संपादकीय (Editorial)

किसान खेती पर आने वाले गंभीर खतरे से आगाह कर रहे हैं

शशिकांत त्रिवेदी

26 फरवरी 2024, नई दिल्ली: किसान खेती पर आने वाले गंभीर खतरे से आगाह कर रहे हैं – किसान, जिनमें से अधिकतर पंजाब से हैं, दिल्ली की सीमाओं पर विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं। किसानों की मांगों में न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को कानूनी रूप से बाध्यकारी बनाना और तथाकथित स्वामीनाथन फॉर्मूले के अनुसार एमएसपी तय करना शामिल है – इसमें व्यापक लागत (जिसमे फसल उगाने की वास्तविक कीमतें जैसे, खरीदी गई सामग्री; बीज, खाद, बकाया भाड़ा और पिछले ब्याज भुगतान शामिल हैं) पर 50 प्रतिशत लाभ का सुझाव दिया गया है, इस लागत अवधारणा में न केवल किसानों की सभी भुगतान की गई लागतें और पारिवारिक श्रम का आरोपित मूल्य शामिल है, बल्कि स्वामित्व वाली भूमि पर लगाया गया किराया और स्वामित्व वाली पूंजी पर लगाया गया ब्याज भी शामिल है।

अधिकांश फसलों के लिए सभी प्रकार की लागत और व्यापक लागत के बीच का अंतर लगभग 25 से 30 प्रतिशत है। मोदी सरकार ने जिस मौजूदा एमएसपी फॉर्मूले को स्वीकार किया है, वह कुल लागत (जिसमे सभी प्रकार की वास्तविक लागत और किसान परिवार द्वारा की गई मेहनत भी शामिल है) पर न्यूनतम 50 प्रतिशत मार्जिन है। इसलिए, यदि एमएसपी व्यवस्था के अंतर्गत आने वाली अधिकांश फसलों में इसे व्यापक लागत और इस पर 50 प्रतिशत मार्जिन से बदल दिया जाए, तो न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) 25 से 30 प्रतिशत तक बढ़ जाएगा।

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किसानों की कुछ अन्य मांगें हैं जिनमें ऋण माफी, किसानों और खेतिहर मजदूरों के लिए पेंशन, 700 रुपये प्रति दिन की न्यूनतम मजदूरी दर और मनरेगा श्रमिकों को किसानों के खेतों में काम करने की अनुमति देना शामिल है। उन्हें स्वीकार करने से महत्वपूर्ण आर्थिक प्रभाव पड़ सकते हैं, जिनमें राजकोष पर गंभीर दबाव डालना और खाद्य मुद्रास्फीति बढ़ाना शामिल है। इसलिए, किसानों की मांगों पर किसी भी निर्णय के लिए भावनाओं और राजनीति को बातचीत से दूर रखते हुए ठंडे दिमाग से सोचने की जरूरत है।

किसानों के साथ बातचीत करने वाले नीति निर्माताओं को एक बात समझनी चाहिए कि किसान बहुत परेशान हैं और वे बदलते आर्थिक माहौल में अब अधिक आय चाहते हैं। उनकी इन माँगों में ज़रा भी कुछ गलत नहीं है – लगभग हर कोई कम से कम अनिश्चितता और ज़यादा से ज़्यादा आय चाहता है। सवाल यह है कि क्या सरकार के पास अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंचाए किसानों की भरपाई के लिए पर्याप्त धन है? अगर सरकार किसानों की मांगों को जस का तस लागू कर दे तो ये अंदाजा लगाना भी मुश्किल है कि इसमें कितना पैसा चाहिए. यह इस बात पर निर्भर करेगा कि सरकार 23 वस्तुओं में से कितनी वस्तुओं को बढ़ी हुई एमएसपी पर खरीदेगी, बाजार की कीमतों का स्तर और ऋण माफी और पेंशन की राशि कितनी होगी। यह आँकड़ा काफी बड़ा होगा।

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तो, किसानों की आय बढ़ाने का सबसे अच्छा तरीका क्या होगा? वर्तमान एमएसपी व्यवस्था के तहत 23 फसलें खेती और खेती से जुडी उपज के मूल्य का केवल 28 प्रतिशत हैं। यदि सरकार इन 23 फसलों का एमएसपी लागत व्यापक लागत और उस पर 50 प्रतिशत मार्जिन के आधार पर बढ़ाने और इसे सभी खरीदारों पर कानूनी रूप से बाध्यकारी बनाने पर सहमत हो जाए तो यह यह फॉर्मूला दुसरी फसलों पर भी लागू होगा। मसलन फिर दूध पर इसी फार्मूले के तहत एम एस पी पर खरीदना होगा जिसका मूल्य गेंहू, दालें और गन्ने वगैरह से भी बहुत अधिक होगा। फिर बागवानी करने वाले, मुर्गी पालने वाले, अंडे वाले सभी को एम एस पी की गारंटी देनी होगी। जो गैर-कृषि उपज हैं, जैसे सब्ज़ियाँ, दूध वगैरा उनकी कीमतें भी बढ़ रही हैं जो लगभग 5 से 8 फीसदी हैं जबकि अनाज महज 1.8 फीसदी ही बढ़ा है |

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सरकार में बैठे लोगों को यह समझना ज़रूरी है कि बढ़ते शहरीकरण और बढ़ती महँगाई के कारण किसान के लिए खेती करना बहुत महंगा है. उसका भविष्य खेती से जुडी दूसरी गतिविधियों में है मतलब; भविष्य पशुधन, बागवानी और मछली पालन मत्स्य पालन और बागवानी में अधिक निहित है। सरकार के पास बहुत विकल्प भले न हों लेकिन सहकारिता के मॉडल अपना कर बाजार का जोखिम किसानों के बजाए बाजार में खेती की इन उपज को बाजार में मुहैया करने वाले लोगों द्वारा उठाया जाना चाहिए। ये तभी संभव है जब खेती और खेती से जुडी उपज उपभोक्ताओं की जेब की सीमा में हों और दुनिया भर के बाजारों में उनकी पहुँच हो. देश के कृषि-अनुसंधान एवं विकास संस्थान, कृषि वैज्ञानिक, बैंक और बाजार सम्हालने वाले लोग मिलकर काम करें तो किसानों और खेती को न केवल बचाया जा सकता है बल्कि देश में खेती को एक नई दिशा दी जा सकती है |

लेकिन काम आसान भी नहीं हैं सरकारों को खेती की उपज पर लगे सभी निर्यात प्रतिबंधों को हटाना होगा, निजी व्यापार पर भंडारण की सीमा को हटाना और भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) की आर्थिक लागत से कम कीमत पर खुले बाजार में गेहूं और चावल को मुहैया करवाना बंद करना पड़ेगा, क्योंकि किसानों का इनसे कुछ भला नहीं होता बल्कि हर फसल के मौसम में सारा बोझ उसी पर आता है. कीमतें बाजार के अनुसार नहीं बल्कि किसान के अनुसार तय करना पड़ेंगी क्योंकि किसान फैक्ट्री में अनाज नहीं बनाता न उससे अनाज खरीद कर बाजार उस पर कोई एहसान करता। अगर 80 करोड़ लोग राशन ले रहें हैं तो यह भी पता करना ज़रूरी है कि पिछले समय में उनमे से कितने लोग अच्छे खासे किसान थे जो बाद में खेतिहर मज़दूर और अब राशन पर आ गए हैं. बजट में खेती की सब्सिडी भी लगातार कम होती गई है जो अब लगभग 5 लाख करोड़ रूपये है लेकिन असल में इसका लाभ उपभोक्ता या बाजार को मिलता है न कि किसान को. खाद पर दी जाने वाली सब्सिडी से एम् एस पी कम रहती है और लाभ उपभोक्ता को मिलता है न कि किसान को — सरकार भले ही कोई हो. इस सरकार से उम्मीद है कि पहले यह समझे कि किसानों की ये वह आखिरी कौम है जो आने वाले खतरे से देश को आगाह कर रही है. ये केवल पंजाब और हरियाणा के किसानों के निजी लाभ की समस्या नहीं है. नहीं तो अभी 80 करोड़ गरीब राशन ले रहे हैं, कोई हल न निकला तो 140 करोड़ गरीबों को राशन पर आते देर नहीं लगेगी। इतना राशन जुटाना किसी भी सरकार के बस में नहीं है. सरकार को किसानों की मांगों का अध्ययन करना चाहिए और समस्या को जल्द से जल्द हल करने के लिए उनके साथ बैठना चाहिए।

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं |

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