संपादकीय (Editorial)

सोयाबीन का विकल्प आवश्यक

पिछले 5-6 दशकों से सोयाबीन मध्यप्रदेश में खरीफ की एक प्रमुख फसल के रूप में ली जा रही है। प्रदेश में सत्तर के दशक में इसकी खेती आरंभ की गयी थी। किसानों ने इसे खरीफ की एक प्रमुख फसल के रूप में अपनाया और इसका क्षेत्र वर्ष 2013-14 में बढ़कर 62.61 लाख हेक्टर तक पहुंच गया। सोयाबीन किसानों ने इसकी उत्पादन क्षमता तथा अन्य खरीफ फसलों की अपेक्षा कम जोखिम होने के कारण भारी मिट्टी वाले क्षेत्र में इसे अपना लिया। किसानों की अर्थव्यवस्था तथा रहन-सहन के स्तर को सुधारने में भी सोयाबीन ने योगदान दिया है। जिन किसानों ने सोयाबीन को अपनाया उन्होंने खरीफ में दूसरी फसल लेने के बारे में कभी नहीं सोचा और फसल चक्र के मूलभूत सिद्धांत को भी उन्होंने अपनी आर्थिक क्षति के कारण ताक में रख दिया। इसके परिणाम अब दिखने लगे हैं। फसल में बांझपन, बीमारियों तथा कीटों का अधिक प्रकोप, भूमि में पोषक तत्वों का असंतुलन आदि प्रमुख हैं। इनके फलस्वरूप पिछले कुछ वर्षों से इसके उत्पादन क्षमता का विपरीत परिस्थितियों में हृास दिखने को मिल रहा है और किसानों का भी इस फसल के प्रति मोह भंग हो रहा है।
मध्य प्रदेश में जहां इसकी खेती वर्ष 2013-14 में 62.61 लाख हेक्टर में ली गयी थी वहीं इसका क्षेत्र घटकर वर्ष 2016-17 में 54.01 लाख हेक्टर रह गया। पिछले तीन वर्ष में सोयाबीन के क्षेत्र में 8.60 लाख हेक्टर की कमी सोयाबीन के भविष्य की ओर इशारा करती है। राजस्थान में भी जहां 2013-14 में सोयाबीन 10.59 लाख हेक्टर में लगाई गई थी वहीं इसका क्षेत्र 2015-16 में घटकर 9.81 लाख हेक्टर रह गया। सोयाबीन की खेती अपनाने वाले नये प्रांतों कर्नाटक, आंध्रप्रदेश व तेलंगाना क्षेत्र में कुछ वृद्धि देखी गयी है। वहीं अभी सोयाबीन फसल के लगातार लेने के परिणाम अभी देखने को नहीं मिले हैं। अब समय आ गया है कि सोयाबीन लेने वाले किसानों को खरीफ की अन्य फसलों का विकल्प देकर फसल चक्र अपनाने के लिये प्रेरित किया जाये। अन्यथा इसके दुष्परिणाम प्रति वर्ष बढ़ते ही चले जायेंगे जिसका प्रभाव किसानों की आर्थिक दशा पर पड़ेगा। देश व प्रदेश की सरकार को किसानों की आय को अगले पांच वर्ष में दुगना करने के संकल्प को भी इससे धक्का लगेगा।

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