संपादकीय (Editorial)

औषधीय पौधा मण्डूकपर्णी

मेंढक के पंजों की तरह पत्तियाँ होने के कारण इसे मण्डूकपर्णी के नाम से जाना जाता है। आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति में इसका प्रयोग प्राचीन समय से होता आ रहा है। यह एक बहुवर्षीय शाकीय पौधा है जो कि सम्पूर्ण देश के जलाशयों के किनारे स्वत: उगता है। मण्डूकपर्णी का प्रयोग मानसिक रोगों के उपचार एवं स्मरण शक्ति को सुदृढ़ बनाने हेतु किया जाता है।

औषधीय उपयोग: मण्डूकपर्णी का प्रयोग प्रमुख रूप से तंत्रिका तंत्र, मनोरोग, पागलपन, मिर्गी जैसे भयानक रोगों के उपचार हेतु प्रयोग किया जाता है। महर्षि चरक के अनुसार मण्डूकपर्णी मानसिक रोगों के उपचार की अचूक वनस्पति है।
मृदा एवं जलवायु: यह ठण्डी एंव आर्द्र जलवायु वाली फसल है। इसकी खेती आंशिक छाया एवं पर्याप्त नमी वाले स्थानों पर की जा सकती है। 5.0 से 7.5 पी.एच. वाली बलुई दोमट तथा चिकनी मिट्टी में भी इसके पौधों की वृद्धि अच्छी होती है।
भूमि की तैयारी: रोपाई पूर्व खेत को अच्छी प्रकार से जुताई करके खरपतवार रहित कर लेना चाहिये।
खेत को समतल बनाकर उसकी जलनिकास व्यवस्था को भी ठीक कर लें। ।
उन्नतशील प्रजातियाँ: मज्जापोशक, काया कीर्ति एवं लखनऊ लोकल तीन प्रजातियाँ केन्द्रीय औषधीय एवं सगंध पौधा संस्थान, लखनऊ के द्वारा विकसित की गई हैं।
प्रवर्धन: इक_ी की गयी लताओं की 5-10 सेमी. लम्बी ऐसी शाखाएँ जिन पर इन्टरनोड तथा जड़े हों, मण्डूकपर्णी के प्रवर्धन के लिए सर्वोत्तम होती हैं। मण्डूकपर्णी का पौधा वर्षा ऋतु में अच्छा वानस्पतिक वृद्धि करता है। इसके बीज अत्यन्त छोटे होते हैं, जो अक्टूबर-नवम्बर में प्राप्त होते हैं, बीज का अंकुरण बहुत कम होता है।
मण्डूकपर्णी की व्यावसायिक खेती हेतु उपर्युक्त शाखाओं की कटिंग अच्छे ढंग से तैयार की गयी क्यारियों में 5&10 सेमी. की दूरी पर लगा करके हल्की सिंचाई कर दी जाती है। लगभग एक सप्ताह मे जड़े निकल आती हैं तथा 35 से 40 दिन में पौधे रोपण योग्य तैयार हो जाते हैं। एक हेक्टेयर क्षेत्रफल के लिये लगभग 70 किग्रा. अथवा 40,000 पौधे पर्याप्त होते हैं ।
रोपाई तथा खाद एंव उर्वरक: नर्सरी से पौधों को उठाकर मुख्य खेत में 30&20 सेमी. की दूरी पर रोपित करें। कटिंग की रोपाई सीधे खेत में भी की जा सकती है। रोपाई का उपयुक्त समय जून से लेकर अगस्त माह तक होता है। रोपण के बाद खेत की तुरन्त सिंचाई करना आवश्यक है।
सिंचाई: पौधे की वृद्धि के दौरान खेत में पर्याप्त नमी का बना रहना आवश्यक है। इसके लिए भूमि की दशा, प्रकार तथा जलवायु के आधार पर आवश्यकतानुसार उचित अन्तराल पर सिंचाई करते रहें।
निराई-गुड़ाई एवं खरपतवार नियंत्रण: रोपाई के 15 से 20 दिनों के बाद से ही लगभग 20 दिनों के अन्तराल पर तीन से चार निराई-गुड़ाई की आवश्यकता होती है। मानसून के दिनों में खेत में खरपतवार नहीं होने चाहिए। पूरे वर्ष की फसल लेने हेतु सर्दियों के महीनों में भी फसल की निराई-गुड़ाई करके खरपतवार निकाल दें।
फसल की कटाई एवं प्रबंधन: रोपण के 75 से 90 दिनों बाद फसल काटने योग्य हो जाती है। पौधों की लम्बाई 20 से 30 सेमी. हो जाने पर उनकी कटाई की जाती है। उत्तर भारत के अधिक ठण्डक वाले क्षेत्रों में इसकी परती फसल नहीं प्राप्त हो पाती है। ऐसी स्थिति में पौधों को पूरा का पूरा उखाड़ दिया जाता है।
कटाई के बाद 4-5 दिनों तक शाक को धूप में सुखायें चाहिये। 7-10 दिनों तक इसे छाया में भली प्रकार सुखा कर इसका भण्डारण किया जा सकता है।
भण्डारण की अवधि 6 माह से अधिक होने पर मण्डूकपर्णी मेंं उपलब्ध वकोसाइड की मात्रा घटने लगती है।
अत: लम्बे समय तक भण्डारण से बचें। अच्छी तरह से कृषि क्रिया करने पर मण्डूकपर्णी की फसल से लगभग 180 से 200 क्विंटल प्रति हेक्टेयर ताजे शाक की प्राप्ति होती है।

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