चुनावी साल की चाल – भावान्तर! किसानों से छलावा
(श्रीकान्त काबरा मो. 9406523699) कृषि उपज के औने-पौने दाम में विक्रय होने पर होने वाले नुकसान की भरपाई के लिये ‘भावांतर भुगतान योजना’ मध्यप्रदेश शासन द्वारा प्रायोगिक रूप से खरीफ 2017 की अवधि के लिये प्रस्तुत की गई थी। इस योजना का शासन द्वारा बड़े जोर-शोर से प्रचार-प्रसार किया। किसानों के विरोध के कारण इस योजना में संशोधन कर इसे और अधिक स्वीकार्य बनाने के प्रयास किये। आसमानी प्रचार के चलते आकर्षित होकर अन्य राज्यों के प्रतिनिधि मंडल भी इस योजना का अध्ययन करने मध्यप्रदेश आये, हरियाणा राज्य ने इसे अपने प्रांत में लागू करने की घोषणा भी कर दी। प्रधानमंत्री के समक्ष भी म.प्र. के मुख्यमंत्री इस योजना की खूबियां गिना चुके हैं और भारत सरकार के नीति आयोग के सदस्य भी इसकी जानकारी ले चुके हैं। |
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योजना के प्रथम चरण के पूरा होते ही अब पूरे मध्यप्रदेश में मुख्यमंत्री, उनके मंत्रीमंडल के सदस्य जगह-जगह आयोजन कर किसानों को भावांतर योजना में दी जा रही अंतर की राशि का चेक समारोहपूर्वक देकर अन्नदाता को मिखभंगा और स्वयं को भामाशाह साबित करने पर तुले हुए हैं। इसे किसान हितैषी योजना बतलाते हुए इसके भावी विस्तार का संकल्प संजो रहे हैं, अपनी पीठ थपथपा रहे हैं। वस्तुत: इस योजना के प्रायोगिक रूप से सरकार के अनुसार सफल घोषित करने पर इसकी समीक्षा करना आवश्यक है। यह योजना किसान हितैषी है या व्यापारियों में लिए मुनाफा पीटने की सोने की खदान है और क्या भावांतर की राशि बांटकर किसानों का कल्याण किया जा सकता है अथवा केवल वोट बैंक जुटाने के लिये किसानों को भरमाना ही इसका प्रयोजन है।
शासन का सबसे मजबूत तर्क यह है कि भावांतर योजना से किसानों को मंडी में औने-पौने दामों में बिक्री उनकी फसल का भाव फर्क देकर शासन द्वारा प्रतिपूर्ति की गई, यह किसान के लिये लाभकारी आयोजन है। सच्चाई तो यह है कि इस योजना के माध्यम से किसानों को छला गया है। सीमित समयावधि में उसकी फसल जल्दी से बिकवा कर व्यापारियों को उनके गोदाम भरने, मुनाफा कमाने के लिये खुली सुविधा दी गई। जनता से टैक्स के रूप में वसूली धनराशि की बंदरबांट कर सरकारी खजाने को क्षति पहुंचाई गई, शासन के गोदाम खाली रहे, इस कारण भविष्य में बढ़ते मूल्यों के नियंत्रण के लिये शासन की कोई बाजार हस्तक्षेप की भूमिका ही नहीं बची। औने-पौने दामों में फसल बिकवाकर किसानों का नुकसान कराया, शासकीय खजाने को शासन की रीति-नीति के कारण नुकसान उठाना पड़ा और व्यापारियों को मनमाने बाजार भाव तय कर मुनाफा कमाने की खुली छूट मिल गई।
भारतीय जनता पार्टी ने अपने चुनावी घोषणा पत्र में उल्लेख किया था कि स्वामीनाथन कमेटी की अनुशंसाओं को लागू कर किसान को उसकी उपज का समर्थन मूल्य से डेढ़ गुना दाम दिलाया जाएगा। परंतु भावांतर योजना लागू करने पर डेढ़ गुना की कौन कहे, समर्थन मूल्य के भी लाले पड़ गये। महाराष्ट्र, राजस्थान प्रांतों में नाफेड के माध्यम से शासकीय खरीद खरीफ सीजन 2017 में चालू रही इससे किसानों को उसकी उपज के बाजार भाव समर्थन मूल्य पर मिलते रहे, शासकीय खरीद एजेंसियों की बाजार में क्रय हेतु सक्रिय उपस्थिति के कारण प्रतिस्पर्धात्मक माहौल रहा व किसानों को शासकीय खरीद के चलते उनकी उपज के अच्छे दाम भी मिले। भावांतर योजना के चलते मध्यप्रदेश में कृषि उपज क्रय करने के लिये कोई शासकीय एजेन्सी सक्रिय ही नहीं थी, बाजार में मूल्य नियंत्रण प्रोत्साहन के लिये कोई प्रतिस्पर्धात्मक माहौल ही नहीं था ऐसे में व्यापारियों के क्रय हेतु एकाधिकार के कारण किसान लुटने के लिये विवश और लाचार बने रहे। सीमित समयावधि के लिये लागू भावांतर योजना में किसानों ने भावफर्क पाने के लिये जल्दी में सोयाबीन बेची और 2400 रु. के औसत भाव में 40-45 लाख टन सोयाबीन व्यापारियों के गोदामों में पहुंच गया। भावांतर योजना पूरी होते ही औसत 2400 रु. मूल्य में बिकने वाली सोयाबीन 3000 रु. क्विंटल बिकने लग गई। यदि यह योजना इसी रूप में अपनाई जाती है तो शासकीय गोदामों में एक भी दाना न होने के कारण महंगाई थामने, मूल्य नियंत्रण तथा प्राकृतिक आपदा के समय आम जन तक खाद्यान्न आपूर्ति करने के लिये शासन की कोई भूमिका ही नहीं होगी।
शासन का दायित्व है कि कृषि जिंसों का समर्थन मूल्य घोषित होने के बाद सामान्यत: कृषि उत्पादन घोषित समर्थन मूल्य से नीचे न बिके ताकि किसानों को घाटा न हो परंतु ऐसी व्यवस्था करने की बजाय भावांतर जैसी योजना लागू कर अपनी पीठ थपथपाना किसानों के साथ तो अन्याय है ही, देश की बड़ी आबादी का पेट भरने के नैतिक उत्तरदायित्व से भी मुंह मोडऩे के समान है। समर्थन मूल्य पर क्रय करने की नीति से पीठ फेरना, भावांतर जैसी योजना लागू कर किसान को उसकी उपज का उचित दाम न दिलाना, विदेशों से अबाधित, अनियंत्रित खाद्यान्नों का आयात जारी रखना, कुल मिलाकर गरीब किसान को गरीब बनाये रखने का आयोजन करते हुए उसकी आमदनी दुगनी करने का, खेती को लाभ का धंधा बनाने का सब्जबाग दिखाना किसानों को धोखा देना है।
समर्थन मूल्य पर कृषि उपज खरीदने की नीति से शासन ने मुंह फेरा तो शासन के समर्थन के आधार पर वर्षों में विकसित सहकारिता तंत्र की एजेंसियां -किसान मार्केटिंग सोसाइटी, मार्केटिंग फेडरेशन, नागरिक आपूर्ति निगम इन सबके लिये भी कोई काम नहीं बचेगा, इनका संचालन खर्च भी नहीं निकलेगा ये सभी संस्थायें नाकारा सफेद हाथी बनकर रह जायेंगी। शासन दल का काम नीतियां बनाना और अधिकारियों का काम उन्हें लागू करना है परंतु जब अधिकारीगण नीति निर्माता और शासक उनके प्रशंसक और पिछलग्गू बन जायेंगे तब बंटाढार तो होना ही है। भावांतर उसी का परिणाम है। भावांतर योजना से किसान को उसके पूरे कृषि उत्पादन के विक्रय का मूल्य मिले यह भी जरूरी नहीं है। खेतों में औसत उत्पादन से अधिक होने पर यदि किसान उसे बाजार में विक्रय के लिये प्रस्तुत करें तो शासन उस किसान को संदेह की निगाह से देखने लगता है, उसके उत्पाद को खरीदने की बजाय उसे धोखेबाज समझ कर उस पर जांच बैठा देता है, उसकी कृषि उपज का भुगतान रोक देता है। सरकार खेती की प्रकृति को समझने को तैयार ही नहीं है। कृषि कार्य में हर खेत से एक समान फसल उत्पादकता नहीं मिलती, खेती कोई उद्योग जैसा व्यवहार नहीं करती। उद्योग में उत्पादन का मूल आधार उत्पादन में प्रयुक्त सामग्री की मात्रा होती है जबकि खेती में समान मात्रा में कृषि आदान प्रयोग किये जाने पर भी होने वाला उत्पादन समान क्षेत्र के लिये अलग-अलग होता है। कृषि उत्पादन पर केवल लगने वाले आदान ही नहीं, विभिन्न कारक यथा मौसम, मृदा फसल उत्पादन के लिये की जाने वाली प्रविधियां कीड़े बीमारी आदि विविध कारक प्रभावित करते हैं। |