संपादकीय (Editorial)

आजादी का अमृत महोत्सव : दलितों और दरिद्रों को कब मिलेगी आजादी ?

  • डॉ. चन्दर सोनाने,
    मो. : 9425092626

 

31 अगस्त 2022, भोपाल  आजादी का अमृत महोत्सव : दलितों और दरिद्रों को कब मिलेगी आजादी ? 

आइये, केवल तीन उदाहरणों के माध्यम से देश में दलितों, वंचितों और दरिद्रों की व्यथा को देखें और समझने की कोशिश करें ! पहला उदाहरण है, राजस्थान के जालोर जिले के ग्राम सुराणा में तीसरी कक्षा के दलित छात्र को सवर्ण जाति के हेडमास्टर की मटकी से पानी पी लेने पर अपनी जान गंवानी पड़ी! ग्राम सुराणा के सरस्वती विद्या मंदिर के दलित छात्र इन्द्र कुमार मेघवाल को उस स्कूल के हेड मास्टर छैल सिंह ने इसलिए बुरी तरह से पीट दिया, क्योंकि उसने उसकी पीने की मटकी से पानी पी लिया था ! ये घटना 20 जुलाई की है। कराहता बच्चा जब घर पहुँचा तो उसके परिजन उसे पहले स्थानीय अस्पताल ले गए। वहां से उदयपुर और उसके बाद फायदा न होने पर अहमदाबाद छात्र को रैफर किया गया, जहाँ अपनी पिटाई के 23वें दिन उसने दम तोड़ दिया। छात्र की बेरहमी से हुई पिटाई के कुछ दिनों बाद उसकी एक आँख बाहर ही आ गई थी और कान से मवाद आने लगा था। शुरूआत में आरोपी को गिरफ्तार करने की बजाय आरोपी ने गाँव में दबाव बनाने का प्रयास किया और इलाज के लिए रूपये देने का लालच भी दिया। बाद में बवाल मचने पर शिक्षक को गिरफ्तार किया गया। ये है आजादी के 75 साल के बाद गाँवों में दलितों की वास्तविक स्थिति ! दलित छात्र इन्द्रकुमार को छूआछूत से हुई मौत को लेकर व्यथित होकर राजस्थान के बारां अटरू के कांग्रेसी विधायक श्री पानाचंद मेघवाल ने विधायक पद से इस्तीफा ही दे दिया।

दूसरा उदाहरण मध्यप्रदेश के बुरहानपुर जिले के आदिवासी ग्राम धूलकोड का है। गाँव के आदिवासी बबलू डाबर की साँप काटने से मौत हो जाने पर उसे जिला अस्पताल में पोस्टमाटर््म कराकर ग्रामीण और परिजन लोडिंग वाहन से रूपारेल नदी तक लेकर पहुँचे। यहाँ सडक़ न होने पर चार पहिया वाहन नहीं जा सकता। इसलिए आगे का साढ़े तीन किलोमीटर का रास्ता पार करने के लिए शव को खटिया से बाँधा गया और उसे उठाकर पैदल ही गाँव तक लाने के लिए उन्हें मजबूर होना पड़ा। परिजनों ने इस साढ़े तीन किलोमीटर के रास्ते में रूपारेल नदी की टूटी हुई पुलिया और एक नाले को पार किया और जैसे-तैसे शव को अपने गाँव लाए। आजादी के 75 साल बाद भी यह गाँव सडक़ से जुड़ नहीं पाया है। यह है एक आदिवासी गाँव की कहानी !

अब आपको ले चलते हैं, मध्यप्रदेश के आदिवासी जिले बैतूल के ग्राम बोदुड़ रैय्यत। आजादी के 75 साल हो जाने के बाद आज भी कई गाँव मूलभूत सुविधाओं से वंचित है। जामुनढाना के बाद अब अमला विधानसभा क्षेत्र के ग्राम बोदुड़ रैय्यत से गाँव की ऐसी तस्वीर सामने आई है, जिसने हमारी व्यवस्था और लंबे चौड़े विकास के दावों की पोल खेलकर रख दी है ! यह गाँव बरसात में टापू का रूप ले लेता है और आवागमन पूरी तरह से प्रभावित हो जाता है। इस गाँव की सुकरती बाई नाम की महिला को पिछले दिनों रविवार को रात करीब 4 बजे घर में ही प्रसव हुआ। सोमवार को उस महिला की तबीयत बिगडऩे के बाद उसे तीन किलोमीटर दूर अमला अस्पताल ले जाने के लिए कंधों पर झोली में डालकर मुख्य सडक़ तक ले जाया गया। यहाँ से एम्बूलेंस से आगे का सफर तय किया गया। एक बात यह भी सामने आई है कि गाँव तक एम्बूलेंस नहीं पहुँच पाने के कारण सुकरती की डिलीवरी वहीं गाँव में करानी पड़ी थी। अमला अस्पताल में भी उसको लाभ नहीं मिलने पर जिला अस्पताल बैतूल और उसके बाद प्रसूता को नागपुर ले जाने के लिए मजबूर होना पड़ा। यदि गाँव में ही मूलभूत सुविधाएँ और सडक़ आदि होती तो गाँव तक सहजता से एम्बूलेंस पहुँच जाती और उस दरिद्र और आदिवासी महिला को अपने गाँव में मजबूरी में प्रसव नहीं कराना पड़ता और न ही उसकी जान पर बन पड़ती !

देश की आजादी के 75 साल हो जाने के बाद भी हमारे देश के दो राज्यों की तीन कहानियाँ हमें बहुत कुछ सोचने के लिए मजबूर कर देती है ! क्या सच में आजादी के 75 साल हो जाने के बाद आज भी देश के विशेषकर ग्रामीण अंचलों के दलित, आदिवासी, वंचित और दरिद्र सहीं मायने में आजाद हो पाए हैं ? ये प्रश्नचिन्ह हम सबके सामने है ! इन घटनाओं के सामने आने पर देश और राज्य सरकारों के विकास के लंबे-चौड़े दावों की पोल खुल जाती है। सबसे पहले हमें देश के ग्रामीण अंचलों को मूलभूत सुविधा से सम्पन्न कराना आज बहुत जरूरी हो गया है। इसके साथ ही सामाजिक जागरूकता की दिशा में ठोस प्रयास करने की भी सख्त आवश्यकता है। नहीं तो इसी प्रकार इन्द्रकुमार छूआछूत का शिकार होकर मौत के मुँह में जाने के लिए मजबूर होता रहेगा !

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