Editorial (संपादकीय)

नदी कटान की चपेट में जीवन

Share

1फ़रवरी 2021 भोपाल, नदी कटान की चपेट में जीवन – हमारे देश में लाखों परिवार ऐसे हैं जिनके आवास या कृषि-भूमि या दोनों नदियों द्वारा भूमि-कटान की प्रक्रिया में छिन चुके हैं। चाहे पश्चिम-बंगाल का मालदा व मुर्शिदाबाद का क्षेत्र हो या उत्तरप्रदेश के गाजीपुर व बहराईच का, चाहे असम के गांव हों या बिहार के। आज देश में अनेक ऐसे क्षेत्र हैं जहां बड़ी संख्या में लोग भूमि-कटान में अपना सब कुछ खोकर पुनर्वास का इंतजार कर रहे हैं।


असम में तो राज्य स्तर पर यह अति-महत्वपूर्ण मुद्दा बन गया है। वजह स्पष्ट है कि उपलब्ध अनुमानों के अनुसार आजादी के बाद के वर्षों में अभी तक असम की लगभग 4 लाख हेक्टेयर भूमि को नदियां लील चुकी हैं। यह समस्या यहां दिनों-दिन बढ़ती ही जा रही है। राष्ट्रीय स्तर पर कोई बड़ी पहल न होते देख यहां की राज्य सरकार ने राज्य स्तर पर भूमि-कटान पीडि़तों के लिए मुख्यमंत्री की एक विशेष योजना आरंभ की है पर अभी यह उल्लेखनीय प्रगति नहीं कर सकी है।

हाल के समाचारों के अनुसार15वें वित्त आयोग द्वारा नदी से भूमि-कटान को नेचुरल कैलैमिटी या प्राकृतिक आपदा के रूप में मान्यता दी जाएगी जिससे भूमि-कटान से पीडि़त परिवारों को नई उम्मीद मिल सकती है। पर अभी इस राहत के संदर्भ में असम और पश्चिम-बंगाल का नाम ही अधिक आ रहा है, जबकि उत्तरप्रदेश व बिहार जैसे राज्यों में भी इस आपदा पर ध्यान देना बहुत जरूरी है। यदि उत्तरप्रदेश की ही बात करें तो गाजीपुर, बहराईच और पीलीभीत जैसे जिलों में यह समस्या गंभीर रूप में उपस्थित है। गंगा व ब्रह्मपुत्र नदियों के अतिरिक्त घाघरा व महानदी जैसी अन्य नदियों के संदर्भ में भी इस समस्या का आकलन करना चाहिए। तुहिन दास, सुशील हालदार व अन्य अनुसंधानकर्ताओं के एक रिसर्च पेपर के अनुसार उत्तरप्रदेश में घाघरा नदी के आसपास भूमि कटान से प्रभावित होने वाले परिवारों की संख्या बहुत अधिक है। उनमें से अनेक बुरी तरह उजड़ चुके हैं पर उनकी क्षतिपूर्ति बहुत कम हुई है। इस कारण उनकी पलायन की मजबूरी बहुत बढ़ गई है।

भूमि-कटान में परिवारों का आवास छिन जाता है, उनकी क्षति तो बहुत होती है पर प्राय: दूसरा स्थान घर बनाने के लिए मिल जाता है। कभी-कभी तो कटान की भारी संभावना उपस्थित होने पर लोग स्वयं अपने घर तोडऩे के लिए विवश होते हैं, ताकि इसकी ईंटों व अन्य सामान का उपयोग वे कहीं और घर बनाने के लिए कर सकें। पर जिनकी कृषि भूमि छिन जाती है उनकी आजीविका का निश्चित स्रोत प्राय: सदा के लिए छिन जाता है। पुनर्वास की कोई योजना न होने के कारण प्राय: ये परिवार प्रवासी मजदूरी पर निर्भर हो जाते हैं।

यही वजह है कि पश्चिम-बंगाल का मुर्शिदाबाद हो या उत्तरप्रदेश का गाजीपुर जिला, प्राय: नदी-कटान प्रभावित परिवारों में प्रवासी मजदूरी पर निर्भरता बहुत अधिक दिखाई देती है। ऐसे अनेक समुदायों में प्रवासी मजदूरी ही आय का मुख्य स्रोत बन जाता है। हाल के समय में जिस तरह प्रवासी मजदूरों की आय कम हुई व समस्याएं बढ़ीं, तो नदी-कटान प्रभावित परिवारों की समस्याएं भी तेजी से बढ़ गई हैं।

जिस तरह की स्पष्ट मान्यता बाढ़ या चक्रवात जैसी आपदाओं को प्राप्त है, वह भूमि-कटान को न होने के कारण इन परिवारों के लिए उचित पुनर्वास व राहत का कार्यक्रम नहीं बन पाया है। यहां तक कि अनेक स्थानों पर तो नदी-कटान प्रभावित लोगों की संख्या व उनकी क्षति के बारे में प्रामाणिक जानकारी भी प्राप्त नहीं है, जबकि राहत व पुनर्वास योजना के लिए यह पहली जरूरत है। अब हाल के समय में संकेत मिले हैं कि यह स्थिति बदल सकती है। अत: अब तो और जरूरी हो गया है कि इस समस्या से प्रभावित परिवारों की सही जानकारी उपलब्ध हो। देश में जो क्षेत्र नदी-कटान से अधिक प्रभावित हैं वहां के बारे में प्रामाणिक जानकारी एकत्र कर राष्ट्रीय स्तर की राहत व पुनर्वास योजना आरंभ करनी चाहिए। असम जैसे राज्यों में जहां इस दिशा में पहले ही कुछ पहल हो चुकी है, उसके अनुभवों से भी सीखना चाहिए।

राहत पहुंचाने के अतिरिक्त इस समस्या को कम करने के प्रयास भी होने चाहिए। कुछ हद तक तो नदी द्वारा भूमि-कटान एक प्राकृतिक प्रक्रिया है जो चलती रहेगी, पर यह जरूर प्रमाणिक स्तर पर पता लगाना चाहिए कि किन स्थितियों में यह समस्या बढ़ती है व अधिक भीषण रूप लेती हैं।
इस बारे में सही समझ बनाकर नदी-कटान से होने वाले विनाश को कम करने के सफल प्रयास हो सकते हैं। कुछ तटबंधों व बैराजों के बारे में कहा गया है कि इनके बनने के बाद कुछ क्षेत्र में नदी-कटान की समस्या बहुत बढ़ गई है। यह बहुत जरूरी है कि पिछले अनुभवों से हम सही सबक ले सकें। यदि हम ऐसा नहीं करेंगे तो यह समस्या बढ़ती ही जाएगी और इसे संभालना बहुत कठिन हो जाएगा।

इस बारे में सही समझ बनाने के लिए विशेषज्ञों के अतिरिक्त समस्या से प्रभावित परिवारों, समुदायों व नदियों के आसपास के मछुआरों आदि से भी परामर्श करना चाहिए, क्योंकि प्रकृति के बदलते रंग-रूप की अधिक विस्तृत और बारीक समझ उनके पास हो सकती है। इस तरह जमीनी जानकारी व विशेषज्ञों की राय में समन्वय से सही स्थिति सामने आएगी और सही नीतियां भी बन सकेंगी। आगामी दशक में नदियों के भूमि-कटान के विनाश को कम करने तथा प्रभावित होने वाले समुदायों को राहत व पुनर्वास पहुंचाने के दो पक्षों को मिलाकर महत्वपूर्ण उपलब्धि प्राप्त की जा सकती है।

Share
Advertisements

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *