राज्य कृषि समाचार (State News)फसल की खेती (Crop Cultivation)

सरसो की उन्नत खेती

लेखक: सीता चौधरी1,  डॉ. आर के सिंह2,  डॉ. एन के मीना1 और एम पी सिंह1, 1विषय वस्तु विशेषज्ञ, 2 प्रधान वैज्ञानिक कृषि विज्ञान केंद्र, भाकृअनुप – केन्द्रीय कृषि अभियांत्रिकी संस्थान, भोपाल-462038, :sitachoudhary110@gmail.com

31 जनवरी 2025, भोपाल: सरसो की उन्नत खेती –

परिचय

सरसों और राई भारत की प्रमुख तिलहनी फसलों में शामिल हैं। राजस्थान में सरसों की खेती भरतपुर, सवाई माधोपुर, अलवर, करौली, कोटा, और जयपुर जैसे जिलों में व्यापक रूप से की जाती है। यह फसल कम लागत में अधिक लाभ देने वाली होती है। सरसों के हरे पौधों को पशुओं के लिए हरे चारे के रूप में तथा बीज, तेल और खली को पशुओं के आहार के रूप में उपयोग किया जाता है। इसकी खली का शीतल प्रभाव होने के कारण यह कई रोगों की रोकथाम में सहायक होती है। खली में निम्न पोषक तत्व नाइट्रोजन: 4-9%, फॉस्फोरस: 2.5% और पोटाश: 1.5% पाए जाते हैं। इन पोषक तत्वों के कारण विभिन्न देशों में जैविक खाद के रूप में भी इस्तेमाल किया जाता है।

सरसों का महत्व और उपयोग

भारत में सरसों एक महत्वपूर्ण तिलहनी फसल है। इसके बीज से 30-48% तक तेल प्राप्त होता है। इसके तेल का उपयोग खाना पकाने, मालिश करने, साबुन और ग्रीस बनाने, फल और सब्जियों के संरक्षण के  लिए किया जाता है।

जलवायु

सरसों की खेती के लिए शरद ऋतु (रबी मौसम) आदर्श होती है। फसल के लिए 18-25 डिग्री सेल्सियस का तापमान उपयुक्त है। फूल आने के समय अधिक आर्द्रता, बारिश, और बादल फसल के लिए हानिकारक हो सकते हैं। इन परिस्थितियों में माहू या चौपा कीट का प्रकोप बढ़ सकता है।

मृदा

रेतीली से लेकर भारी मटियार मिट्टी में सरसों की खेती संभव है। बलुई दोमट मिट्टी सबसे उपयुक्त मानी जाती है। मिट्टी हल्की क्षारीय हो सकती है। लेकिन अम्लीय मिट्टी फसल के लिए हानिकारक होती है।

सरसों की उन्नत किस्में

1. डीआरएमआर 1165-40 (रुक्मणी)

          यह सरसो की एक उन्नत किस्म है इसके पौधे की ऊंचाई: 177-196 सेमी होती है।इसकी उत्पादन क्षमता 22-26 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है। इसके बीजों में तेल की मात्रा 40 से 42.5 प्रतिशत तक होती है। यह सरसों किस्म 135-151 दिन में तैयार हो जाती है। सिंचित और असिंचित दोनों ही स्थितियों में सरसों की यह किस्म बेहतर पैदावार देती है।

    2. डीआरएमआरआईसी 16-38 (बृजराज)

          सिंचित क्षेत्रों में देर से बुवाई के लिए उपयुक्त है। इसके पौधे की ऊंचाई 188 से 197 सेमी और बीज आकार 2.9 से 5.0 g है। यह किस्म 120 से 149 दिन की अवधि में परिपक्व हो जाती है। और इसमें तेल की मात्रा 37.6 से 40.9 प्रतिशत होती है। इसकी उत्पादन क्षमता 16  से 18  क्विंटल प्रति हेक्टेयर है। इसमें अल्टरनेरिया पत्ती झुलसा, सफेद जंग, तना सड़न,, चूर्णी फफूंद और एफिड का प्रकोप भी कम होता है।

    3. डीआरएमआर 2017-18 (राधिका)

          सिंचित स्थिति में देर से बुआई के लिए सरसों की यह किस्म बेहतर है। DRMR 2017-15 सरसों किस्म की औसत उत्पादन क्षमता 1788 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर है। इसके बीज में तेल की मात्रा 40.7 प्रतिशत तक होती है। इस किस्म की परिपक्वता अवधि 120 से 150 दिन की है। सरसों की इस किस्म में अल्टरनेरिया पत्ती झुलसा, सफेद जंग, तना सड़न, कोमल फफूंद और चूर्णी फफूंद और एफिड का प्रकोप भी कम है।

    4. डीआरएमआर 150-35 (भारतीय सरसों)

    इस सरसों की पैदावार क्षमता 18 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है। इसमें तेल की मात्रा 39.8 प्रतिशत तक होती है। पौधे की ऊंचाई 164-186 सेमी और परिपक्वता अवधि 114 दिन होती है।

    5. डीआरएमआरआईजे-31 (गिरिराज)

    सरसों फसल की एक उन्नत और प्रमाणित किस्म है। इस किस्म में तेल की मात्रा 39-42.6 प्रतिशत तक की होती है। इसकी पैदावार क्षमता 23-28 क्विंटल प्रति हेक्टेयर की है। इसके पौधे की ऊंचाई 180-210 सेमी होती है। और परिपक्वता 137-153 दिन की है।

    6. आर एच 30

    यह किस्म सिंचित और असिंचित दोनों परिस्थितियों के लिए उपयुक्त है। गेहूं, चना, और जौ के साथ अंतरवर्तीय फसल के लिए आदर्श। पौधों की ऊँचाई लगभग 196 सेंटीमीटर, शाखाएँ 5 या अधिक। पकने का समय 120-130 दिन। उपज 20-25 क्विंटल प्रति हेक्टेयर ।

    7. टी-59 (वरुणा)

    यह 8 प्राथमिक शाखाओं वाली देर से बुवाई के लिए उपयुक्त है। फूल आने का समय 45-50 दिन व पकने का समय 130-135 दिन है। तेल की मात्रा 36% , उपज 15-18 क्विंटल प्रति हेक्टेयर (असिंचित)। दाने मोटे और काले रंग के। मोयले के प्रकोप से बचने के लिए 15-20 अक्टूबर तक बुवाई करें।

    8. पूसा बोल्ड

    इस किस्म की ऊँचाई मध्यम व फलियाँ मोटी होती है। पकने का समय 130-140 दिन होता  है।  तेल की मात्रा 37-38% व उपज 20-25 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है।

    9. बायो 902 (पूसा जयकिसान)

    यह रोग प्रतिरोधी किस्म होती है। इसमें सफेद रोली और मुरझान रोगों का प्रकोप कम होता है। पौधे की ऊँचाई 160-180 सेमी होती है। पकने का समय 130-140 दिन होता है। तेल की मात्रा 38-40% व उपज 18-20 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है। तथा इसका दाना झड़ता नहीं व कालापन लिए भूरे रंग का होता है।

    खेत की तैयारी

    सरसों की खेती के लिए मुरमुरी (भुरभुरी) मृदा सर्वोत्तम होती है। खरीफ की फसल कटने के बाद एक गहरी जुताई करें, फिर 3-4 बार देसी हल से जुताई कर के पाटा लगा कर खेत को समतल और भुरभुरा बनाना आवश्यक है। असिंचित क्षेत्रों में खरीफ के मौसम में खेत खाली छोड़ने से जल संरक्षण में मदद मिलती है।

    दीमक और अन्य कीटों के प्रकोप को रोकने के लिए अंतिम जुताई के समय क्यूनालफॉस 1.5 प्रतिशत चूर्ण 25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से डालें। एजोटोबैक्टर और पी.एस.बी. कल्चर (2-3 किलोग्राम) को 50 किलोग्राम सड़ी हुई गोबर की खाद या वर्मीकम्पोस्ट में मिलाकर अंतिम जुताई के समय खेत में डालें।

    बुवाई

    सरसों की बुवाई के लिए 25-26°C तापमान आदर्श रहता है। बारानी क्षेत्रों में 15 सितंबर से 15 अक्टूबर तक सरसों की बुवाई करें और सिंचित क्षेत्रों में अक्टूबर के अंत तक बुवाई कर सकते है। 15 अक्टूबर से पहले सरसों की बुवाई करने से एफिड या माहू का प्रकोप कम आता है। कतारों में बुवाई करे। कतार से कतार की दूरी 30 सेमी व पौधों से पौधों की दूरी 10 सेमी रखें। बीज की गहराई सिंचित क्षेत्र में 5 सेमी तथा असिंचित क्षेत्र में नमी के अनुसार रखें।

    बीज की मात्रा

    शुष्क क्षेत्रों में 4-5 किलोग्राम तथा सिंचित क्षेत्रों में 2.5 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर बीज की मात्रा पर्याप्त होती है। बुवाई से पहले बीज को 2.5 ग्राम मैन्कोजेब प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करें।

    खाद एवं उर्वरक प्रबंधन

    सिंचित क्षेत्रों में 8-10 टन प्रति हेक्टेयर सड़ी हुई गोबर की खाद बुवाई से 4 सप्ताह पहले तथा बारानी क्षेत्रों में 4-6 टन सड़ी खाद वर्षा से पहले प्रति हेक्टेयर खेत में समान रूप से डालें। सिंचित क्षेत्र के लिए नत्रजन (नाइट्रोजन) 80 किलोग्राम, फॉस्फोरस 30-40 किलोग्राम और गंधक (जिप्सम) 60 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग करे। नत्रजन की आधी मात्रा और फॉस्फोरस की पूरी मात्रा बुवाई के समय दें। तथा शेष नत्रजन पहली सिंचाई के समय दें।

    सिंचाई प्रबंधन

    यदि वर्षा पर्याप्त हो तो सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती। जल की कमी होने पर कम से कम 2 सिंचाई करें। पहली सिंचाई बुवाई के 30-40 दिन बाद, दूसरी सिंचाई (फली बनते मय)70-80 दिन बाद। यदि जल सीमित हो तो केवल एक सिंचाई (फूल आने के समय) 40-50 दिन की फसल में करें।

    निराई-गुड़ाई और खरपतवार प्रबंधन

    बुवाई के 20-25 दिन बाद पहली निराई करें। छंटाई के द्वारा पौधों की संख्या नियंत्रित करें, और पौधों के बीच 8-10 सेमी की दूरी रखें। सिंचाई के बाद गुड़ाई करें। इससे खरपतवार नियंत्रित होता है और मिट्टी में नमी संरक्षित रहती है।

    इस प्रक्रिया को सही ढंग से अपनाने से सरसों की फसल की गुणवत्ता और उत्पादन में वृद्धि सुनिश्चित की जा सकती है। प्याजी खरपतवार की रोकथाम के लिए फ्लूम्लोरेलिन (1 लीटर सक्रिय तत्व प्रति हेक्टेयर) रसायन का छिड़काव करें। सूखी बुवाई की स्थिति में पहले बुवाई करें, फिर फ्लूम्लोरेलिन का छिड़काव करके सिंचाई करें। जो की खरपतवार के प्रसार को रोकने में मदद करता है।

    फसल की कटाई

    सरसों की फसल 120 से 150 दिनों में पककर तैयार हो जाती है। जैसे ही पौधों की पत्तियाँ और फलियाँ पीली पड़ने लगें तुरंत कटाई करें। समय पर कटाई न करने पर फलियाँ चटकने लगती हैं, जिससे उपज में 5-10% तक की कमी हो सकती है। कटाई के दौरान सुनिश्चित करें कि सत्यानाशी खरपतवार का बीज या फल फसल में न मिले। सत्यानाशी के बीज से फसल का तेल दूषित हो सकता है, जिससे ड्रॉपसी नामक बीमारी हो सकती है।

    उत्पादन

    उन्नत तकनीक अपनाने पर असिंचित क्षेत्रों में 15-20 क्विंटल तथा सिंचित क्षेत्रों में 20-30 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज प्राप्त होती है। सरसों की फसल की उपज को बढ़ाने के लिए उन्नत तकनीकों का पालन, समय पर सिंचाई, खरपतवार नियंत्रण, और कटाई पर विशेष ध्यान देना आवश्यक है।

    निष्कर्ष

    सरसों की उन्नत खेती के लिए सही प्रजाती का चयन, उचित भूमि की तैयारी, संतुलित उर्वरक प्रबंधन, कीट एवं रोग नियंत्रण जरूरी है। आधुनिक तकनीको एवं वैज्ञानिक तरीकों को अपनाकर उपज में वृद्धि की जा सकती है। जिससे किसानो की आय में सुधार होगा।

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