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पेस्टीसाइड के प्रयोग के प्रति उदासीनता क्यों ?

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विश्व में कृषि उत्पादों की बढ़ती मांग के कारण कृषि का भी व्यवसायीकरण होता चला जा रहा है, जिसके कारण देश में भी कृषि रसायनों का उपयोग बढ़ता चला जा रहा है। कुछ अनुमानों के अनुसार नाशीजीवों से प्रतिवर्ष 35 से 45 प्रतिशत फसलें नष्ट हो जाती हैं। जिनमें कीट, नींदा व पौधों की बीमारियां इन हानियों के लिये प्रमुख रूप से जिम्मेदार हैं। भंडारण में होने वाली लगभग 35 प्रतिशत हानि इसके अतिरिक्त है। इन हानियों को रोकने वाला प्रमुख विकल्प कृषि रसायन है। भारत की जीवनाशी रसायनों (पेस्टीसाइड) उद्योग एशिया में सबसे बड़़ा है व विश्व में 12वें स्थान पर आता है। देश में पेस्टीसाइड उद्योग लगभग 8000 करोड़ रुपये का है। जिसमें से 6000 करोड़ के पेस्टीसाइड देश में ही उपयोग हो जाते हैं और 2000 करोड़ के पेस्टीसाइड का निर्यात अन्य देशों को किया जाता है। देश में 256 पेस्टीसाइड पंजीयत हैं। देश में 60 ऐसी कम्पनियां हैं जो टेक्निकल पेस्टीसाइड का निर्माण कर रही हैं। इनके फार्मूलेशन के लिये देश में लगभग 500 इकाईयां है। देश का पेस्टीसाइड उद्योग प्रतिवर्ष 12-13 प्रतिशत की वृद्धि कर रहा है और देश में इनका उपयोग 8-9 प्रतिशत की वृद्धि से बढ़ रहा है। देश के विभिन्न प्रांतों में पेस्टीसाइड के उपयोग में बहुत बड़ा अंतर है। वर्ष 2012-13 के आंकड़ों के अनुसार उ.प्र. में सबसे अधिक 9035 टन पेस्टीसाइड का उपयोग किया गया। इसके बाद महाराष्ट्र तथा आंध्रप्रदेश में क्रमश: 6617 व 6500 लाख टन का उपयोग हुआ। मध्यप्रदेश, राजस्थान तथा छत्तीसगढ़ में क्रमश: मात्र 659, 1250 तथा 675 टन पेस्टीसाइड उपयोग किया गया। इनके उपयोग को बढ़ाने के लिये किसानों को जागरूक करने की आवश्यकता है ताकि किसान अपनी फसलों में नाशीजीवों द्वारा होने वाली हानि का आकलन कर सके तथा समय रहते इनके नियंत्रण के उपाय अपना सके और इनसे फसलों को होने वाली हानि को कम कर सके। देश में पेस्टीसाइडों का प्रति हेक्टर खपत मात्र 0.2912 किलो है। जहां पंजाब में वर्ष 2012-13 में इसका प्रति हेक्टर उपयोग 1.377 किलोग्राम था वहीं मध्यप्रदेश, राजस्थान व छत्तीसगढ़ में इनकी खपत क्रमश: मात्र 44 ग्राम, 68 ग्राम व 144 ग्राम प्रति हेक्टर थी। इतनी कम मात्रा में पेस्टीसाइड का उपयोग इन प्रदेशों के किसानों का फसल की नाशीजीवों की हानि से बचाने के प्रति उदासीनता दर्शाता है। यह प्रदेश सरकारों द्वारा पौध संरक्षण के लिये किये गये प्रयासों की पोल भी खोलता है।

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