Editorial (संपादकीय)

विकास के नाम पर बर्बाद होती प्रकृति

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  • संजय राणा

14 मई 2022,  विकास के नाम पर बर्बाद होती प्रकृति – विकास की मौजूदा मारामार में अपेक्षाकृत नया पहाड़ हिमालय सर्वाधिक घायल हो रहा है। ताजा मामला ‘चार धाम’ यात्रा के लिए बनाई जा रही बारामासी सडक़ का है जिसके चलते देवदार के जंगलों को बेरहमी से काटा जा रहा है। क्या इस तरह पुण्य कमाने के नतीजे उस हिमालय को ही खतरे में नहीं डाल देंगे जिसकी यात्रा करके ईश्वर को पूजा जाता है?

मानव सभ्यता जैसे-जैसे विकसित होती है, वैसे-वैसे मानव का लालच और आवश्यकतायें बढ़ती चली जाती हैं, मगर इस विकास के चक्कर में हम शायद जीवन की आधारभूत आवश्यकताओं को भूल जाते हैं। जीवन में जीव बिना भोजन और पानी के कुछ घंटे या कुछ दिन जीवित रह सकता है, मगर बिना सांसों के पल भर भी नहीं रह सकता, यह हम सबको मालूम है। मगर फिर भी संपूर्ण विश्व में सबसे बड़ा संकट पेड़ों पर ही है, वे पेड़ जो जीवन के लिए सबसे महत्वपूर्ण ऑक्सीजन का निर्माण करते हैं। मगर जब-जब मानवीय विकास की बात आती है तो सर्वप्रथम कुल्हाड़ी पेड़ों पर ही चलती है।

‘रक्षा सूत्र आंदोलन’ के सूत्रधार सुरेश भाई के निमंत्रण पर अभी चार दिवसीय गंगोत्री यात्रा के दौरान यह सब देखने को मिला। सुरेश भाई के बारे में बतायें तो उन्होंने गढ़वाल मंडल में 1990 के दशक में ‘चिपको आंदोलन’ के बाद पेड़ों को बचाने का बड़ा कार्य किया है। आज फिर सुरेश भाई ‘हर्षिल घाटी’ में देवदार के लाखों पेड़ सुरक्षित करने की मुहिम चलाए हुए हैं।

आखिर क्या है यह पूरा माजरा? जैसा कि सब जानते हैं, केन्द्र सरकार ‘चार धाम परियोजना’ के अंतर्गत आलवैदर (बारामासी) सडक़ का निर्माण कर रही है, जिसके अंतर्गत सुप्रीम कोर्ट ने भी 7 से 10 मीटर चौड़ाई के निर्माण को मंजूरी दी थी, मगर सरकार 24 मीटर चौड़ी रोड बनाना चाहती है। सरकारों के अपने तर्क हैं और स्थानीय लोगों के अपने।
असल में यह वही क्षेत्र है जहां पर वर्ष 2010 में तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने ‘गंगा कमेटी’ के अंतर्गत तीन बड़ी विद्युत परियोजनाओं को इसलिए रद्द कर दिया था, क्योंकि यह क्षेत्र हिमालय से सबसे संवेदनशील क्षेत्रों में गिना जाता है, यहां हिमालय में निरंतर कंपन और टूटन चलती रहती है।

वहीं मौजूदा सरकार का पक्ष यह है कि यह क्षेत्र चीन-तिब्बत की सीमा पर है और वहां सेना के आवागमन के लिए सडक़ चौड़ी होनी चाहिए। इसे वहां के स्थानीय और देश के अन्य इलाकों के लोग भी स्वीकारते हैं। देश की सुरक्षा से, वैसे भी कोई समझौता नहीं किया जा सकता। ‘हर्षिल घाटी’ समुद्र तल से 2550 मीटर की ऊंचाई पर है। यह वही घाटी है जहां स्व. राजकपूर ने, इसकी सुंदरता पर मोहित होकर ‘राम तेरी गंगा मैली’ फिल्म का फिल्मांकन करवाया था। तल से 2500 मीटर की ऊंचाई पर ही विश्व की सबसे खूबसूरत, महंगी और खुशबूदार गुणों के लिए प्रसिद्ध लकड़ी देवदार की जन्मस्थली शुरु होती है।

इस पेड़ की विशेषता यह है कि यह हिमालय के उत्तरी, दक्षिणी और पश्चिमी भाग पर ही पैदा होता है। यह कभी भी पूर्वी भाग अर्थात् सूर्य उदय के अंतर्गत पडऩे वाली किरणों वाले पर्वत पर नहीं होता। ‘आल वैदर रोड’ को जिस स्थान से गुजरना है वह ‘हर्षित घाटी’ से ‘भैरों घाटी’ तक 15 किलोमीटर लंबा देवदार से युक्त स्थान है। यहां घना देवदार का वन है और शायद देवदार के गुण ही उसके दुश्मन बन गए हैं। सरकार अपने तरीके से कार्य करती हैं और समाज अपने तरीके से सोचता है, इसका जीवंत उदाहरण यहां देखने को मिलता है।

जहां से सडक़ गुजरनी है वहां पेड़ों की निशानदेही की गई है और सरकारों ने पाया है कि 10 हजार पेड़ हटाए जाएं तो ही सडक़ निर्माण संभव है। मगर देखकर आश्चर्य हुआ कि सरकार ने केवल बड़े पेड़ों की ही निशानदेही की है, उसके आसपास छोटे व मध्यम पेड़ों को नहीं गिना गया। ये संभवत: गिनती के पेड़ों से 20 गुना अधिक हैं। ये क्यों किया गया? इसके अपने तर्क हैं। सरकार का तर्क संभवत: यह है कि अगर वो 10 हजार की जगह लाखों की संख्या दिखाएगी, तो समाज विरोध में खड़ा हो सकता है। समाज का अपना तर्क है कि गिनती वाले पेड़ों का राजस्व सरकार के पास जाएगा और बिना गिनती वाले पेड़ों का धन सरकारी अफसरों की जेब में जाएगा। तर्क कुछ भी हो, नुकसान पेड़ों का और सांसों का ही होगा।

स्थानीय समाज यह चाहता है कि सडक़ तो बने मगर वह देवदार के वन से न गुजरकर नदी के पूर्व से जाए, क्योंकि देवदार की प्रकृति के अनुसार इस पर्वत पर देवदार का सघन वन नहीं है। यहां अन्य प्रजाति के कुछ-कुछ पेड़ हैं जिनको पुन: उगाया या पुनस्र्थापित किया जा सकता है। यह भविष्य के गर्भ में है कि समाज और सरकार मिल-बैठकर इस समस्या का हल कर पाएंगे कि नहीं। वैसे स्थानीय प्रशासन, सर्वसमाज और मीडिया का सकारात्मक रुख मन को तसल्ली देता है, मगर सरकारें लुटियंस की दिल्ली से चलती हैं और निर्णय भी वहीं का चलता है। ऐसे में ‘प्रकृति से मानव है, न कि मानव से प्रकृति’, यह मानव को ध्यान रखना होगा। (सप्रेस)

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