फसल प्रबंधन में जैविक अभिकर्मक ट्राइकोडर्मा का प्रयोग
- डॉ. जय पीराय
सह-प्राध्यापक (पौध संरक्षण), कवक एवं पादप रोग विज्ञान विभाग - डॉ. एस.के. गोयल
सहायक प्राध्यापक (कृषि अभियंत्रण), कृषि अभियंत्रण विभाग - डॉ. एस.एन. सिंह
कार्यक्रम सहायक, (मृदा विज्ञान एवं कृषि रसायन), कृषि विज्ञान केन्द्र,
कृषि विज्ञान संस्थान, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, राजीव गाँधी दक्षिणी परिसर बरकछा, मिरजापुर - डॉ. आलोक कुमार सिंह
सह-प्राध्यापक एवं अध्यक्ष, पादप रोग विज्ञान विभाग,
कृषि संकाय, उदय प्रताप स्वायत्त शासी महाविद्यालय, वाराणसी
2 नवम्बर 2022, फसल प्रबंधन में जैविक अभिकर्मक ट्राइकोडर्मा का प्रयोग – ट्राइकोडर्मा कृषि से सम्बन्ध रखने वाले किसी भी व्यक्ति के लिए जाना-पहचाना नाम है। ये मुक्तजीवी कवकों का एक वंश है जो सामान्यतया मृदा और पौधों की जड़ों के सम्मिलित सूक्ष्म जलवायु प्रणालियों में पाए जाता ेहै। कवक जगत के विभाग एस्कोमाइकोटा में वर्गसोर्डेरियोमायसिटीज के अंतर्गत हाइपोक्रिएल्स गण में हाइपोक्रिएसी कुल से संबंध रखने वाले ये कवक विभिन्न प्रकार से पादप वृद्धिकारी प्रक्रियाओं में अपना योगदान करते हैं। जहाँ तक इसके बारे में जानकारी की बात है, हम देखते हैं कि वर्ष 1794 में क्रिस्चियनहेंड्रिक परसून ने सर्वप्रथम इसका विस्तृत वर्णन प्रस्तुत किया था। कृत्रिम संवर्ध पर 25 से 30 डिग्री सेल्सियस तापमान पर तेजी से बढऩे वाले इस कवक वंश की कुछ प्रजातियाँ 45 डिग्री सेल्सियस तापमान पर भी वृद्धि करती हुई जानी जाती हैं। प्राथमिकता पौधों के रोगजनक कवकवंशों के विरुद्ध प्रभावी होने के साथ-साथ उनका शमन करने की दिशा में ट्राइकोडर्मा की विभिन्न प्रजातियाँ महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करती हैं। इसके साथ ही साथ ट्राइकोडर्मा कवकवंश की विभिन्न प्रजातियाँ पौधों के मूल क्षेत्र में विभिन्न प्रकार के यौगिकों का उत्पादन, स्रावण या विमोचन करते ेहैं जो सम्बन्धित पौधों में कीटों और रोगों के विरुद्ध अनेक रक्षात्मक प्रतिक्रियाओं को प्रेरित करने के लिए जाने जाते हैं। मृदा में ट्राइकोडर्मा कवकवंश की प्रजातियाँ प्रचुर मात्रा में उपस्थित होना इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि इनका उपयोग पौधों की अनेक मृदाजनित तथा बीजजनित बीमारियों को नियंत्रित करने में जैविक अभिकर्मकों के रूप में किया जा सकता है और इतना ही नहीं, इन मित्र कवक प्रजातियों में पौधों की मूल वृद्धि को बढ़ावा देने की क्षमता भी होती है। पादप वृद्धि को बढ़ावा देने के लिए ट्राइकोडर्मा की कुछ क्रिया विधियाँ निम्नलिखित हैं-
- कवक परजीविता (माइकोपैरासिटिज्म)
- प्रतिजैविकता (एंटीबायोसिस)
- पोषण तथ स्थान के लिए प्रतियोगिता
- पौधों के मूलवर्धन द्वारा उनमें दबाव कारकों के प्रति सहनशीलता का विकास
- अकार्बनिक पोषक तत्वों को घुलनशील बनाकर पौधों को उपलब्ध कराना
- प्रेरित प्रतिरोध (इंड्यूस्ड रेजिस्टेंस)
- रोगजनकों के एंजाइमों का निष्क्रियकरण
प्रमुख रूप से ट्राइकोडर्मा की दो प्रजातियाँ-ट्राइकोडर्मा विरिडी और ट्राइकोडर्मा हरजियेनम प्रचलित हैं जो वर्तमान में कृषि में महत्वपूर्ण भूमिका के लिए जानी जाती हैं।
ट्राइकोडर्मा का उपयोग करने के लाभ
रोगों का प्रभावी एवं रसायन रहित तरीके से जैविक नियंत्रण: ट्राइकोडर्मा की प्रजातियों का उपयोग विभिन्न मृदा जनित रोग जनक कवकों जैसे फ्यूजेरियम, फाइटोप्थोरा, स्केलेरोशियम के विरुद्ध किया जा सकता है। ठंडे मौसम अथवा कम तापमान पर ट्राइकोडर्मा का पर्णीय छिडक़ाव करने से पर्ण रोगों जैसे झुलसा, चूर्णी फफूंदी, मृदुरोमिल आसिता आदि भी नियंत्रित हो जाते हैं। ऐसा माना जाता है कि ट्राइकोडर्मा की प्रजातियाँ मिट्टी और पौधे की जड़ क्षेत्र में मौजूद पौध-परजीवी सूत्रकृमियों के प्रति हानिकारक गतिविधि का प्रदर्शन करती हैं और इस प्रकार पौधों को इन हानिकारक जीवों से सुरक्षा प्रदान करती हैं।
पादप वृद्धि वर्धन: ट्राइकोडर्मा प्रजाति के उपभेद मृदा में अघुलनशील रूप में उपस्थित फॉस्फेट और अनेक अकार्बनिक सूक्ष्म पोषक तत्वों को घुलनशील बनाने में सहायता करते हैं और इस प्रकार पौधों को उनकी उपलब्धता सुनिश्चित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। पोषक तत्वों को घुलनशील बनाने की यह प्रक्रिया मिट्टी से पौधों द्वारा उनके पोषक तत्वों को समुचित रूप से अवशोषित करने और उनके वांछित उपयोग के लिए पौधों को सक्षम बनाती है। ट्राइकोडर्मा का अनुप्रयोग पौधों में गहरी जड़ प्रणाली विकसित करने में सहायक होता है जो पौधों को शुष्कता समेत अनेक परिस्थितियों के प्रति सहनशील बनाने में सहायक सिद्ध हो सकता है।
रोग-प्रतिरोध के जैव रसायनिक एलिसिटर: ट्राइकोडर्मा उपभेद कुछ यौगिकों का उत्पादन करने के लिए भी जाने जाते हैं जो एथिलीन उत्पादन, अति संवेदनशील प्रतिक्रियाओं और पादप कार्यिकी की सम्बन्धित प्रणालियों के माध्यम से जैविक दबावों जैसे पादप रोगजनकों के आक्रमण के विरुद्ध पौधे के प्रतिरक्षा तंत्र को उत्प्रेरित कर सकते हैं।
पराजीनी (ट्रांसजेनिक) पौधे: रोग प्रतिरोध में वर्धन के उद्देश्य के साथ ट्रांसजेनिक पौधों के विकास में हाल के जैव-प्रौद्योगिकी रुझानों में ट्राइकोडर्मा से प्राप्त एंडोकाइटिनेज जीन के प्रवेशन का प्रयास सम्मिलित है। इससे तम्बाकू तथा आलू की फसलों के लिए अल्टरनेरिया की प्रजातियों, अल्टरनेरिया सोलेनाई, और धूसर फफंूद (बोट्राइटिस साइनेरिया) ही नहीं, राइजोक्टोनिया की प्रजातियों समेत मृदोढ़ कवक रोगजनकों से संक्रमण के प्रतिवर्धित प्रतिरोध वाले पौधे विकसित कर लिए गए हैं। इस प्रकार जैव-प्रौद्योगिकी, विशेषकर आनुवंशिक अभियंत्रण विधियों द्वारा रोग-प्रतिरोधिता के विकास तथा इसके वर्धन में ट्राइकोडर्मा के अनुप्रयोग की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है।
जैव उपचार: ट्राइकोडर्मा में मिट्टी में प्रयुक्त/उपस्थित कीटनाशक और शाकनाशी रसायनों के हानिकारक अवशेषों को तोडऩे की क्षमता भी बताई गई है। इस प्रक्रिया को मिट्टी का जैव-सुधार (बायोरेमेडिएशन) कहा जाता है। ट्राइकोडर्मा प्रजातियों में ऑर्गेनो क्लोरीन, ऑर्गेनो फॉस्फेट और कार्बोनेट जैसे कीटनाशकों के समूहों की एक विस्तृत श्रृंखला को तोडक़र उन्हें हानिरहित बनाने की क्षमता होती है। इस प्रकार समस्या ग्रस्त मृदाओं के द्वारा पर्यावरण तथा पारिस्थितिकी तंत्रों को होने वाले दुष्प्रभावों को कम करने में ही सहायता नहीं ंमिलती, बल्कि हानि रहित जैविक विधियों द्वारा उनके निवारण की भी संभावनाएँ बनती हैं।
ट्राइकोडर्मा के चूर्णी तथा तरल संरूप के अनुप्रयोग की विधियाँ
बीजोपचार
विशेष रूप से अनाज, दलहन और तिलहन के लिए बुवाई से पहले 1 किलो बीज के उपचार के लिए 25-50 ग्राम ट्राइकोडर्मा चूर्णी संरूप (पाउडर फॉम्र्यूलेशन), अथवा 5 से 10 मिलीलीटर तरल संरूप (लिक्विड फॉम्र्यूलेशन), प्रति लीटर गोबर के घोल में मिलाएँ।
पौधशाला उपचार: बुवाई से पहले पौधशाला की बीज शैय्या पर 15 ग्राम ट्राइकोडर्मा के चूर्णी संरूप (पाउडर फॉम्र्यूलेशन), अथवा 5 मिलीलीटर तरल संरूप (लिक्विड फॉम्र्यूलेशन), प्रति लीटर पानी की दर से मिलाकर डालें।
कटिंग और पौध मूल (सीडलिंग रूट) डिप: ट्राइकोडर्मा चूर्णी संरूप (पाउडर फॉम्र्यूलेशन) की 25-50 ग्राम मात्रा अथवा 3 से 5 मिली लीटर तरल संरूप (लिक्विड फॉम्र्यूलेशन), प्रति लीटर पानी में मिलाएँ और रोपण से पहले 20-30 मिनट के लिए कटिंग और पौध की जड़ों को इस घोल में डुबोएँ।
मृदा उपचार: एक क्विंटल गोबर की भली प्रकार सड़ी खाद में 5 से 10 किलो ट्राइकोडर्मा चूर्णी संरूप (पाउडर फॉम्र्यूलेशन), अथवा 2 से 3 लीटर तरल संरूप (लिक्विड फॉम्र्यूलेशन), मिलाएँ और इसे 7 दिनों के लिए पॉलीथिन से ढक दें। मिश्रण को खेत में डालने से पहले हर 3-4 दिन के अंतराल में मिलाएँ। इससे मृदा जनित रोगजनकों का समाधान करने में सहायता मिलती है।
पर्णीय अनुप्रयोग: ट्राइकोडर्मा 5-10 ग्राम चूर्णी संरूप (पाउडर फॉम्र्यूलेशन), अथवा 3 से 5 मिली लीटर तरल संरूप (लिक्विड फॉम्र्यूलेशन), प्रति लीटर पानी की दर से मिलाकर ठंडे समय पर (धूप अथवा गर्म वातावरण में नहीं, प्राथमिकता संध्या के समय) रोगग्रस्त पौधों पर छिडक़ाव करें। पर्णीय रोगों, विशेषकर कवक वंशीय रोगजनकों के निवारण के सुरक्षित विकल्प के रूप में इसका प्रयोग अनुशंसित है।
ट्राइकोडर्मा के अनुप्रयोग के सम्बन्ध में ध्यान देने योग्य एक तथ्य यह भी है कि ह्यूमिक एसिड सामग्री के साथ ट्राइकोडर्मा को मिश्रित करके प्रयोग करने पर इस मित्र कवक की दक्षता दो से तीन गुना बढ़ जाती है। अत: किसानबंधु इस मित्र कवक का प्रयोग कर अपनी मूल्यवान फसलों को न केवल हानिकारक पौध रोगों से बचा सकते हैं वरन् बाजार में अच्छे मूल्य की प्राप्ति के लिए विषैले कृषि रसायनों से रहित गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्यप्रद उत्पाद भी प्राप्त कर सकते हैं।
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