नई योजनाओं में निवेश कर सके, दूसरे-सार्वजनिक क्षेत्र के प्रबंधन को अक्षम बताया जाता है और तीसरे-निजी क्षेत्र की आपसी प्रतिस्पर्धा से जलप्रदाय के सस्ता होने की संभावनाएं उछाली जाती हैं। खण्डवा में इनमें से कोई भी तर्क सही साबित नहीं हुआ है। इस निजी परियोजना के दस्तावेजों की पड़ताल से उजागर हुआ है कि इसमें 90 प्रतिशत निवेश सरकारी है जिसे निजीकरण की प्रक्रिया के दौरान बढ़ाया गया है। लागत बढऩे से इसमें शामिल सभी पक्षों को फायदा हुआ है। संभव है, ठेकेदार कंपनी ने बढ़ाई गई लागत से ही अपने हिस्से का 10 प्रतिशत निवेश भी निकाला हो और असल में उसने अपनी जेब से कोई निवेश ही न किया हो। खण्डवा के पुराने जलप्रदाय में खामियाँ जरूर रही हैं, लेकिन इसका कारण जल उपलब्धता में कमी नहीं था।
निजीकरण का सबसे बड़ा खतरा सिंचाई के पानी को है जो कृषि अर्थव्यवस्था को चौपट करने के साथ ही किसानों की आजीविका पर भी गंभीर संकट खड़ा कर देगा। पिछले कुछ सालों से मध्यप्रदेश के मालवा क्षेत्र की सूख चुकी क्षिप्रा, गंभीर, कालीसिंध और पार्वती नदियों को नर्मदा से जोडऩे का खूब प्रचार चल रहा है। इनमें से पार्वती को छोड़कर बाकी सभी परियोजनाओं पर काम प्रारंभ भी हो चुका है। सबसे पहले क्षिप्रा नदी को सिंहस्थ के समय 2016 की गर्मियों में जोड़ा गया था। सिंहस्थ के बाद नर्मदा का पानी कभी भी क्षिप्रा में नहीं पहुँच पाया इसलिए अब नर्मदा-क्षिप्रा लिंक-2 का निर्माण किया जा रहा है। नर्मदा नदी पर इसी प्रकार की 27 माईक्रो लिफ्ट योजनाएँ बनाई जा रही हैं।
रिवर लिंक और माईक्रो लिफ्ट परियोजनाओं से कोई 10 लाख हैक्टर सिंचाई का दावा किया जा रहा है। इन परियोजनाओं के संचालन-संधारण का सारा खर्च उपयोगकर्ता किसानों से वसूला जाना है। नर्मदा-गंभीर लिंक की प्रशासकीय स्वीकृति के आदेश में सरकार ने इस आशय का उल्लेख भी कर दिया है। चूँकि ये लिफ्ट सिंचाई योजनाएँ हैं और निचले निमाड़ क्षेत्र से ऊंचे मालवा के पठार तक पानी पहुँचाने के लिए पानी को औसतन चार बार पंपिंग कर आधा किमी ऊपर उठाना पड़ेगा। जाहिर है, इनके संचालन में बेतहाशा बिजली खर्च होगी। इन योजनाओं का काम कर्ज की दम पर किया जाएगा, इसलिए ब्याज भी संचालन खर्च में जुड़ेगा। छैगाँव माखन (खण्डवा), बिस्टान (खरगोन) और अलीराजपुर माईक्रो लिफ्ट योजनाओं का प्रति हेक्टर संचालन-संधारण खर्च क्रमश: 36434 रुपए, 30580 रुपए और 42857 रुपए होगा। इसी प्रकार नर्मदा-गंभीर लिंक और नर्मदा-कालीसिंध लिंक से एक हेक्टर सिंचाई का खर्च क्रमश: 51282 रुपए और 57000 रुपए होगा।
किसान तो छोडि़ए, इतनी महंगी सिंचाई योजनाएं चलाना सरकार के भी बस की बात नहीं है। इन योजनाओं की व्यवहारिकता पर बड़े सवाल हैं और सफलता अत्यंत संदिग्ध है। लगता है, प्रदेश की अन्य लिफ्ट योजनाओं की तरह ये भी केवल बंद होने के लिए ही बनाई जा रही है जिन के निर्माण पर खर्च हुए जनता के हजारों करोड़ बर्बाद हो जाएंगे। मेहनत की गाढ़ी कमाई के अलावा जिस प्राकृतिक संसाधन, पानी को लूटने के लिए ये योजनाएं बनाई जा रही हैं वह असल में समुदायों की धरोहर है। क्या हमारी सरकारें, सेठ और समाज समुदाय के संसाधनों की कोई अहमियत नहीं देख पातीं ?
- रेहमत