राज्य कृषि समाचार (State News)फसल की खेती (Crop Cultivation)

आंवला की उन्नत खेती

लेखक: अंजली द्विवेदी, परास्नातक छात्रा (उद्यानिकी), सी बी यस यम यस यस, झींझक, सी यस जे यम यू, कानपुर, उत्तर प्रदेश एवं डॉ. प्रदीप कुमार द्विवेदी, वैज्ञानिक (पौध संरक्षण), कृषि विज्ञान केन्द्र, रायसेन

02 अगस्त 2024, भोपाल: आंवला की उन्नत खेती – आंवला का फल विटामिन ‘सी’ का प्रमुख स्त्रोत है। औषधीय गुणों से भरपूर आंवला एक बहुपयोगी प्राचीनतम फल है। इसके गुणों का वर्णन चरक संहिता, सश्रुत संहिता, कादम्बरी, रामायण आदि अनेक ग्रन्थों में मिलता है। आयुर्वेद में आंवले को महत्वपूर्ण स्थान देते हुए अमृत फल कहा गया है। आंवला के 100 ग्राम खाद्य भाग में 600 मिलीग्राम विटामिन ‘सी’ पाया जाता है। इसके अतिरिक्त प्रोटीन, कार्बाेहाइड्रेट तथा खनिज लवण भी इसमें प्रचुर मात्रा में पाये जाते है। आंवले के सेवन से शरीर में जीर्ण होने की प्रक्रिया मंद हो जाती है स्कर्वी, दांत एवं मसूड़ों, हड्डी, आंख व उदर के अनेक रोगों में लाभदायक है। आंवले के फलों से मुरब्बा, आचार, चटनी, जैम, जैली, स्क्वेश, पाउडर (चूर्ण), केश तेल, लड्डू, शेम्पू, केण्डी, पाचक, त्रिफला, च्वनप्रास व अनेक आयुर्वेदिक व यूनानी दवाओं में भी इसका प्रयोग होता है। आंवला प्रदेश के सभी स्थानों पर उगाये जाने की प्रबल सम्भावनाएं है।

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जलवायु

आंवला की खेती नम तथा शुष्क दोनो प्रकार की जलवायु में सफलतापूर्वक की जा सकती है।
भूमि

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आंवला के पौधे अधिक सहिष्णु होने के कारण विभिन्न प्रकार की मिट्टी में लगाये जा सकते है। इसके लिए गहरी दोमट मिट्टी सर्वाेत्तम है। क्षारीय भूमियों (7.0-9.0 पी.एच) में भी सफलतापूर्वक लगाया जा सकता है।

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उन्नत किस्में

  1. बनारसी- फलों का आकार बड़ा (40-50 ग्राम) एवं गूदा मुलायम होता है। यह जल्दी पकने वाली किस्म है। इसमें पराग झड़ने, पराग संकोच, एक तरफा एवं एकान्तर फलन की समस्या है। इसके पौधे औसत लम्बाई से लेकर ऊँचाई तक जा सकते है एवं इसकी शाखायें ऊपर की ओर सीधी बढ़ती है। गूदे में रेशा की मात्रा कम होने के कारण इसके फल आचार एवं मुरब्बा बनाने के लिए उपयुक्त पाये गये है।
  2. चकैया- यह एक पिछेती किस्म है। फल अपेक्षाकृत छोटे (30-35 ग्राम प्रति फल) और ऊपर से कुछ चपटे होते है। फलों का रंग पकने पर हरा होता है। फल का गूदा रेशा युक्त एवं कठोर होने के कारण परिरक्षण एवं भंडारण के लिए श्रेष्ठ है परन्तु मुरब्बा एवं केण्डी बनाने के लिए उपयुक्त नहीं है।
  3. फ्रांसिस (हाथी झूल)- इस किस्म के पौधे भी सीधे बढ़ने वाले होते है परन्तु टहनियाँ बढ़ी हुई तथा नीचे की ओर झुकी हुई होती है। इसके फल बड़े आकार के अंडाकार व हरा पीला रंग लिये हुये बीच में से दबे हुए होते है। फलों में रेशा कम होता है अतः मुरब्बा के लिए उपयुक्त है, यह देरी से पकने वाली अच्छी किस्म है लेकिन फल आन्तरिक क्षय रोग से अधिक प्रभावित होते है।
  4. नरेन्द्र आंवला-7 (एन.ए-7)ः– इस किस्म का चयन फ्रांसिस (हाथी झूल) किस्म के बीजू पौधों से किया गया है। यह किस्म उत्तम क्षय रोग से मुक्त है। फल आकार में बड़े (40-50 ग्राम प्रति फल) एवं गोल, चिकनी सतह वाले हल्के पीले रंग के होते है। यह एक अच्छी उत्पादक किस्म है फल विभिन्न उत्पाद बनाने के लिए उपयुक्त है।
  5. अन्य किस्में – कृष्णा, कंचन, आंनद 2 आदि

प्रवर्धन – इसका प्रवर्धन वानस्पतिक विधियों से तथा कलम बंधन और कलिकायन द्वारा किया जाता है। आंवले के पौधे बीज द्वारा तथा वानस्पतिक विधि द्वारा तैयार किये जा सकते है परन्तु बीजू पौधों में असमरूपता होने एवं देर से फलन के कारण वानस्पतिक विधि से तैयार पौधों को ही लेना चाहिए। वानस्पतिक विधि से पौधे तैयार करने के लिए बीजों की बुवाई करके मूलवृन्त तैयार किये जाते है। व्यवसायिक स्तर पर पौधों का उत्पादन शील्ड कलिकायन, पैचबंद चश्मा विधि (पेच बडिंग) तथा फोरकर्ट विधि से किया जा सकता है। कलिकायन विधि से जून से सितंबर तक प्रवर्धन किया जा सकता है।

पौध रोपण

आंवले का बाग लगाने से पहले उसके चारो तरफ वायु रोधक पेड़ों की कतार लगाने से गर्म एवं ठंडी हवाओं से बचाया जा सकता है। पौधों की रोपाई के लिए मई जून माह में 8ग8 मीटर की दूरी पर 1ग1ग1 मीटर आकार के गड्डे खोद लेने चाहिये। गोबर खाद 15 किलों सिंगल सुपर फास्फेट 1 किलों एवं 50 ग्राम क्लोरीपाइरिफॉस चूर्ण प्रति गढ्ढा मिलायें।

खाद एवं उर्वरक

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यद्यपि प्रतिवर्ष खाद एवं उर्वरक की मात्रा मृदा परीक्षण के बाद ही निर्धारित की जाती है फिर भी सामान्यतया एक चूर्ण विकसित पौधे को 50 किलोग्राम गोबर की सड़ी खाद, 400 ग्राम नत्रजन, 300 ग्राम फास्फोरस एवं 500-600 ग्राम पोटाश प्रतिवर्ष देनी चाहिये। कभी-कभी सितंबर में उतक क्षय रोग से फल अंदर से काला पड़ने लगता है। इससे बचने के लिये 0.6 प्रतिशत बोरेक्स का छिड़काव सितंबर अक्टूबर माह में करना चाहिये।

सिंचाई

आंवला में वर्षा एवं शीत ऋतु में सिंचाई की आवश्यकता नहीं पड़ती है। नवरोपित बगीचे में सिंचाई की अधिक आवश्यकता होती है। मार्च से 10-15 दिन के अंतराल पर सिंचाई करनी चाहिये। सिंतबर से दिसंबर तक 15-20 दिन के अंदर पर सिंचाई करने से फल नहीं सड़ते है।

अन्तराशस्य

शुरू के तीन चार वर्षों में बाग में कुष्माण्ड कुल की सब्जियों के अतिरिक्त सभी प्रकार की सब्जियों जैसे टमाटर, बैंगन, मिर्च, मटर, आलू तथा फसलें सोयाबीन व चना आदि ले सकते है।

प्रमुख कीट

गांठ बनाने वाला कीट- इस कीट का गिडार शाखा के शीर्ष भाग में छेद बनाकर अंदर प्रवेश कर जाता है। ग्रसित भाग का स्थान फूल जाता है तथा शाखाओं की वृद्धि रूक जाती है। संक्रमित भाग को काटकर जलायें या भूमि में गाड देना चाहिये। जुलाई-अगस्त में कीटनाशी थायोमिथाक्जाम 25 डब्ल्यू.जी. मात्रा 0.3 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें।
छाल खाने वाला कीट- यह कीट शाखाओं तथा तने में छेद या सुरंग बनाकर एवं उसकी छाल खाकर पौधों को कमजोर बना देता है इसकी रोकथाम हेतु इन छिद्रों को साफ करके इनमें केरोसीन या 0.4 प्रतिशत डाइमिथोएट कीटनाशी के छोल में भीगी रूई दूसकर गीली मिट्टी से बंद कर देना चाहियें तथा प्रोफेनोफॉस 50 ई.सी. 1 मिली/लीटर या क्लोरपाइरीफॉस 20 ई.सी. 1.5 मिली/लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करें।

प्रमुख व्याधि

आंवला रस्ट- इसके प्रकोप से पत्तियों व फलों पर धब्बे बन जाते है। इसके नियंत्रण हेतु जिनेब 75 प्रतिशत डब्ल्यू.पी. 2 ग्राम प्रति लीटर या मेन्कोजेब 75 प्रतिशत डब्ल्यू.पी. 2 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें।

फलों की तुड़ाई एवं उपज

ग्राफ्टेड पौधा 4-5 वर्ष की आयु में फल देने लगता है। फूल मार्च-अप्रैल में आते है तथा फल नवंबर- दिसंबर में तोड़ने लायक हो जाते है। एक पूर्ण विकसित कलमी आंवले के पेड़ से 50-150 किलो फल मिलते है।

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