संसद के राष्ट्रीय राजनीतिक पश्चाताप अधिवेशन की माँग
- ध्रुव शुक्ल (9425301662)
संसद के राष्ट्रीय राजनीतिक पश्चाताप अधिवेशन की माँग – कोरोना काल में ही प्रधानमंत्री जी को कहते सुना कि देश के अस्सी करोड़ लोगों को मुफ्त अनाज बाँटने का इंतज़ाम किया गया है। यह तथ्य जानकर दिल काँप गया कि देश में अस्सी करोड़ बेघर लोग अभावग्रस्त जीवन काट रहे हैं। उन्हें देश के हृदयप्रदेश मध्य प्रदेश में ही ऐसा अनाज बाँटा जा रहा है जिसे पालतू पशु भी खाने से इंकार कर रहे हैं और पशुओं के चारा-पानी के भी लाले पड़े हैं।
देश के ज़्यादातर असहाय लोग पिछड़े गाँवों की झोपड़ियों और शहरों की झुग्गी बस्तियों में किसी तरह जीवन काट रहे हैं। इनके पुनर्वास और रोज़गार की व्यवस्था किये बिना इन्हें बेदखल करना हर बार अन्यायपूर्ण साबित हुआ है। दर-दर की ठोकरें खाते ये लोग मतदाता तो हैं पर आज तक इनकी कोई राजनीतिक , सामाजिक और आर्थिक हैसियत ही नहीं बनी।
इसके लिए देश में प्रचलित वोट बैंक की राजनीति, सामाजिक छुआछूत और इस बड़े असंगठित हुनरमंद जीवन का आर्थिक आधार पर तिरस्कार सबसे बड़ी बाधाएँ रही हैं। हमारे नेता हर चुनाव के बाद भूल जाते हैं कि संविधान इन्हीं बाधाओं को दूर करने के लिए रचा गया है जो सत्तर साल में भी दूर नहीं हुईं। 1977 से अब तक किसी न किसी रूप में सभी सत्ताप्रेमी दल देश पर शासन कर चुके हैं।
आज़ादी के तुरंत बाद मिश्रित अर्थव्यवस्था पर बल दिया गया था पर यह ढाँचा बड़ी चालाकी से देश के सभी राजनीतिक दलों ने विश्व व्यापार संगठन के दबाव में आकर तोड़ दिया। यह असंगठित जीवन देश की मतदाता सूची में तो है पर अपने ही देश में बेदखल है। जो राजनीतिक दल इस असंगठित जीवन के वोट से सत्ता के स्वर्ग में निवास करने की शक्ति जुटाकर गठबंधन करते हैं ,उनके पास देश के इस टूटे-बिखरे जीवन के गुजर-बसर की कोई कल्पना नहीं।
अब महामारी की ओट लेकर इस विपदाग्रस्त जीवन की बेदखली के लिए बाज़ार की लोभग्रस्त ताक़तों का सहारा लेकर जो राजछल रचा जा रहा है, वह तो इस जीवन को कहीं का नहीं छोड़ेगा।
मैं भारत के सभी राजनीतिक दलों से हाथ जोड़कर विनती करता हूँ कि वे एक-दूसरे पर दोष मढ़ने की बजाय अपनी भूल-ग़लतियाँ स्वीकार करने के लिए संसद का ” राष्ट्रीय राजनीतिक पश्चाताप अधिवेशन” बुलायें। पश्चाताप की आग में तपकर ही इस बेबस जीवन की सहायता का प्रारूप रचा जा सकता है। अपने-अपने दलीय राजनीतिक पाप छिपाकर एक असहाय लोकतंत्र को अब नहीं चलाया जा सकता। हम दुनिया के साथ चलने के लिए अपने देश के बेसहारा लोगों को अकेला कैसे छोड़ सकते हैं।