आलू में रोग नियंत्रण के उपाय
आलू का अगेती अंगमारी रोग
यह रोग आल्टनेरिया सोलेनाइ नामक फफूंद से उत्पन्न होता है। हर वर्ष लगभग सभी खेतों में थोड़े से अधिक मात्रा में पाया जाता है। अधिक प्रकोप हो जाने पर फसल की उपज में 50 – 60 प्रतिशत कमी हो जाती है। यह रोग इसी कुल के अन्य सब्जियों जैसे टमाटर, मिर्च व भटे को भी संक्रमित करता है।
लक्षण:- रोग के लक्षण बुआई के 3-4 सप्ताह बाद ही प्रगट हो जाते है इसलिये इस रोग को अगेती अंगमारी रोग कहते हैं। इस रोग के आक्रमण के दो तीन सप्ताह बाद पछेती अंगमारी रोग प्रकोप करता है। रोग का आरम्भ नीचे की पत्तियों पर हल्के भूरे रंग के छोटे – छोटे पूरी तरह बिखरे हुए धब्बों से होता है। गौर से दिखने पर इन धब्बो पर गहरे नीली हरी रंग की मखमली रचना दिखाई देती है। धब्बों को सूर्य की रोशनी की ओर देखने पर उनमें संकेन्द्री कटक स्पष्ट दिखाई देते है जिसकी उपमा मेढक की आंख से की जाती है। उस अवस्था में पत्तियां मुरझाकर गिर जाती है। तना व शाखायें भी रोगग्रस्त हो जाती है, एवं उन पर भी धब्बे बनते है। फलों पर भी संकेन्द्री कटक युक्त धब्बे बनते है जिससे फल सड़ जाते है।
रोग नियंत्रण के उपाय:-
(क) खड़ी फसल में रोग नियंत्रण के उपाय:- रोग की आंरभिक अवस्था में फफूंदीनाशक दवा का छिड़कॉव करना चाहिए। ताम्रयुक्त दवा जैसे फाइटोलान, ब्लाइटॉक्स- 50 ब्लूकॉपर अथवा फंजीमार दवा का छिड़काव 0.3 प्रतिशत की दर से 500 लीटर दवा प्रति हेक्टेयर की दर से 12 से 15 दिन के अंतराल से 3 बार छिड़काव करना चाहिए। 1 डाइथेन एम-Ó45 (0.2 प्रतिशत )
(ख) बुआई पूर्व रोग नियंत्रण के उपाय
- बुवाई पूर्व खेत की सफाई कर सभी पौधे अवशेषों को एकत्र करके जला देना चाहिए।
- आलू कंदों को एगेलाल के 0.1 प्रतिशत घोल में 2 मिनट तक डुबोकर उपचारित करके बोना चाहिए। पहाड़ी क्षेत्रों के लिये कुफरी नवीन एवं मैदानी क्षेत्रों के लिये कुफरी जीवन एवं कुफरी सिदंूरी। जातियों में इसका प्रकोप कम पाया गया है।
पिछेती अंगमारी रोग
यह रोग फाइटोप्थोरा इनफेस्टैन्स नामक फफूंद से उत्पन्न होता है। यह आलू का सबसे विनाशकारी रोग है जिसमें पूरी की पूरी फसल को नष्ट करने की क्षमता है। रोग मौसम की अनुकुलता मिलने पर उग्र रूप धारण कर लेता है और फसल को भारी नुकसान पहुंचाता है।
लक्षण:- रोग के लक्षण फसल का लगभग 8 -9 सप्ताह का हो जाने पर ही दिखाई देते हैं। इस रोग के आक्रमण के समय फसल पुष्पन की स्थिति में होता है। रोग के लक्षण सबसे पहले नीचे के पत्तियों पर हल्के रंग के धब्बे सरीखे दिखाई देते हैं जो जल्दी ही भूरे काले रंग में बदल जाते है इन धब्बों का आकार सीमित न होने के कारण अनियमित आकार के ही बनते है। ये धब्बे अनकूल वातावरण मिलने पर बड़ी तीव्रता से बढ़ते है और पूरी पत्तियों पर फैल जाते है और वे नष्ट हो जाते हंै। रोग की विशेष पहचान पत्तियों के किनारों से चोटी के भाग का भूरा होकर झुलस जाना है। इन भूरे रंग के धब्बों में एक बैंगनी सी चमक होती है। प्रभावित भाग के उत्तक मर जाते हैै, और पत्तियां मुड़कर सिकुड़ जाती है। आद्र्र मौसम में भूरे धब्बों से पत्तियां नष्ट होती है। रोगी पत्तियों के मिट्टी के पास वाले संक्रमण पहले होता है संक्रमित कंदों में दो प्रकार के विलंगन देखे जा सकते हैं :-
(1) गीला विगलन (2) शुष्क विगलन देखे जा सकते हैं अधिक नमी की स्थिति में गीला विगलन तथा कम नमी से शुष्क विगलन उत्पन्न होता है। कंद भंडारण में सड़ जाते हैं। विगलन हुए कंदों से बदबू आती है।
रोग नियंत्रण के उपाय
(क) खड़ी फसल में रोग के नियंत्रण के उपाय:- रोग की उग्रता को ध्यान में रखते हुए खड़ी फसल में फफूंदनाशक दवा की छिड़काव रोग प्रकोप के पूर्व अथवा आरंभिक अवस्था में किया जाना चाहिए। अंगेती अंगमारी रोग के नियंत्रण के लिए फफूंदनाशक दवा का उपयोग फसल के 40 दिन का हो जाने पर सुरक्षा की दृष्टि से किया जाना चाहिए। यह उपचार अंगेती अंगमारी के साथ-साथ पिछेती अंगमारी रोग नियंत्रण के लिये भी बहुत सहायक होता है। रोग के फैलने की अनुकूल स्थिति दिखाई दे रही हो तो 7 -8 दिन के अंतराल में दवा का छिड़काव करें, वरना 12 – 15 दिन के अंतराल में कम से कम 3 बार दवा डालना चाहिए। रोगजनक की उग्रता क्षमता ऐसी है कि एक बार रोग संक्रमण बहुत सारे पौधों पर हो जाने के बाद रोग की रोकथाम पूरी तरह से नहीं की जा सकतीं है। इसलिये रोग प्रकोप से संभावित क्षेत्रों में रोग नियंत्रण के दवा उपयोग का एक कार्यक्रम बीज बुआई के समय ही बना लेना चाहिये। जिससे रोग से हानि का बचाव समय रहते ही किया जा सके। रोग नियंत्रण के उपयुक्त फफूंदनाशक दवाओं में (1) बोर्डो मिश्रण का 4:4:50 (2) कॉपर -आक्सीक्लोराइड- जैसे फाइटोलान ब्लाइटाक्स 50 फंजीमार, ब्लूकॉपर आदि 0.3 प्रतिशत की दर से (3) डाइथेन एम 45 (0.2 प्रतिशत),(4) जिनेव या डाइथेन जेड 78 (0.2 प्रतिशत),(5) डाइफोलेटन 0.15 प्रतिशत में से किसी एक का छिड़काव करें।
कंदो को रोगजनक द्वारा संक्रमित होने से बचाने के लिए खेत में 10 से 15 से.मी. ऊंचाई की मिट्टी चढ़ायें।
(ख) बुआई पूर्व रोग नियंत्रण के उपाय:-
- बुुवाई पूर्व शीत गृहों से बाहर निकाले गये रोगी कंदों को जला देना चाहिये या 0.2 प्रतिषत मरक्यूरिक क्लोराइड घोल में डुबो कर उपचारित करना।
- पिछेती अंगमारी रोग के लिये प्रतिरोधी जातियां कुफरी अंलकार, कुफरी जीवन, कुफरी खासी गोरी एवं कुफरी मोती का इस्तेमाल करना चाहिए।
भूरा विगलन रोग एवं जीवाणु म्लानि
यह रोग स्यूडोमोनास सोलोनसीएरम नामक जीवाणु द्वारा उत्पन्न होता है। रोग आलू के कंदों को विगलन कर पौधे को मुरझाकर सुखा देने में सक्षम है। प्रभावित पौधे उनके जीवनकाल में किसी भी समय संक्रमित हो सकते है। आलू पर इस रोग का संक्रमण उन खेतों पर व्यापक होता है जहां पर मिट्टी में सूत्रकृमि होते हंै रोग से 10 से 50 प्रतिशत तक की हानि आंकी गई है। रोगजनक जीवाणु आलू के के अतिरिक्त भटा, टमाटर, केला, तम्बाकु, अंडी तथा मूंगफली फसलों पर भी प्रकोप कर सकता है।
लक्षण:- रोग ग्रसित पोैधे सामान्य पौधों की अपेक्षा बौने कंास्य रंग के हो जाते है जो कुछ ही समय में हरे के हरे मुरझाकर मर जाते हैं। प्रभावित पौधों की जड़ों को काटकर कांच के गिलास में साफ पानी में रखने से जीवाणु रिसाव स्पष्ट देखा जा सकता है। इन पौधें में यदि कंद बन गए हो तो उनको काटने पर भूरा घेरा देखा जा सकता है। इन कंदों की आंख काली पड़ जाती है। रोग प्रकोप की पहचान पौधो के एकाएक मुरझा जाने से की जा सकती है।
रोग नियंत्रण के उपाय
(क) खड़ी फसल में रोग के नियंत्रण के उपाय :-
- रोग प्रकोप के दिखाई देने पर नाइट्रोजन उर्वरक अमोनिया सल्फेट के रूप में देना चाहिए। जो रोगजनक के बढ़वार पर प्रतिकूल प्रभाव उत्पन्न करता है तथा खड़ी फसल पर फास्फोरस युक्त खाद नहीें देना चाहिए।
- प्रभावित पौधों को जड़ सहित उखाड़कर नष्ट कर देना चाहिए। जिससे रोगजनक जीवाणु सिचांई के पानी द्वारा खेत में ना फैल सकें।
- रोग प्रकोप दिखाई देने पर फसल में गुड़ाई बिल्कुल बंद कर देवें। क्योंकि गुड़ाई से पौधो के जड़ों में घाव बन जाता है तथा रोगजनक बेेक्टीरिया का प्रकोप षीघ्रता से होने लगता है।
(ख) बुआई पूर्व रोग नियंत्रण के उपाय:-
- रोगजनक जीवाणु मिट्टी में लंबे समय तक पौध अवशेषों में जीवित रह सकता है। जिसे सूर्य ताप से नष्ट किया जा सकता है। गर्मी में खेत की सिचांई कर गहरी जुताई कर अप्रेल व मई माह में धूप से रोगजनक मिट्टी से पूरी तरह से नष्ट हो जाता है।
- आलू बीज स्वस्थ फसल से एकत्र करना चाहिए अथवा प्रमाणित बीज ही उपयोग करना चाहिए।
- आलू के कंदों को बीज के लिए 3-4 भागों में काट कर प्रयोग किया जाता है। हर आलू काटने के बाद चाकू या छुरी को निर्जीवीकरण 0.1 प्रतिशत मरैक्यूरिक क्लोराइड घोल में एक मिनट तक डुबो कर करना चाहिए। जिससे रोग जनक का छुरी के माध्यम से प्रसार की संभावना समाप्त हो जाती है।