फसल की खेती (Crop Cultivation)

गेहूं के प्रमुख रोग : पहचान एवं निदान

गेहूं के प्रमुख रोग : पहचान एवं निदान – गेहूं : इस देश की प्रमुख फसलों में से एक है भारत के कुल खाद्यान्न उत्पादन का लगभग 32 प्रतिशत भाग गेहूं का है। गेहूं के कुल उत्पादन का लगभग 90 प्रतिशत से अधिक भाग देश के पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड के मैदानी भाग राजस्थान व मध्य प्रदेश से प्राप्त होता है इसका अनुमानित क्षेत्रफल 220.19 मिलियन हेक्टेयर है। गेहूं की प्रति हेक्टेयर हो गयी है। बढ़ती हुई जनसंख्या के साथ ही गेहूं की पैदावार को बढ़ाने की भी आवश्यकता है। इस फसल को सबसे अधिक प्रभावित करने वाले मुख्य रोग भूरा, पीला, काला रतुआ, छब्वा, चूर्णिल आसिता करनाल बंट, फ्यूजेरियम हेड ब्लाइट इत्यादि है। गेहूं का रतुआ एक फफूंदी के द्वारा होने वाला रोग है। यह रोगजनक कवक जीन्स पक्सीनिया वर्ग में आता है। रतुआ भारत के विभिन्न भागों में रस्ट, किटट, रोली, त्रांव इत्यादि नामों से जाना जाता है।

भूरा रतुआ : यह गेहूं की पत्ती रतुआ के नाम से भी जाना जाता है। यह मुख्यत: पत्तियों पर विकसित होता है। जहां पर यह छोटे-छोटे भूरे रंग की फुंसी के समान गोल, बिखरे हुए पश्च्यूल का निर्माण करता है। यह रतुआ 22 डिग्री से. तापमान के आस-पास अधिक पनपता है। तथा इसके फैलाव के लिए उपयुक्त तापमान 20-25 डिग्री से. होता है। रोग के लक्षण साधरणतया पौधे की पत्तियों पर ही दिखायी देते हैं। भूरा रतुआ की पत्तियों के ऊपर वृत्ताकार नारंगी से भूरे रंग की प्यूसफोटिका बनती है जो आरम्भ में पौधे की झिल्लीमय बाह्य त्वचा से ढकी रहती है और बाद में फट जाती है। इस तरह से फफूंद के नारंगी से भूरे रंग के यूरिडो बीजाणु हवा में बिखर जाते हैं। हर 10-15 दिन की अवधि में यूरियो बीजाणु एक बार सहिष्णु पौधे को संक्रमित करते हैं। तदोपरांत कुछ ही दिनों में भूरा रतुआ उग्र रूप लेता है। इस रोग के कारण गेहूं की फसल पकने से पहले ही सूखने लग जाती है। पौधे में सही तरीके से प्रकाश संश्लेषण न होने से पौधे सामान्य और स्वस्थ होने के बजाय सिकुड़े हुए और छोटे होते हैं। गेहूं के दाने से बारीक एवं संकुचित या कभी-कभी बिल्कुल ही नहीं बनते हैं।

काला रतुआ : पक्सीनिया ग्रेमिनिस ट्रिटिसाई द्वारा होने वाला रतुआ अधिकतर गर्म क्षेत्रों में पाया जाता है। इसमें गेहूं की पत्ती के अलावा तने पर भी रतुआ रोग के लक्षण दिखाई देते हैं। इसलिए इस ेतना रतुआ भी कहते हैं। इस रोग के फैलाव के लिए उपयुक्त तापमान 28-35 डिग्री से. है। यह मुख्यत: दक्षिणी भारत तथा मध्य भारत में पाया जाता है। पिछले कुछ वर्षों के दौरान इस रोग को उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश तथा जम्मू एवं कश्मीर से अधिक ऊँचाई वाले क्षेत्रों में भी देखा गया है।

पीला रतुआ: पीला रतुआ मुख्यत: उत्तरी भारत में गेहूं की फसल को संक्रमित करके भारी नुकसान पहुंचाता है। उत्तरी भारत में गेहूं की बुआई 1-15 नवम्बर के मध्य में होती है। फसल की अवधि का तापमान 10-20 डिग्री से. रहता है जो इस रतुए के पनपने के लिए अनुकूल है। यह प्राय: उत्तरी भारत तथा दक्षिणी भारत की नीलगिरी पर्वत श्रृंखलाओं में उगाई जाने वाली गेहूं की फसल में देखा जाता है। यूरेडिया प्यूसफाटिकायें पत्तियों की शिराओं के मध्य रेखीय पंक्ति में विकसित होती है। यह फ्यूसफोटिकायें पत्तियों को ढक लेती हैं जिसके कारण पत्तियों का रंग पीला दिखने लगता है। इस अवस्था में पौधों में उचित प्रकाश संश्लेषण बाधित होने लगता है और पौधे अपना भोजन सामान्य रूप से नहंीं बना पाते हैं। जिसके कारण दाने हल्के तथा सिकुड़े आकार के ही रह जाते हैं। कई बार खेत में पानी का अधिक समय तक ठहरना तथा नाईट्रोजन की कमी या कीट क ेप्रकोप के कारण भी पत्तियां पीली पड़ जाती हैं, हालांकि पत्ती पर पीले रंग का चूर्ण और पीले रंग की प्यूसफोटिकायें नहीं होती है। पीले रतुआ को हाथ से छूने पर इससे हाथ पीला हो जाता है।

करनाल बंट : फफंूद से होने वाला यह एक बीज जनित रोग है सामान्यत: खड़ी फसल से रोग ग्रस्त पौधों को पहचानना संभव नहीं है। यह रोग दाना बनने के बाद ही दिखाई देता है। रोग ग्रस्त दाने आंशिक या पूर्णरूप से काले चूर्ण में परिवर्तित हो जाते हैं। एक पौधे की सभी बालियां तथा एक बाली के सभी दाने रोगग्रस्त नहीं होते हैं। एक बाली में कुछ दाने ही रोगग्रस्त होते हैं। रोगग्रस्त दानों से सड़ी मछली सी गंध आती है।

कंडुआ रोग : इस रोग में बालियों में दाने के स्थान पर फफूंद का काला धूल भर जाता है और कुछ समय बाद पूरी बालियां समाप्त हो जाती है। फफूंद के बीजाणु हवा में झडऩे से स्वस्थ बाली भी संक्रमित हो जाती है। यह अन्त बीज जनित रोग है।

पत्र अंगमारी (झुलसा रोग): प्रारम्भ में रोग के लक्षण, नीचे की पंत्तियों पर गोलाकार या अंडाकार छोटे-छोटे पीले भूरे रंग के धब्बे के रूप में देखे जा सकते हैं। अनुकूल मौसम में धब्बे अन्य धब्बों से मिलकर पत्तियों को झुलसा देते हैं। प्रभावित फसल आग से झूलसी हुई नजर आती है। दाने सिकुड़े एवं कम वजन के होते हैं।

सेहूं रोग : यह रोग सूत्रकृमि द्वारा होता है। इस रोग से प्रभावित पौधों की पत्तियां मुड कर सिकुड़ जाती है। अधिकांश पौधे बोने रह जाते हैं तथा उनमें स्वस्थ पौधे की अपेक्षा अधिक शाखायें निकलती हैं। रोगग्रस्त बालियां छोटी एवं पोली हुए होती है और इसमें काले रंग की गांठें बन जाती है। जिसमें गेहूं के दाने के बदले काले ईलायची के दाने के ेसमान बीज बनते हैं। गेहूं में फ्यूजेरियम हैड ब्लाईट रोग वर्ष 1889 में स्मिथ हवर ने पहली बार इंग्लैण्ड में रिपोर्ट किया गया था उस समय इसे फ्यूजेरियम पुलरम के कारण माना जाता था। फ्यूजेरियम की 17 प्रजातियों की पहचान फ्यूजेरियम है ब्लाईट रोग कारकों के रूप में की जा चुकी है। फ्यूजेरियम प्रजातियां माईकोटॉक्सिन का उत्पादन करती है। एफएचबी गेहूं उत्पादन के लिए गंभीर बाधा है क्योंकि रोग के कारण विभिन्न देशों में उपज में उल्लेखनीय कमी आयी है।

प्रबंधन : रतुआ रोग का निदान अथवा प्रबंधन आसान नहीं है क्योंकि इसमें समय के साथ नए प्रभेद उत्पन्न होते रहते हंै और रतुआ के बीजाणु हवा के द्वारा हजारों किलोमीटर तक पंहुच सकते हैं। उचित समय पर रतुआ प्रबंधन करके इससे बचा जा सकता है। पादप प्रजनन के माध्यम से उच्च उपज देने वाली रतुआ प्रतिरोधी किस्मों का विकास एवं किसानों द्वारा उनको अपनाना निश्चित रूप में गेहूं को रतुआ रोगों से बचाने का सबसे सस्ता एवं उपयुक्त उपाय है।

  • प्रतिरोधी प्रजातियों के अप्रभावी होने की दशा में किसान अन्य रसायनिक और गैर रसायनिक नियंत्रण विधियों को अपना सकते हैं।
  • किसान को अच्छी तरह से वैज्ञानिकों द्वारा बताये गये प्रभावित उपाय अपनाने चाहिए तथा गेहूं की फसल पर रतुआ की आरम्भिक एवं अनुकूल वातावरण की अवस्था में रसायन प्रोपीकानजोल (टिल्ट 25 प्रतिशत ई.सी.) अथवा ट्राईडिमेफान बेलिटान 25 प्रतिशत ई.सी. अथवा टेबकोनाजोल का छिड़काव 0.1 प्रतिशत की दर से (एक मिली लीटर दवा प्रति लीटर पानी) करने से रतुआ नियंत्रित किया जा सकता है। रसायन का छिड़काव लगभग 15 दिन बाद फिर से आवश्यकतानुसार किया जा सकता है।
  • कुछ क्षेत्र जैसे नीलगिरी एवं पालनी पर्वत श्रृंखलायें कर्नाटक के कुछ क्षेत्र तथा उत्तरी भारत की पहाडिय़ों में रतुआ पूरे वर्ष जीवित रहता है। इसलिए इस क्षेत्र में जैविक प्रतिरोधयुक्त किस्मों को ही उगाया जाना चाहिए। एक किस्म को बड़े क्षेत्रफल में उगाये जाने पर रतुआ महामारी का खतरा बना रहता है इसलिए एक क्षेत्र या जिले में उगाये जाने वाली गेहूँ की किस्मों में विविधता लाना अति आवश्यक है।
  • यदि गेहूं की फसल को अन्य उपयुक्त फसलों जैसे चना, सरसों इत्यादि के साथ मिश्रित/अन्य फसल के रूप में बोया जाए तो रोग के प्रभाव को काफी कम कर सकते हैं।
  • नाईट्रोजनयुक्त उर्वरक पौधों में रतुआ के प्रति रोग सहिष्णुता को बढ़ा देते हैं। इसलिए रतुआ के प्रभाव को कम करने के लिए नाइट्रोजन, फास्फोरस तथा पोटाश को संतुलित अनुपात में तथा नाईट्रोजन की मात्रा थोड़ी कम करने से रतुआ के प्रभाव कम हो जाते हैं।
  • गैर मौसमी/असमय उगने वाले गेहूं के पौधे को नष्ट कर देना चाहिए क्योंकि ये पौधे गेहूं की मुख्य फसल की अनुपस्थिति में रतुआ रोग पैदा करने वाले फफूंद को आश्रय देते हैं तथा उनको अगले फसल चक्र तक जाने का कार्य करते हैं।
  • कंडुआ एवं करनाल बंट रोगों के नियंत्रण हेतु कार्बेन्डाजिम 50 डब्ल्यू पी की 2.5 ग्राम या कार्बोक्सिन 75 डब्ल्यू पी 2.0 ग्राम या टेबुकोनाजोल 2 डी.एस. की 1.0 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से बीजोपचार कर बुवाई करना चाहिए।
  • कण्डुआ रोग एवं बीज जनित रोगों के साथ-साथ प्रारम्भिक भूमि जनित रोगों के नियंत्रण हेतु कार्बोक्सिन 57.5 प्रतिशत+थीरम 37.5 प्रतिशत डी.एस.डब्ल्यू.एस. की 3.0 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से बीज शोधन कर बुवाई करना चाहिए।
  • गेहूं रोग के नियंत्रण हेतु बीज को कुछ समय के लिए 2.0 प्रतिशत नमक के घोल में डुबोये जिससे गेहूं रोग ग्रसित बीज हल्का होने के कारण तैरने लगता है। ऐसे गेहूं के बीज को निकाल कर नष्ट कर देना चाहिए। नमक के घोल में डुबोये गये बीजों को बाद में साफ पानी से 2-3 बार धोकर सुखा लेने के पश्चात् बोने के काम में लाना चाहिए।
  • भूमि उपचार: मृदा एवं बीज जनित रोगों के नियंत्रण हेतु फफूंदनाशी ट्राइकोडर्मा बिरडी 1 प्रतिशत डब्ल्यू पी अथवा ट्राईकोडर्मा हरजिएनम 2 प्रतिशत डब्ल्यू पी की 2.5 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से 6-75 किलोग्राम सड़ी गोबर की खाद में मिलाकर हल्के पानी का छींटा देकर 8-10 दिन तक छाया में रखने के उपरांत बुवाई के पूर्व आखिरी जुताई के समय भूमि में मिला देने से कंडुआ करनाल बंट आदि रोगों के प्रबंधन में सहायता मिलती है।
  • सेहूं रोग के नियंत्रण हेतु कार्बोफ्यूरॉन 3 जी 10-15 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से भुरकाव करना चाहिए।
  • द्रवीय उपचार: करनाल बंट रोगों के नियंत्रण के लिए प्रोपीकोनाजोल 25 ई.सी. 1.5 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी की दर से घोल बनाकर फसलों में छिड़काव करना चाहिए।
  • गेहूं के फ्यूजेरियम हैंड ब्लाइट के प्रबंधन के लिए प्रतिरोधी किस्मों और रसायनिक उपायों के उपयोग सबसे अच्छा विकल्प है। एफएचबी के प्रबंधन के लिए फफूंदनाशकों की प्रभावकारिता का मूल्यांकन किया गया और गेहूँ की किस्मों में एजोक्सिट्रोजिन और ट्राईजोल फफूंदनाशकों के साथ रोग के सर्वोत्तम नियंत्रण की संभावना है। यदि फ्यूजेरियम हैड ब्लाइट गेहूं पर बालियों में दिखाई दे, तो प्रोपिकोनाजोल 25 इसी का एक स्प्रे दिया जाना चाहिए ताकि रोग अन्य इयरहैडस में न फैले।

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