राज्य कृषि समाचार (State News)फसल की खेती (Crop Cultivation)

अतिरिक्त आमदनी का सशक्त माध्यम हल्दी की खेती

लेखक: संदीप कुमार शर्मा द्य डॉ. राजेश सिंह, डॉ. संजय सिंह द्य डॉ. अजय कुमार पाण्डेय, कृषि विज्ञान केन्द्र रीवा, जवाहरलाल नेहरू कृषि विश्वविद्यालय, जबलपुर, kumarsandeep912012@gmail.com

22 मई 2025, भोपाल: अतिरिक्त आमदनी का सशक्त माध्यम हल्दी की खेती – हल्दी (कुरकुमा लांग कुल-जिंजीवरेसी) एक उष्णकटिबंधीय मसाला फसल है जिसकी खेती इसके कंद हेतु की जाती है। इसका उपयोग मसाला, रंग-रोगन, दवा व सौन्दर्य प्रसाधन के क्षेत्र में होता है। इसके कंद से पीला रंग का पदार्थ- करक्यूमिन- करक्यूमिन व एक उच्च उडऩशील तैलीय पदार्थ-टर्मेरॉल का उत्पादन होता है। इसके कंद में उच्च मात्रा में ऊर्जा (कार्बोहाइड्रेट के रूप में) व खनिज होते हैं। इसके बिना पाक विद्या अधूरा होता है। इसके उपज पर भारत का एकाधिकार है। हमारे देश का मध्य व दक्षिण का क्षेत्र एवं असम इसके उत्पादन का मुख्य भाग है।

भूमि का चुनाव

हल्दी की खेती सामान्यत: सभी प्रकार की भूमियों में की जा सकती है। उचित जल निकास वाली बलुई दोमट या चिकनी दोमट मिट्टी जिसमें जीवांश की अच्छी मात्रा हो, हल्दी के लिये उपयुक्त होती है। इसकी अच्छी पैदावार के लिये भूमि का पीएच मान 5.0-7.5 के बीच हो। चिकनी मिट्टी, क्षारीय भूमियों तथा पानी ठहरने वाले स्थान पर विकास रुक जाता है। इसकी खेती बगीचों में अंतरवर्तीय फसल के रूप में भी की जा सकती है।

भूमि की तैयारी

हल्दी की अच्छी उपज प्राप्त करने के लिये भूमि की अच्छी तैयारी करने की आवश्यकता होती है क्योंकि यह जमीन के अंदर होती है जिससे जमीन को अच्छी तरह से भुरभुरी बनाया जाना आवश्यक हैं। मिट्टी पलटने वाले हल से गहरी जुताई करके 3-4 बार कल्टीवेटर या हैरो से जुताई करें।

बीज की मात्रा

बीज की मात्रा प्रकन्दों के आकार व बोने की विधि पर निर्भर करता है। शुद्ध फसल बोये जाने के लिये 20-25 क्विंटल जबकि मिश्रित फसल हेतु 12-15 क्विंटल प्रकन्द की प्रति हेक्टेयर आवश्यकता होती है। प्रकन्द 7-8 सेमी लम्बे तथा कम से कम दो आंखों वाले हों। यदि कन्द बड़े हो तो उन्हे काटकर बुवाई की जा सकती है।

बीजोपचार

बुवाई के पूर्व प्रकन्दों को डायथेन एम 45 अथवा बीजामृत या मैंकोजेब नामक किसी एक दवा की 2.5 ग्राम मात्रा को प्रति लीटर पानी में घोलकर बीज को 30-50 मिनट तक उपचारित करके छाया में सुखाकर बुवाई करें। भूमि में यदि दीमक लगने की सम्भावना हो तो उपरोक्त रसायनों में क्लोरोपाईरीफॉस की 2 मिली मात्रा प्रति लीटर पानी की दर से मिलाकर उपचारित करें।

बुवाई का समय तथा विधि

हल्दी की बुवाई 15 अप्रैल से 15 जुलाई तक की जाती है। आमतौर पर किसान हल्दी की बुवाई समतल क्यारियों में करते है। परंन्तु जहां पर पानी रुकने की संभावना हो वहां पर हल्दी की बुवाई 15-20 सेमी. उंची मेड़ों पर भी की जा सकती है। समतल खेत में तैयारी के बाद 5-7 मीटर लम्बी व 2-3 मीटर चौड़ी क्यारियां बनाते हैं। ध्यान रहे क्यारियों में जल निकास की उचित व्यवस्था हो। इन क्यारियों में प्रकन्दों की पंक्ति से पंक्ति 40 सेमी. की दूरी पर 15-20 सेमी के अंतराल पर 5-6 सेमी की गहराई पर बुवाई करते हैं। बुवाई के पश्चात खेत में नमी बनाये रखने तथा खरपतवार के नियंत्रण के लिये सूखी घांसफूस, पत्ती, पुआाल या भूसे को पलवार के रूप में मोटी परत बिछाने से जमाव शीघ्र होता है तथा उपज में 40 प्रतिशत तक बढ़ोत्तरी पाई गई है।

खाद एवं उर्वरक

हल्दी की बेहतर उपज प्राप्त करने के लिये खाद एवं उर्वरक की संतुलित मात्रा में समयानुसार प्रयोग करना आवश्यक होता है। इसके लिये प्रति हेक्टेयर 10-15 टन गोबर या कम्पोस्ट की सड़ी हुई खाद, 100-120 किग्रा नत्रजन, 60-80 किग्रा स्फुर तथा 80-100 किग्रा पोटाश प्रति हेक्टेयर की आवश्यकता होती है। खेत की जुताई से पहले गोबर की खाद को खेत मे अच्छी तरह से मिला देते हैं। इसी प्रकार अंतिम जुताई के समय नत्रजन की आधी मात्रा, पोटाश व स्फुर की पूरी मात्रा को खेत में अच्छी तरह से मिला देना चाहिये। नत्रजन की शेष मात्रा को दो भागों में बांटकर खड़ी फसल में पहली मात्रा बुवाई के 40-60 दिन बाद एवं दूसरी मात्रा 80-100 दिनों बाद देकर हल्की मिट्टी चढ़ायें। हल्दी की खेती हेतु पोटाश का बहुत महत्व है। जो किसान इसका प्रयोग नही करते हैं हल्दी की गुणवत्ता एवं उपज दोनो प्रभावित होती है। सूक्ष्म तत्वों में जिंक सल्फेट व आयरन सल्फेट को 50 किग्रा प्रति हेक्टेयर देने से उपज में वृद्धि पाई गयी है।

सिंचाई

चिकनी दोमट या मटियार भूमि में हल्दी की खेती करने से सिंचाई की आवश्यकता कम पड़ती है किन्तु हल्की भूमियों में सिंचाई की आवश्यकता अधिक होती है। बुवाई के बाद वर्षा न होने तक 4-5 सिंचाई की आवश्यकता होती है। बरसात में यदि आवश्यकता हो तो 20 दिन के अन्तराल पर सिंचाई करते रहे। बीज प्रकन्दों के जमाव तथा प्रकन्दों की बढ़ोत्तरी के समय (अक्टूबर- दिसम्बर) भूमि को नम रखना अत्यन्त आवश्यक है।

खरपतवार नियंत्रण

हल्दी में समान्यत: 3-4 निराई-गुड़ाई की आवश्यकता होती है। यदि पलवार बिछाया गया हो तो काफी हद तक खरपतवार नियंत्रण हो जाता है। बुवाई के 30, 60 व 90 दिनों बाद निराई-गुड़ाई करेें। अक्टूबर-नवम्बर माह में गुड़ाई करके पौधें के आधार पर मिट्टी चढ़ाने से प्रकन्दों का समुचित विकास होता है।

उपज

हल्दी की उपज उगायी जाने वाली किस्मों पर निर्भर करती है। यदि हल्दी की उन्नत प्रजातियों की खेती वैज्ञानिक ढ़ंग से की जाय तो इससे 250-300 क्विंटल प्रति हेक्टेयर पर प्रकन्द प्राप्त किये जा सकते हैं। इन प्रकन्दों से 15-20 प्रतिशत तक की सूखी हल्दी प्राप्त की जा सकती है। असिंचित क्षेत्रों तथा बागों में बोई गयी फसल से 150-200 क्विंटल तक हल्दी की उपज प्राप्त हो सकती है।

भण्डारण

बीज के लिये हल्दी के भण्डारण हेतु खुदाई के बाद मूल प्रकन्दों तथा अच्छे प्रकन्दों को छाँटकर अलग कर लेते हैं। कन्दों को अंधेरे में रखते हैं। कीटों व कन्दों के गलन से रोकने के लिये कन्दों को 0.2 प्रतिशत बाविस्टीन तथा 0.2 प्रतिशत क्लोरोपाईरीफॉस के घोल में 30 मिनट तक डुबाने के बाद छायों में अच्छी तरह सुखाने के बाद भण्डारण करते हैं। भण्डारण के लिये मिट्टी में आवश्यकता अनुसार गड्ढा बनाकर 3-5 सेमी भूसे की परत बिछाकर गाँठों को रखकर उपर से बाँस की पट्टी या घास फूस रखकर मिट्टी से ढंक देते हैं। गड्ढे के चारों तरफ 15-20 सेमी. ऊंची मेड़ बना देते हैं।

जलवायु परिवर्तन के कारण वर्षा आधारित खेती में अनिश्चितता बढ़ रही है, क्योंकि भारत में 65 प्रतिशत कपास क्षेत्र वर्षा पर निर्भर है। ड्रिप सिंचाई और जल संरक्षण तकनीकें इस समस्या का समाधान हैं। मिट्टी की उर्वरता बनाए रखने के लिए जैविक खाद और फसल चक्रीकरण का उपयोग जरूरी है। बेटर कॉटन पहल के अनुसार, जलवायु परिवर्तन और मिट्टी स्वास्थ्य की समस्याओं से निपटने के लिए किसानों को प्रकृति के संरक्षण और पुनर्जनन के लिए प्रोत्साहित किया जा रहा है।

कटाई और उपज

कपास की कटाई तब की जाती है जब फल पूरी तरह विकसित हो जाएं, आमतौर पर सुबह के समय, ताकि ओस से बचा जा सके। फलों को हर 7-10 दिन में चुनें, और शुरुआती और देर की कटाई को अलग रखें। सिंचित क्षेत्रों में उपज 2-3 टन/हेक्टेयर और हाइब्रिड में 3.5-4 टन/हेक्टेयर तक हो सकती है। यांत्रिक कटाई, जो अब कुछ क्षेत्रों में अपनाई जा रही है, समय और श्रम बचाती है। फार्मोनॉट का ्रढ्ढ उपज अनुमान कटाई के समय को अनुकूलित करता है, जिससे नुकसान कम होता है।

कपास की खेती भारत के लिए एक लाभदायक और महत्वपूर्ण उद्यम है, और 2025 में अपनाई जा रही आधुनिक तकनीकें इसे और अधिक आकर्षक बना रही हैं। सैटेलाइट-आधारित निगरानी, ्रढ्ढ-संचालित पूर्वानुमान, ड्रिप सिंचाई, और टिकाऊ प्रथाओं के माध्यम से, किसान अपनी फसलों की उपज और गुणवत्ता में सुधार कर सकते हैं। मिशन फॉर कॉटन प्रोडक्टिविटी जैसी योजनाएं और बेटर कॉटन जैसे संगठन किसानों को नई तकनीकों और टिकाऊ प्रथाओं को अपनाने के लिए प्रोत्साहित कर रहे हैं। यह वह समय है जब कपास की खेती नई ऊंचाइयों पर पहुंच रही है, और यह सब आधुनिक तकनीकों और किसानों की मेहनत का जादू है।

उन्नतशील प्रजातियाँ

कम समय में तैयार होने वाली: ‘कस्तुरी’ वर्ग की किस्में – रसोई में उपयोगी, 7 महीने में फसल तैयार, उपज कम। जैसे-कस्तुरी पसुंतु।
मध्यम समय में तैयार होने वाली: केसरी वर्ग की किस्में – 8 महीने में तैयार, अच्छी उपज, अच्छे गुणों वाले कंद। जैसे-केसरी, अम्रुथापानी, कोठापेटा।
लंबी अवधि वाली किस्में: 9 महीने में तैयार, सबसे अधिक उपज, गुणों में सर्वेश्रेष्ठ। जैसे दुग्गीराला, तेकुरपेट, मिदकुर, अरमुर।

नवीनतम व अधिक उपज देने वाली किस्में-

सुगंधा, रोमा, सुरोमा, सी.ओ.-1, कृष्णा, राजेन्द्र सोनिया, सुगुना, सुदर्शन,सुवर्णा, प्रभा, प्रतिभा, मीठापुर, राजेन्द्र सोनिया, सुगंधम, सुदर्शना, रशिम व मेघा हल्दी-1

प्रकन्दों की खुदाई

जब पौधें की पत्तियां पीली होकर सूखने लगती है तब फसल खुदाई योग्य हो जाती है। हल्दी की फसल किस्मों के अनुसार 210-280 दिन में पक कर खुदाई योग्य हो जाती है। पूर्ण रूप से परिपक्व प्रकन्द पुंजों की खुदाई इस प्रकार करें कि प्रकंद कटने व छिलने न पाये। प्रकंद पुंजों से पत्तियों, जड़ों आदि को काटकर अलग करके प्रकन्दों को अच्छी तरह साफ करके रखें।

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