फसल की खेती (Crop Cultivation)

रेज्ड बेड पद्धति से चने की उत्पादन तकनीकी

  • डॉ. एस.एस. धाकड़
    वैज्ञानिक (कृषि अभियांत्रिकी)
    कृषि विज्ञान केन्द्र, शाजापुर
  • डॉ. स्वप्निल दुबे
    वरिष्ठ वैज्ञानिक
  • डॉ. प्रदीप कुमार द्विवेदी
    प्रमुख वैज्ञानिक (पौध संरक्षण)
    कृषि विज्ञान केन्द्र, रायसेन

 

8 नवम्बर 2022, रेज्ड बेड पद्धति से चने की उत्पादन तकनीकी – भारतीय दलहन अनुसंधान संस्थान, कानपुर के आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2020-21 में भारत में चने का क्षेत्रफल 9.99 मिलियन हेक्टेयर व उत्पादकता 1192 किग्रा प्रति हेक्टेयर थी, जबकि मध्यप्रदेश में चने का क्षेत्रफल 2.16 मिलियन हेक्टेयर व उत्पादकता 1488 किग्रा प्रति हेक्टेयर है। दलहनी फसलों की कम उत्पादकता का मुख्य कारण फली छेदक कीट, फल मक्खी, उकटा रोग, खरपतवार प्रबंधन व उन्नत व वैज्ञानिक तकनीकी ज्ञान का अभाव है।

कृषकों के द्वारा उन्नत उत्पादन तकनीक

रेज्ड बेड पद्धति, उकठा निरोधी किस्में व एकीकृत कीट व रोग प्रबंधन तकनीक को अपनाकर चने का उत्पादन बढ़ाया जा सकता है। चना की बुआई के लिए रेज्ड बेड प्लान्टर का उपयोग किया जाता है। इसमें मेढ़ की ऊंचाई लगभग 15-20 से.मी. तथा मेढ़ से मेढ़ की दूरी 50-60 से.मी. रखी जाती है। एक मेढ़ के ऊपर फसल की दो कतारें 20-25 से.मी. की दूरी पर रखी जाती है। इस ऊची मेढ़ पर फसल की कतारें लगाने से पौधे की जड़ों में हवा का आवागमन अच्छी तरह से होता हैं जिसमें चना की जड़ों में बनने वाली गठानें अधिक से अधिक एवं बड़े आकार की बनती है। इस विधि में ऊँची मेढ़ के साथ-साथ एक गहरी नाली भी बनती है। वर्षा के दिनों में अधिक वर्षा की स्थिति में वर्षा का जल इन नालियों के माध्यम से खेत के बाहर चला जाता हैं जिसमें चना की फसल मेढ़ पर होने के कारण पानी के सम्पर्क में नहीं आती है फसल खराब होने से बच जाती है तथा कम वर्षा की स्थिति में दोनों तरफ से नालियों को बंद कर दिया जाता है। जिससे वर्षा का जल इन नालियों में रुक जाता है और पौधों के जड़ों में नमी बनाये रखता है।

रेज्ड बेड पद्धति के प्रमुख लाभ
  • सिंचाई के पानी का व्यवस्थापन अच्छी तरह से होता है। 30 प्रतिशत पानी की बचत होती है।
  • समतल क्यारी विधि की अपेक्षा 20 प्रतिशत अधिक उपज प्राप्त होती है।
  • वर्षा जल के अच्छे निकास के कारण नम भूमि में भी अच्छा उत्पादन।
  • उर्वरक के सही व्यवस्थापन के कारण उर्वरक उपयोग क्षमता में बढ़ोतरी ।
  • बीज दर कम, जिसमें पौधों की संख्या नियंत्रित की जा सकती है।
  •  मेढ़ के बीच के खरपतवारों का यंत्रों के माध्यम से नियंत्रण।
  • मेढ़ से मेढ़ की दूरी पर्याप्त होने से पौधों की कैनोपी को सूर्य की किरणें अधिक से अधिक मिलती हैं जिससे पौधें की शक्ति बढ़ती है तथा आस-पास की मिट्टी भी सूखी रहती है जिससे पौधों के झुकने की समस्या नहीं रहती है।
  • समतल बुवाई विधि की अपेक्षा इसमें अंकुरण क्षमता अधिक होती है। क्योंकि समतल विधि में बीज को जमीन के अंदर डाला जाता है। जिससे पौधे को जमीन से बाहर निकलने में अधिक ऊर्जा की जरुरत होती है।
प्रमुख सावधानियां
  • खेत की अच्छे से जुताई तथा समतलीकरण की आवश्यकता होती है।
  • बुवाई के समय यह सुनिश्चित करें कि बीज नमी में ही डल रहा है तथा पर्याप्त गहराई पर डल रहा है।
  • बीज को बोने से पहले अंकुरण क्षमता की जांच अवश्य करें तथा उपचार कर ही बीज बोयें।
  • अगर बुआई के बाद अंकुरण कम लगे तो नालियों के माध्यम से 20 दिन पर एक हल्की सिंचाई कर लें।
भूमि की तैयारी

चने की खेती के लिये दोमट, मध्यम भारी भूमि जहाँ पानी का निकास अच्छा हो, उपयुक्त है। खेत की तैयारी के लिए पाटा लगाकर खेत को भुरभुरा एवं समतल बना लें।

खेत में पूर्व फसल के अवशेष नहीं हों एवं अंतिम जुताई के समय दीमक से बचाव हेतु क्लोरोपाइरीफॉस चूर्ण 1.5 प्रतिशत 20-25 किलो प्रति हेक्टेयर की दर से उपयोग करें।

बीज दर

80-100 किलो बीज प्रति हेक्टेयर। छोटे दाने वाली प्रजाति75 से 80 कि.ग्रा./ हेक्टेयर बीज एवं बड़े दाने वाली एवं काबुली प्रजातियों के लिए 100 कि.ग्रा./ हेक्टेयर।

बीजोपचार

विभिन्न प्रकार के फफूंद जनित रोगों (जड़ सडऩ, कॉलर रॉट, उकटा) आदि से बचाव हेतु चने के बीज को बीजोपचार कर बुवाई करें। चने के बीज को थायरम 3 ग्राम प्रति किलो बीज या कार्बेन्डाजिम 3 ग्राम प्रति किलो बीज या ट्राइकोडर्मा विरिडि 5 ग्राम प्रति किलो बीज या थायरम 2 ग्राम, कार्बेन्डाजिम 1 ग्राम प्रति किलो बीज या इनोसिगिनिया 1.5 ग्राम प्रति किलो बीज की दर से उपचारित करें तत्पश्चात राइजोबियम 5 ग्राम, पीएसबी 5 ग्राम प्रति किलो बीज दर के हिसाब कर बुवाई करें।

खाद व उर्वरक

सामान्यत: चने में 20 किग्रा नत्रजन, 60 किग्रा स्फुर व पोटाश की मात्रा 20 किग्रा प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग करें। चने की फसल में अनुशंसित मात्रा में खादों का प्रयोग करने हेतु इसकी पूर्ति सिंगल सुपर फॉस्फेट 3 क्विंटल, यूरिया 40 किग्रा या डी.ए.पी. 100 किग्रा $ जिप्सम (11 प्रतिशत) किग्रा प्रति हेक्टेयर की दर से देकर की जा सकती है। गोबर की अच्छी सड़ी हुई खाद 5-8 टन प्रति हेक्टेयर की दर से डालें। जिससे की भूमि की उर्वराशक्ति अच्छी हो सके।

बुवाई का समय व विधि

अधिक उत्पादन के लिए समय पर बुवाई आवश्यक है। 15 अक्टूबर से 15 नवम्बर तक का समय सबसे उपयुक्त। परन्तु सिंचित अवस्था में नवम्बर तक बुवाई की जा सकती है।

दूरी

कतार से कतार 30 से.मी., पौध से पौध की दूरी 10 से.मी. एवं गहराई 6-8 से.मी. पर करें। पौध संख्या 3-3.5 लाख पौधे प्रति हेक्टेयर रखें ।

सिंचाई

चने की फसल में प्रथम सिंचाई फूल आने से पूर्व लगभग 40-45 दिन व दूसरी सिंचाई घेंटी में दाना भरते समय 75-80 दिन की फसल पर करेें। स्प्रिंकलर का प्रयोग करने से जल का समुचित उपयोग होता है एवं पानी की भी बचत होती है।

उकटा रोग

उकटा रोग चने की फसल का प्रमुख रोग है। इसके अलावा भी चने की फसल में स्तम्भ मूल विगलन व शुष्क मूल विगलन रोग आता है। चने की फसल में उकटा रोग मुख्य फूल आने से पूर्व या घेंटी में फूल व पलपट पड़ते समय या फसल पकने से 10-15 दिन पूर्व विभिन्न अवस्थाओं में आता है।

नियंत्रण

उकटा रोग के प्रकोप को निम्न उपायों द्वारा कम कर सकते हैं।

  • ग्रीष्मकालीन हकाई-जुताई अवश्य करें।
  • चने की बुवाई समय पर (15 अक्टूबर से 15 नवम्बर) के मध्य करें।
  • उकटा निरोधी किस्में जैसे (जेजी.11, जेजी. 16, जेजी.130, जेजी. 412, जेजी. 322, 74, जेएकेआई. 9218, जेजी.36, आरजीबी. 201, आरजीबी. 202, आरजीबी. 203 ) आदि किस्मों का चयन करें।
  • चने की बुवाई के पूर्व खेत में 25-30 कि.ग्रा. प्रति एकड़ की दर से नीम की दरी हुई निंबोली या नीम की खली का प्रयोग 4-5 वर्ष तक करें।
  • चने के बीज को जैविक फफूंदनाशक दवा ट्राइकोडर्मा विरिडि 5 ग्राम प्रति किलो बीज से उपचारित कर बुवाई करें।
  • चने के साथ अंतरवर्तीय फसल पद्धति में 4:2 के अनुपात में अलसी लगायें।

चने की इल्ली- यह कीट भूरे रंग का होता है अगले पंख पर सेम के बीज के समान एक एक काला धब्बा रहता है व पिछली परत पर बाहरी हिस्से में काली पट्टी रहती है।

नियंत्रण-

  • चने के खेत में ‘ञ्ज’ आकार की खूंटी या बांस 25-30 प्रति हेक्टेयर की दर से परभक्षी पक्षियों जैसे कौआ, मैना को आकर्षित करने लगायें।
  • चने के खेत में फैरोमेन ट्रेप (मौन प्रपंच) 12-15 प्रति हेक्टेयर की दर से लगायें।
  • नर वयस्क पंखियों पर निगरानी हेतु खेत में प्रकाश प्रपंच लगायें।
  • चने की इल्ली के जैविक नियंत्रण हेतु एन.पी.वी. (न्यूक्लियर पोलीहाइड्रोसिस वायरस) 250 एल.ई. प्रति हेक्टेयर या बी.टी. (बेसिलस थूरेन्जिसिस) या ब्यूवेरिया बेसियाना फफंूद को 1 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से 500-600 लीटर पानी में घोल बनाकर छिडक़ाव करें।
  • चने की इल्ली के रसायनिक नियंत्रण हेतु शुरूआती अवस्था में प्रथम छिडक़ाव क्लोरोपाइरीफॉस 20 ई.सी. 1 लीटर/हेक्टेयर या क्विनालफॉस 25 ई.सी. 1.5 लीटर/ हेक्टेयर की दर से छिडक़ाव करें।
  • चने की इल्ली की संख्या आर्थिक क्षति स्तर से अधिक होने पर इमामेक्टिन बैंजोएट 5 एस.जी. 200 ग्राम/हेक्टेयर या प्रोफेनोफॉस $ साइपरमेथ्रिन 44 ई.सी. 1 लीटर/ हेक्टेयर या क्लोरेन्ट्रानीलीप्रोल 18.5 एस.सी. 150 मिली/हेक्टेयर की दर से 500-600 लीटर पानी में घोल बनाकर छिडक़ाव करें।
  • कटुआ इल्ली की रोकथाम के लिये फोरेट 10जी 15 कि.ग्रा. या कार्बोफ्यूरॉन 4जी दानेदार दवा की 25 कि.ग्रा. मात्रा प्रति हेक्टेयर की दर से छिडक़ाव करें।
रेज्ड बेड पद्धति के प्रमुख बिंदु
  • रबी की फसल कटने के बाद गर्मी में गहरी जुताई एक बार अवश्य करें।
  • दो-तीन बार बक्खर चलाकर मिट्टी को अच्छी तरह से भुरभुरा लें।
  • अगर गहरी जुताई नहीं कर सके तो कल्टीवेटर से जुताई करें।
  • प्रत्येक तीन-बार साल बाद खेत को समतल अवश्य करें।
  • गहरी काली मिट्टी में रेज्ड बेड बनाने के लिए 45 पी.टी.ओ. हार्स पावर ट्रैक्टर का उपयोग करें।
  • मशीन की गहराई को 15-20 से.मी. समायोजन किया जा सकता है।
  • एक ही मशीन से खरीफ एवं रबी फसलों की बुवाई की जा सकती है।
  • मेढ़ एवं नाली की चौड़ाई भी इस मशीन में कम-ज्यादा करने की व्यवस्था रहती हैं।
  • इस मशीन में एक बार में तीन नाली तथा दो मेढ़ पर चार कतारें निकलती हंै।
  • जिस मिट्टी की जल धारण क्षमता कम होती है, नाली के माध्यम से वर्षा का बहता हुआ पानी खेत से बाहर निकल जाता है।
  • कम वर्षा की स्थिति में दोनों तरफ से इन नालियों को बंद कर देते हंै जिससे नमी बनी रहती है।
  • नालियों में वर्षा जल मेढ़ की तरफ क्षैतिज दिशा में जाता है तथा मेढ़ के अंदर कैपलरी छिद्र के माध्यम से ऊपर की तरफ आकर पौधों की जड़ों को मिलता है।
  • इस पद्धति के माध्यम से गेहंू, सोयाबीन, चना, मक्का इत्यादि फसलों की सिंचाई की जाती है।
  • सिंचाई एवं उर्वरक के उपयोग के लिए टपक सिंचाई पद्धति का भी उपयोग कर सकते हैं।
    इस मशीन में मेढ़ को आकार देने के लिए एक बेड शेवर लगाया गया है।

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