बरसीम पौष्टिक दलहनी चारा फसल
बरसीम रबी मौसम में दलहनी चारे की एक महत्वपूर्ण फसल है। बरसीम दलहनी फसल होने के कारण मृदा की उर्वरता में वृद्धि करती है तथा इसका चारा अत्यन्त पौष्टिक, मुलायम, सुपाच्य तथा पशुओं को स्वाद में अच्छा लगने वाला होता है। अत: इसे दुधारू पशुओं को खिलाने से दूध में वृद्धि तथा शारीरिक स्वास्थ्य के प्रति अच्छे परिणाम मिलते हैं। इन्हीं गुणों के कारण शहर के निकटस्थ क्षेत्रों में बरसीम की खेती से अच्छी आय प्राप्त की जा सकती है तथा इसका प्रयोग हरी खाद के रूप में करना भी लाभदायक होता है, ठण्डे मौसम में लगातार हरा चारा प्राप्त करने के लिए यह सबसे उपयुक्त फसल है।
रसायनिक संगठन की दृष्टि से बरसीम में 20-2त्न प्रोटीन, 28-30त्न रेशा तथा शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु अन्य खनिज लवण जैसे कैल्सियम, मैग्नीशियम, फास्फोरस, सोडियम तथा पोटेशियम आदि पर्याप्त मात्रा में पाये जाते हैं।
बरसीम चारा फसल जलवायु:
बरसीम शीतोष्ण जलवायु वाले भागों में उगाई जाने वाली चारा फसल है। अधिक ठण्ड व पाले में उत्पादन में कमी हो जाती है। बुवाई के समय 25-30 डिग्री सेंटीग्रेड तथा वानस्पतिक वृद्धि के लिये 15-25 डिग्री सेंटीग्रेड तापमान उपयुक्त होता है। तापमान 40 डिग्री सें.ग्रे. से अधिक होने पर पौधों की कटाई के बाद दुबारा वृद्धि नहीं होती परन्तु फसल से यदि बीज का उत्पादन लेना होता है तो फसल पकने के समय कुछ अधिक तापक्रम की आवश्यकता होती है। अत: इस दृष्टि से उत्तर प्रदेश की जलवायु बरसीम की खेती के लिये उपयुक्त है।
बरसीम भूमि चयन :
बरसीम एक दलहनी फसल है अत: इसकी जड़ों में सूक्ष्म जीवाणु पाए जाते हैं प्रत्येक अवस्था में इन जड़ ग्रन्थियों में रह रहे जीवाणुओं का क्रियाशील रहना फसल की अच्छी वृद्धि के लिए अत्यन्त आवश्यक है। अत: बरसीम की खेती के लिए भूमि में उचित जल निकास का प्रबन्ध तथा अच्छा मृदा वायु संचार होना चाहिए। इसकी खेती सभी प्रकार की भूमियों में सफलतापूर्वक की जा सकती है। परन्तु भारी दोमट मिट्टी वाली भूमि जिसमें कि जल धारण क्षमता अधिक होती है, में अच्छी उपज प्राप्त होती है। बरसीम की खेती सामान्य से क्षारीय प्रकृति की भूमि में अच्छी प्रकार से उगाई जाती है किन्तु अम्लीय भूमि इसकी खेती के लिये अनुकूल नहीं है।
उन्नतशील प्रजातियाँ:
बरसीम में गुणसूत्र के आधार पर दो प्रकार की प्रजातियाँ द्विगुणित तथा चतुगुर्णिक पायी जाती है।
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द्विगुणित – मिसकावी, वरदान, बरसीम लुधियाना-1
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चतुगुर्णित – पूसा जायन्ट, टाइप-526, 678, 780
बरसीम की फसल के लिए खेत की तैयारी:
एक जुताई पलट हल से करने के बाद 4-5 बार हैरो तथा देशी हल लगाकर पाटा से खेत समतल कर लेना चाहिये। आवश्यकतानुसार समान सिंचाई हेतु क्यारियां भी बना लेनी चाहिये।
बुवाई की विधि: बरसीम की बुवाई की दो प्रमुख विधियाँ निम्न प्रकार से हैं:-
पानी भरे खेत में बुवाई :
पानी भरे खेत में पटेला चलाकर पानी गंदला करने के पश्चात छिटकवां विधि से बुवाई की जाती है। इस विधि में खेत की तैयारी धान में पौध रोपण करने की भाँति की जाती है। गंदले पानी में बुवाई करने से मिट्टी की एक हल्की पर्त बीजों के ऊपर के ऊपर चढ़ जाते है जिससे वे ढंक जाते हैं तथा उन्हें चिडिय़ा या दूसरे पक्षी नहीं खा पाते तथा पर्याप्त नमी होने के कारण बीज का अंकुरण व जमाव बहुत अच्छा होता है।
सूखे खेत में बुवाई :
इस विधि में अच्छी प्रकार की भुरभुरी मिट्टी तैयार कर समतल किये गये खेत में पहले ही सिंचाई की क्यारियां बनाकर बुवाई छिटकवां विधि द्वारा या लाइन में देशी हल की सहायता से की जाती है। लाइन की बुवाई करने पर लाइन से लाइन की दूरी 15-20 सेमी. रखनी चाहिये तथा बीज की गहराई 15-20 सेमी. से ज्यादा गहरी नहीं होनी चाहिये तथा अंकुरण हेतु पर्याप्त नमी बनाये रखने के लिये बुवाई के तुरन्त बाद खेत में पानी लगा दिया जाता है।
बीजदर:
द्विगुणित किस्मों की बीजदर 25 किग्रा./हे. तथा चतुर्गुणित किस्मों का बीज आकार में बड़ा होने के कारण 30-40 किग्रा./हे. होती है।
बीज उपचार:
बीज का उपचार दलहनी फसल होने के कारण राइजोबियम कल्चर से होना अति आवश्यक है। बरसीम में राइजोबियम ट्राईफोली नामक बैक्टीरिया का कल्चर प्रयोग में लाया जाता है जिसके प्रयोग से पौधों में अच्छी प्रकार से जड़ गाँठ का निर्माण होता है।
जड़ की गाँठो में उपस्थित बैक्टीरिया वायुमण्डल से नाइट्रोजन प्राप्त करते हैं कल्चर प्रयोग हेतु सर्वप्रथम 100 ग्राम गुड़ को 1 लीटर पानी में उबालकर, ठण्डा कर लेते हैं, तत्पश्चात इसमें राइजोबियम कल्चर को घोल लेते हैं तथा बीज के बराबर मात्रा में भुरभुरी मिट्टी लेकर धीरे-धीरे छिड़ककर इस प्रकार मिलाते हंै कि मिट्टी ढेले ना बने ।
तैयार संवर्धित घोल इस प्रकार से तैयार की गई कल्चर युक्त मिट्टी को 24 घण्टे भिगोये गये बीज के साथ मिलाकर बुवाई हेतु प्रयोग कर लेते हैं। ध्यान रखने योग्य बात यह है कि कल्चर बीज को 24 घण्टे से अधिक नहीं रखना चाहिये अन्यथा बैक्टीरिया नष्ट होने लगते हैं।
उर्वरक:
बरसीम दलहनी फसल होने के कारण इसकी जड़ों में राइजोबियम बैक्टीरिया होते हैं जो स्वयं वायुमण्डल से नत्रजन फिक्स करते है। अत: फसल को बाहर से कम नाइट्रोजन देने की आवश्यकता पड़ती है उन्नत फसल के उत्पादन हेतु 25-30 किग्रा. नत्रजन तथा 50-60 किग्रा. फास्फोरस प्रति हेक्टेयर की आवश्यकता पड़ती है।
अधिक उपज लेने के लिये प्रत्येक कटाई के बाद पानी लगाकर 5-6 किग्रा./हेक्टेयर की दर से यूरिया का छिड़काव करना चाहिये। लक्षण दिखाई पडऩे पर सूक्ष्म तत्वों का प्रयोग करना लाभकारी है।
सिंचाई:
बरसीम में ठण्डे मौसम में (मार्च माह तक) 15-20 दिन के अन्तर पर तथा मार्च के बाद 10-15 दिन के अन्तर पर सिंचाई की आवश्यकता होती है तथा प्रत्येक कटाई के बाद हल्का पानी लगा देने से उत्पादन में वृद्धि होती है।
फसल चक्र:
खरीफ की फसल के बाद रबी मौसम में बरसीम की खेती सुगमता पूर्वक की जा सकती है। बरसीम की खेती से अधिकतम लाभ प्राप्त करने हेतु निम्न प्रकार से फसल चक्र अपनाने पर मृदा की गुणवत्ता में वृद्धि के साथ-साथ अधिकतम आय प्राप्त की जा सकती है।
धान – बरसीम
मक्का – बरसीम, कपास – बरसीम
ज्वार या मक्का (चारे के लिय)े – बरसीम
मक्का (दाना) – बरसीम – मक्का (चारा)
मक्का (दाना) – बरसीम
सूडान घास – बरसीम
ज्वार या बाजरा-बरसीम-मक्का-लोबिया
फसल सुरक्षा:
चारे की फसल होने के कारण चूंकि बार-बार कटाई की जाती है। अत: रोग तथा कीड़ो का प्रकोप प्राय: नहीं दिखाई पड़ता है अत: फसल सुरक्षा के उपायों की आवश्यकता पड़ती है परन्तु रोग प्रतिरोधी किस्म की प्रजातियां बोने से जड़ गलन, सुलझा तथा गेरूई जैसे रोगों को संभावना भी नहीं रहती है। इसलिये बुवाई के लिये उन्नतशील रोगरोधी प्रजातियां का चयन करना चाहिये।
कटाई:
पहली कटाई बुवाई के 50-60 दिन बाद करनी चाहिये तथा इसके बाद 30-35 दिन के अन्तराल पर 5-6 कटाई की जाती है। कटाई सदैव जमीन से 6-10 सेमी. की ऊँचाई से काटे जाने चाहिये जिससे पौधे की पुर्नवृद्धि में भाग लेने वाली कलिकाओं को हानि न पहुंचे।
उपज: बरसीम से चारे की कुल उपज 1000-1200 कि./हे. तक प्राप्त होती है।