रबी फसलों के स्थान पर औषधीय एवं मसाला लगायें
चन्द्रशूर एक ऐसी रबी औषधीय फसल है, जो विभिन्न प्रकार की भूमियों में बहुत ही कम संसाधनों में व सीमित सिंचाई साधनों के साथ उगाई जा सकती है।
चन्द्रशूर की प्रमुख विशेषताएं
1. चन्द्रशूर विभिन्न प्रकार की भूमियों में उगाया जा सकता है।
2. फसल की यदि 1-2 बार ही सिंचाई की जाये तो भी अच्छी उपज प्राप्त हो जाती है।
3. चन्द्रशूर की खड़ी फसल को पशु नहीं चरते।
4. चन्द्रशूर की खाद/उर्वरक की मांग भी अत्यंत सीमित है।
5. चन्द्रशूर को सामान्यत: कीट-बीमारी कम लगती है।
6. चन्द्रशूर के पौधों की वृद्धि तेजी से होती है, अत: नींदा कम पनप पाता है।
7. कम लागत में अपेक्षाकृत अधिक लाभ देने वाली फसल है।
8. किसान भाईयों को रतलाम, नीमच, मन्दसौर तथा इंदौर में बाजार होने से विपणन की समस्या नहीं। .
9. चन्द्रशूर मालवरोध, चोट, अपच जैसी बीमारियों/ विकारों में भी उपयोगी दवा है।
वानस्पतिक विवरण
चन्द्रशूर का वानस्पतिक नाम लेपीडियम सटाइवम है एवं यह कुसीफेरी कुल का सदस्य है। मध्यप्रदेश में इसकी खेती सफलतापूर्वक व्यावसायिक स्तर पर की जा रही है।
चन्द्रशूर के अन्य नाम
असारिया, हालिम आली आरिया आदि।
चन्द्रशूर का पौधा 30-60 सेमी ऊंचा होता है जिसकी उम्र 3-4 माह होती है। इसके बीज लाल भूरे रंग के होते हंै जो 2-3 मिमी लंबे बारीक तथा बेलनाकार होते हैं। पानी लगने पर बीज लसलसे हो जाते हंै। इसकी खेती रबी के मौसम में की जाती है। इसका पौधा अलसी से मिलता जुलता होता है।
औषधीय उपयोग
चन्द्रशूर लम्बाई बढ़ाने एवं सुदृढ़ता के लिये बच्चों को दूध के साथ दिया जाता है महिलाओं की प्रसव के उपरांत दूध न उतरने पर इसका सेवन अत्यंत उपयोगी माना गया है, पाचन संबंधी विकार, नेत्र पीड़ा, वांत, मूत्र शुद्धि एवं प्रसव उपरांत टानिक के रूप में भी इसका प्रयोग आयुर्वेदिक चिकित्सा में किया जाता है। पशु आहार में चन्द्रशूर के उपयोग से दुधारू पशुओं में दुग्ध उत्पादन बढ़ जाता है।
अधिक उत्पादन के प्रमुख बिन्दु –
भूमि
चन्द्रशूर वैसे तो सभी प्रकार की मिटटी में उगाया जा सकता है लेकिन उत्तम जल निकास वाली बुलई, दोमट मिट्टी जिसका पी.एच.मान सामान्य हो उपयुक्त होती है।
खेत की तैयारी
खेत में 3-4 बार जुताई कर पाटा से खेत को समतल कर लें। अंतिम जुताई में 6 टन गोबर खाद प्रति हेक्टेयर डाले यदि खरीफ की फसल में गोबर खाद डाली हो तो खाद डालने की आवश्यकता नहीं है।
बुआई समय
असिंचित क्षेत्रों में सितम्बर से अक्टूबर में तथा सिंचित क्षेत्रों मेें अक्टूबर-नवम्बर माह में बोनी की जाती है।
बीज दर एवं विधि – बीज दर 8 से 10 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से प्रर्याप्त होता है। कतारों से कतारों के बीच की दूरी 20 से 30 से.मी एवं बीज 1 से 1.5 से.मी. की गहराई पर डालें।
बीज उपचार – 2 ग्राम थायरम $ 1 ग्राम बाविस्टीन प्रति किलोग्राम बीज के मान से बीज को उपचारित करें।
रसायनिक खाद
20 किलोग्राम नत्रजन, 40 किलोग्राम स्फुर एवं 25 किलोग्राम जिंक सल्फेट प्रति हेक्टर के मान से बीज बुआई के पूर्व खेत में मिलायें।
खरपतवार रोकथाम – 20 -25 दिन बाद खुरपी से खरपतवार निकालें।
कीड़े एवं बीमारी की रोकथाम
द्य माहो की रोकथाम के लिये रोगोर 1.5 मिली दवा / लीटर पानी मे घोलकर छिड़काव करना चाहिये।
द्य अल्टरनेरिया के भूरे धब्बे तने पर दिखने पर डायथेन एम. 45, तीन ग्राम दवा / लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करना चाहिये।
सिंचाई
चन्द्रशूर की फसल असिंचित भूमि में ली जा सकती है किन्तु यदि 2 -3 सिंचाई उपलब्धता के आधार पर क्रमश: एक माह, दो माह, एवं ढाई माह पर सिंचाई करें तो यह लाभकारी होता है।
कटाई एवं गहाई
चन्द्रशूर की फसल 90 से 120 दिन के अंदर पक कर कटाई के लिये तैयार हो जाती है। पत्तियां जब हरे से पीली पडऩे लगे एवं फल में बीज लाल रंग का हो जाये तो यह समय कटाई के लिये उपयुक्त रहता है। हंसिये या हाथ से इसे उखाड़कर खलिहान में 2-3 दिन सूखने के लिये डाल दें फिर डंडे से पीटकर या ट्रैक्टर घुमाकर गहाई कर बीज को साफ कर लें।
उपज-असिंचित भूमि में 10-12 क्विंटल तथा सिंचित भूमि में 14-16 क्विंटल प्रति हेक्टर उपज प्राप्त होती है।
विपणन – नीमच, रतलाम, एवं मंदसौर, की मंडियों में यह बिक जाता है।
ईसबगोल एक औषधीय पौधा है। इसकी खेती सबसे अधिक भारत में पैदा की जाती है। राज्यों में – गुजरात पंजाब और उत्तर प्रदेश प्रमुख है जहांं ईसबगोल एक नगद फसल के रूप में पैदा की जा रही है।
ईसबगोल एक छोटा तना रहित शाकीय पौधा होता है इसके बीज का छिलका (भूसी) का उपयोग औषधि के रूप में उपयोग किया जाता है। इसके बीज में क्यूसीलेज और एल्वोमीनियम पदार्थ सुरक्षित एवं अधिक मात्रा में पाया जाता है जो बीमारियों जैसे आमशय की जलन, मूत्र रोग, स्थाई कब्ज, आंव व दस्त, बवासीर आदि रोगों की रोकथाम के काम आते हैं।
अधिक उत्पादन के प्रमुख बिन्दु
जलवायु- ठंडा सूखा वातावरण तथा खुले मौसम में ईसबगोल की फसल अच्छी होती है। फसल पकने के समय बादल नमी युक्त वातावरण अच्छा नहीं होता हैं ईसबगोल ऐसे समय में बोना चाहिये ताकि वह खुले मौसम में कट जावें अन्यथा पानी गिरने से इसका बीज खराब हो जाता है।
भूमि- ईसबगोल सभी प्रकार की भूमि में पैदा किया जा सकता है परंतु उत्तम जल निकास वाली रेतीली दोमट भूमि इसके लिए उपयुक्त रहती है, जिसका पी एच मान 7 से 8 के बीच हो।
भूमि की तैयारी- गोबर खाद भूमि में मिलाकर मिट्टी को बारीक भुरभुरी समतल निथार युक्त बनाकर सिंचाई की सुविधानुसार क्यारियों का आकार रखना चाहिये। बोनी लाईनों में या छिड़काव पद्धति से कर सकते हैं। लाइन से लाइन की दूरी 20 से मी रखना चाहिये।
उन्नत जातियां- गुजरात ईसबगोल – 1, गुजरात ईसबगोल – 2 ये जातियां मध्यप्रदेश में 110 से 120 दिन में पककर तैेयार होती हैं। तथा 12 -14 क्विंटल प्रति हेक्टर उपज देती है। जवाहर ईसबगोल-4। यह 15 -17 क्विंटल प्रति हेक्टर उपज देती हैं।
बीज की मात्रा- 4 से 5 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर की दर से प्रर्याप्त होता है। कतारों से कतारों के बीच की दूरी 20 से 30 से.मी एवं बीज 1 से 1.5 से.मी. की गहराई पर बोएं।
बीज उपचार- 2 ग्राम थायरम, 1 ग्राम बाविस्टीन प्रति किलोग्राम बीज से बीजोपचार किया जाता है।
बोनी का समय- ईसबगोल अक्टूबर में बोना चाहिये। बोनी पश्चात हल्की सिंचाई करना चाहिये ताकि बीज अपने स्थान से न हटे। 6 से 10 दिन में अंकुरण हो जाता है।
खाद की मात्रा- गोबर खाद 15 टन प्रति हेक्टेयर आखिरी जुताई के साथ भूमि में मिलायें।
रसायनिक खाद – 50 किलोग्राम नत्रजन (50 प्रतिशत बोते समय एवं 50 प्रतिशत एक माह बाद खड़ी फसल में प्रथम सिंचाई के समय ), 40 किलोग्राम स्फुर, 20 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टर बुआई के समय दें।
सिंचाई – पहली सिंचाई अंकुरण के लिये, द्वितीय सिंचाई 21 दिन बाद तथा तीसरी सिंचाई बालिया बनते समय देना चाहिये। ईसबगोल फसल मे कुल 3-4 सिंचाई की आवश्यकता पड़ती है। ध्यान रहे कि पानी खेत में न भरे अन्यथा फसल मर जायेगी।
निंदाई- खरपतवार नष्ट करने के लिये 1-2 निंदाई करवाना आवश्यक है अन्यथा उपज में कमी आ जाती है।
कीड़े एवं बीमारी की रोकथाम- ईसबगोल मे मुख्य रुप से मोला (माहू) कीट का प्रकोप फूल अवस्था पर देखा गया है। कीट की रोकथाम के लिये मिथाइल ङेमेटान 1 से 1.25 मिली दवा / लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करना चाहिये।
बीमारी- पावडरी मिल्डयू की रोकथाम के लिये 2 प्रतिशत घुलनशील सल्फर दो या तीन बार 15 दिन के अंतर से छिड़काव करें।
डाउनी मिल्ड्यू बीमारी की रोकथाम के लिये 0.1 प्रतिशत बाविस्टीन का जैसे ही बीमारी दिखे छिड़काव करें तथा 8-10 दिन के अंतर से छिड़काव करेंं।
कटाई एवं गहाई- ईसबगोल फसल करीब 4-5 माह में पककर तैयार हो जाती है। जैसे ही पत्तियां पीली पड़ें और बालियां हरे रंग से भूरे रंग की हो जाये तो फसल पक गई। फसल सुबह के समय काटना चाहिये जिससे उसके दाने गिरते नहीं है। फसल काटने के बाद 1 से 2 दिन सुखा कर गहाई करना चाहिये। बीज और छिलका को अलग करने के लिये ग्रेडिंग मशीन का उपयोग करना चाहिये। उपज में लगभग 30 प्रतिशत भूसी निकलती है जो औषधि के काम आती है।
उपज- ईसबगोल की उपज करीब 12 -15 क्विंटल प्रति हेक्टयर आती है।