Crop Cultivation (फसल की खेती)

भारतीय दलहन फसलें : अनुसंधान एवं विकास

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  • डॉ. संदीप शर्मा
    बी-9, कम्फर्ट गार्डन, चूना भट्टी, भोपाल
    मो.: 9303133157

15 नवम्बर 2022, भोपालभारतीय दलहन फसलें : अनुसंधान एवं विकास  – एक सामान्य शाकाहारी भारतीय भोजन थाली दालों के बिना अधूरी मानी जाती है। सदियों से हमारे फसल तंत्र में विभिन्न दलहनी फसलों को सम्मिलित किया जाता रहा है। दलहनी फसलें प्रोटीन का सस्ता एवं सुलभ स्त्रोत हैं। दलहनी फसलों में प्रोटीन की मात्रा अनाज वाली फसलों की अपेक्षा अधिक होती है। इसके अतिरिक्त खाद्यान्न फसलों में उपलब्ध प्रोटीन तत्व उनके दानों के छिलकों (एल्यूरान परत) में पाया जाता है जो कि प्रसंस्करण के दौरान नष्ट हो जाता है, जबकि दलहनी फसलों में उपलब्ध प्रोटीन तत्व उनके दानों के बीजदलों में पाया जाता है तथा प्रसंस्करण उपरांत भी विद्यमान रहता है। पौष्टिक सुरक्षा के अतिरिक्त दलहनी फसलें मृदा में नत्रजन उपलब्धता वृद्धि में भी सहायक होती हैं। एक रिपोर्ट के अनुसार चना, अरहर, मूंग, मसूर और मटर की फसलें मृदा में क्रमश: 41 से 134, 31 से 97, 30 से 74, 60 से 147 तथा 30 से 125 कि.ग्रा. प्रति हेक्टर नत्रजन का स्थिरीकरण करती हैं।

राष्ट्रीय दलहन उत्पादन

विश्व खाद्य एवं कृषि संगठन के अनुसार वर्ष 2020 मे कुल दलहनी फसलों के वैश्विक रकबे में 35.61 प्रतिशत रकबा भारतवर्ष में था, जिससे वैश्विक उत्पादन का 26.01 प्रतिशत हिस्सा हमारे देश में उत्पादित किया गया। चने के वैश्विक रकबे एवं उत्पादन में भारत की हिस्सेदारी क्रमश: 73.77 तथा 73.45 प्रतिशत रही। अरहर के वैश्विक रकबे का 82.20 प्रतिशत हमारे देश में बोया गया तथा अरहर के कुल वैश्विक उत्पादन में भारत का योगदान 77.61 प्रतिशत था। मसूर के कुल वैश्विक रकबे का 27.04 त्न रकबा हमारे देश में था, जबकि वर्ष 2020 में मसूर के वैश्विक उत्पादन में भारत की हिस्सेदारी 18.05त्न थी। दलहनी फसलों की वैश्विक औसत उत्पादकता की तुलना में भारतवर्ष में दलहन उत्पादकता कम है (तालिका 1)।

भारतवर्ष में उत्पादित की जाने वाली पाँच प्रमुख दलहनों के उत्पादन के विगत पाँच दशकों के औसत आँकड़ें तालिका 2 में संकलित किये गये हैं। आँकड़ों से स्पष्ट है कि विगत पाँच दशकों में कुल दलहन उत्पादन में 2.70 प्रतिशत की वार्षिक वृद्धि दर से उत्तरोत्तर वृद्धि हुई है। प्रथम आलोच्य दशक (1971-1980) में कुल दलहन का औसत उत्पादन (10.88 मिलियन टन) था जोकि पाँचवें दशक (2011-2020) में बढक़र दुगना (20.74 मिलियन टन) हो गया। इसी दशक के दौरान कुल दलहन उत्पादन में सर्वाधिक वृद्धि दर (5.46 प्रतिशत) देखी गई। उक्त उत्पादन वृद्धि में उन्नत किस्मों का विकास, उनकी परिस्थिति अनुकूल उत्पादन तकनीक पर अनुसंधान और विस्तार तथा दलहन उत्पादकों द्वारा अंगीकरण का प्रमुख योगदान है। इसके अतिरिक्त केन्द्र तथा राज्य सरकारों द्वारा कृषक हित में लागू और क्रियान्वित की गई नीतियों की भूमिका भी महत्वपूर्ण हैं। कृषि अनुसंधान संस्थाओं द्वारा विगत एक दशक (2009-2010 से 2019-2020) की अवधि में भारतवर्ष में उत्पादित की जाने वाली प्रमुख दलहनी फसलों की 247 उन्नत किस्में विकसित की जा चुकी हैं जिनमें चना (59 किस्में), मंूग (36 किस्में), अरहर (31 किस्में), उड़द (32 किस्में), मटर (23 किस्में), मसूर (29 किस्में), चौलाई (16 किस्में) तथा अन्य दलहन (राजमा, कुलथी, तिवड़ा आदि) की 21 किस्में सम्मिलित हैं। एक अनुमान के अनुसार दलहन उत्पादन की वर्तमान में उपलब्ध तकनीक के अंगीकरण तथा क्रियान्वयन से वर्तमान उत्पादकता में लगभग 250 किग्रा प्रति हेक्टर तक की वृ़िद्ध करना सम्भव है। अनुसंधान एवं विस्तार के साथ ही केन्द्र और राज्य सरकारों द्वारा उत्पादकों के अनुकूल लिये गये नीतिगत फैसलों से भी उक्त ‘दलहन क्रांति’ को बल मिला है। रबी वर्ष 2007-08 से लागू राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अभियान, उन्नत किस्मों के बीजों की उपलब्धता सुनिश्चित करने के उद्देश्य से देश में स्थापित 150 ‘बीज संकुल’, न्यूनतम समर्थन मूल्यों का उचित समय पर निर्धारण तथा उत्पाद की खरीदी शासकीय स्तर पर सुनिश्चित करना आदि निर्णयों नेे दलहन उत्पादकों को प्रोत्साहित किया है।

उक्त दलहन उत्पादन वृद्धि भारतीय जनसंख्या वृद्धि दर से अपेक्षाकृत कम रही और इसी कारण वर्ष 1971 में प्रति व्यक्ति प्रतिदिन दलहन उपलब्धता 51.20 ग्राम से घटकर वर्ष 2021 में 45 ग्राम तक हो गई (राष्ट्रीय कृषि आयोग के विभिन्न प्रतिवेदन)। उल्लेखनीय है कि भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद की अनुशंसा के अनुसार एक सामान्य शाकाहारी भारतीय को प्रतिदिन 70 ग्राम दलहन की उपलब्धता, पौष्टिक सुरक्षा प्रदान करने में सहायक होती है

दलहनी फसलों का इतिहास

आठवीं शताब्दी ईसा पूर्व प्राचीन यूनानी कवि ‘होमर’ द्वारा रचित महाकाव्य ‘इलियद’ में सेम और चने जैसी दलहनी फसलों का उल्लेख इन फसलों के इतिहास को दर्शाने का प्रथम लिखित प्रमाण माना जाता है। इस महाकाव्य में चने के लिये ग्रीक भाषा का शब्द ‘इरीबिन्थोस’ का उपयोग किया गया है। ऐसा माना जाता है कि मानव सभ्यता विकास के नवप्रस्तर काल (नियोलिथिक पीरियड) में सर्वप्रथम मध्य पूर्व देशों (वर्तमान में सीरिया, टर्की, ईरान) में स्थित उर्वर क्षेत्र (फर्टाईल क्रिसेन्ट) के आसपास ईसा पूर्व सातवीं शताब्दी में मसूर, चना, फाबा बीन, मटर आदि उत्पादित किये जाने के प्रमाण उपलब्ध हैं। तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व रोमन व्यापारियों द्वारा फाबा बीन ब्रिटेन लाई गई और यह ज्ञात हुआ कि फाबा बीन को ब्रिटेन के ठण्डे मौसम में भी सफलतापूर्वक उगाया जा सकता है। प्रथम शताब्दी ईस्वी में लोबिया और मटर फसलों का फैलाव उनके मूल स्थान पश्चिम अफ्रीका से मध्य पूर्व एशिया और भारतवर्ष तक हुआ। मैक्सिको क्षेत्र में शताब्दियों से उत्पादित की जा रही सेम की फसल स्पेन के व्यापारियों के माध्यम से पन्द्रहवीं शताब्दी में यूरोप पहुँची, जहाँ से सम्पूर्ण विश्व में विस्तारित हुई।

भारतवर्ष में दलहनी फसलों पर प्रारम्भिक अनुसंधान कार्य बीसवीं शताब्दी के चौथे दशक से माना जाता है। वर्ष 1936 में तत्कालीन इम्पीरियल कौन्सिल फॉर एग्रीकल्चरल रिसर्च फॉर इंडिया (वर्तमान में भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद) के कार्यों की समीक्षा के लिये सर एडवर्ड जॉन रसेल सपत्नीक भारत के दौरे पर आये थे। सर एडवर्ड जॉन रसेल (1872-1965) प्राचीन एवं विश्व विख्यात रॉथमस्टेड एक्सपेरीमेंटल स्टेशन, हरफोर्डशायर, ग्रेट ब्रिटेन के निदेशक थे। यह अनुसंधान केन्द्र उर्वरकों के दीर्घकालीन उपयोग के प्रभाव सम्बंधी अध्ययन के लिये प्रसिद्ध है। सर रसेल इस ख्याति प्राप्त केन्द्र के वर्ष 1912 से 1943 तक निदेशक रहे। वर्तमान में यह अनुसंधान केन्द्र सन् 1987 से इंस्टिट्यूट ऑफ अरेबल क्रॉप रिसर्च के नाम से जाना जाता है। सर रसेल की अनुशंसा के आधार पर भारत में भी दलहन अनुसंधान कार्य प्रारम्भ किये गये। अपने प्रारम्भिक अनुसंधान के परिणामस्वरूप मटर की टाईप 163, उड़द की टाईप 9 अरहर की टाईप 21 तथा मूँग की कम अवधि में पकने वाली किस्म टाईप 44 आदि उन्नत किस्में विकसित की गई। मूँग की इसी किस्म से प्रसिद्ध किस्म ‘पूसा बैसाखी’ वर्ष 1971 में चयन प्रक्रिया विधि से विकसित की गई।

हमारे देश में दलहन अनुसंधान कार्य का व्यवस्थित स्वरूप वर्ष 1966 में अखिल भारतीय समन्वित दलहन अनुसंधान परियोजना की स्थापना से प्रारम्भ हुआ, जिससे देश के विभिन्न कृषि जलवायु क्षेत्रों में दलहन अनुसंधान का कार्य आरम्भ हुआ। भारत सरकार द्वारा दलहन विकास कार्यक्रमों का प्रारम्भ चौथी पंचवर्षीय योजना (1969-70 से 1973-74) से हुआ। शतप्रतिशत केन्द्रीय विश्व पोषित इस ‘राष्ट्रीय दलहन विकास योजना’ में दलहनी फसलों की उन्नत किस्मों की उत्पादन तकनीकी का विस्तार कृषकों के खेतों में किया गया।

सन् 1971 से 1980 तक

सन् 1971-80 के दशक में परम्परागत रूप से उत्पादित की जा रही दलहनी फसलों की उपलब्ध किस्मों (लैण्ड रेसेस) में से वांछित गुणों से युक्त पौधों का चयन कर उच्च उपज क्षमतायुक्त किस्मों का विकास किया गया। इस दशक में कम अवधि में पकने वाली अरहर की किस्में जैसे पूसा अगेती तथा उपास 120 और ग्रीष्मकालीन मूँग की लोकप्रिय किस्में जैसे पूसा बैसाखी तथा जवाहर 45 विकसित की गई। इसी प्रकार असिंचित क्षेत्रों के लिये उपयुक्त चने की उन्नत किस्में जैसे जेजी 62, जेजी 221, जेजी 5 आदि विकसित की गई। उक्त उन्नत किस्मों की कृषि कार्यमाला के विकास हेतु विभिन्न कृषि जलवायु क्षेत्रों के अनुकूल बोनी तिथि, बीज दर, वांछित पौध संख्या, पोषक तत्वों और जैविक खाद (गोबर की खाद) की मात्राओं का निर्धारण करने सम्बंधी कार्य किये गये। इन नवविकसित किस्मों की विभिन्न क्षेत्रों के लिये उपयुक्त अरहर-गेहूँ तथा धान-गेहूँ-मूँग के फसल चक्रों के लिये उपयुक्त कृषि कार्यमालायें विकसित की गईं इसी दशक में वर्ष 1978 में भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली में संचालित अखिल भारतीय समन्वित दलहन अनुसंधान परियोजना की मुख्यालय कानपुर (उत्तर प्रदेश) स्थानांतरित किया गया तथा इस संस्थान का नामकरण ‘परियोजना संचालनालय (दलहन)’ किया गया।

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