Editorial (संपादकीय)

कृषि में संतुलित उर्वरक आवश्यक

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4 जुलाई 2022, भोपाल । कृषि में संतुलित उर्वरक आवश्यक – रसायनिक उर्वरकों के उपयोग में संतुलन लाना आज की आवश्यकता है। उर्वरकों की बढ़ती कीमतों के चलते ना केवल उनका संतुलित उपयोग महत्वपूर्ण है। बल्कि उन उर्वरकों का भूमि में स्थान उससे अधिक महत्वपूर्ण है। आमतौर पर यह देखा गया है कि बुआई के लिये कम समय विशेषकर खरीफ मौसम। कहावत है- खरीफ के 3 दिन रबी के तेरह के आधार पर कृषक उर्वरकों को भूमि में फेंक कर बुआई करके निपटना सुलझना आसान कार्य मानता है। परन्तु यह अत्यधिक दोषपूर्ण तथा आर्थिक दृष्टि से हानिकारक भी, क्योंकि ऐसा करने से उर्वरकों के उपयोग का पूर्णतया दोहन नहीं हो पाता है। यूरिया बरसात के पानी में बह जाता है यदि महंगे उर्वरकों में उसकी उपयोगिता बताना है तो निश्चित ही विशेषकर सुपर फास्फेट के मामले में तो यह और भी जरूरी। महाकाल दुफन, सीड कम फर्टिलाइजर बुआई मशीन वर्तमान में उपलब्ध है उनके क्रय पर शासन का अनुदान भी है तो कृषकों को यह सलाह मानना ही चाहिए कि महंगे उर्वरकों की स्थापना यथा स्थान करके उस पर किये गये खर्च का पूर्ण दोहन हो सके। खरीफ मौसम की प्रमुख फसलें सोयाबीन, धान, कपास, ज्वार, मक्का, अरहर, मूंगफली तथा लघुधान्य आती है जिनकी बुआई होना है। हमारे क्षेत्र में सोयाबीन, धान का क्षेत्र बहुत है। खासकर दोनों फसलों में उर्वरक प्रबंधन का विशेष महत्व है। सोयाबीन तिलहनी फसल है उसकी जरूरत फास्फेट है, धान को नत्रजन की अधिक आवश्यकता होती है।

उल्लेखनीय है खरीफ फसलों का क्षेत्र अधिक है परन्तु रबी की तुलना में उत्पादकता कम है जिसके कारकों में जलप्रबंध, उर्वरक प्रबंध, पौध संरक्षण प्रबंध ढेरों प्रबंध आते हैं। जिससे कहीं न कहीं चूक हो जाती है और उत्पादन प्रभावित हो जाता है। जहां तक जल प्रबंधन का सवाल है यह खरीफ मौसम में मानसून के मिजाज पर निर्भर रहता है जिसमें अधिक या कम वर्षा तथा वर्षा का सामान्य रूप से ना होना आता है। इस तरह की चुनौतियों से कृषकों का जूझना सामान्य बात हो गई है। पिछले साल ही खरीफ रबी दोनों मौसम में परसी थाली हाथों से खिसक गई। विशेषकर खरीफ मौसम में फसल बर्बाद हो गई यहां तक की आज बुआई के लिए बीज की समस्या मुंहबाये सामने खड़ी है जिसके समाधान के लिए शासन और कृषक निजी तौर पर युद्ध स्तर पर लगे हुये हैं।

मानसून की अनिश्चितता का सामना करना पड़ सकता है। समय परिस्थितियों का अवलोकन करके ही महंगे उर्वरकों का उपयोग करना हितकर होगा। कुछ दशक पहले केवल नत्रजन, स्फुर तथा पोटाश के उपयोग से काम चल जाता था। सतत दो-तीन फसली कार्यक्रमों के चलते आज की स्थिति में सूक्ष्म तत्वों की भी कमी देखी जाने लगी है विशेषकर जस्ता तथा गंधक। धान की फसल में जस्ते की कमी से खैरा रोग आता है जिसके कारण उत्तर प्रदेश के तराई क्षेत्रों में महामारी जैसी स्थिति पैदा हो गई थी इस कारण जस्ते की कमी का परीक्षण करके उसका उपयोग जरूरी होगा। सोयाबीन में सिंगल सुपर फास्फेट के उपयोग से गंधक की पूर्ति भी सम्भव हो सकती है। कृषकों को सलाह है कि परम्परागत फसल ज्वार, मक्का, लघु धान्य का समावेश अंतरवर्तीय फसलों के रूप में अवश्य करंे तथा संतुलित उर्वरक उपयोग एवं उसकी स्थापना पर विशेष ध्यान दिया जाये ताकि खरीफ मौसम में लक्षित उत्पादन प्राप्त किया जा सके।

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