Uncategorized

बाजार बदल गया, लेकिन किसान की किस्मत नहीं

Share

कर्ज-माफी व फसलों के उचित दाम को लेकर महाराष्ट्र में किसानों का विरोध थमने का नाम नहीं ले रहा। किसानों द्वारा हजारों लीटर दूध सड़कों पर बहाया गया है, साथ ही फल-सब्जियों की आपूर्ति को भी प्रभावित किया गया है। कहीं-कहीं प्रदर्शन में हिंसक प्रवृत्ति भी देखने को मिली है। किसानों का यह प्रदर्शन एक राज्य तक सीमित नहीं है। मध्य प्रदेश में भी किसानों ने सरकार के खिलाफ हल्ला बोल मंडियों का बहिष्कार कर 10 जून तक हड़ताल का ऐलान किया है। ताजा घटनाक्रम में राज्य के मंदसौर में आक्रोशित किसानों पर पुलिस ने गोलियां दागीं, जिसमें कुछ किसानों की जान गई है।
पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान किसानों को स्वामीनाथन आयोग के सुझाव के अनुसार न्यूनतम समर्थन मूल्य के अतिरिक्त 50 फीसदी लाभकारी मूल्य प्रदान करने का वादा किया गया था, जो अब तक पूरा नहीं हो पाया।
अभी हाल ही में किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी के तहत लागत मूल्य पर 43 फीसदी का लाभकारी मूल्य दिए जाने का दावा किया गया है। तर्क है कि लागत मूल्य में भूमि की कीमत न जोड़ी जाए, तो वर्तमान में किसानों को एमएसपी के अतिरिक्त 43 फीसदी का लाभकारी मूल्य मिल रहा है। कृषि जनगणना 2011 को भी आधार मानें, तो देश में कुल सिंचित भूमि के लगभग 48 फीसदी भू-भाग पर अत्यंत छोटी जोत वाले किसानों का स्वामित्व है। नकदी और पट्टे की जमीन किराये पर लेना इनकी मजबूरी है। अभी छह से सात हजार रुपये प्रति बीघा की दर से नकदी जमीन मिल रही है। चूंकि भारतीय कृषि व्यवस्था में छोटे किसानों की तादाद लगभग 70 फीसदी है, लिहाजा भूमि रहित मूल्यांकन और एमएसपी का फॉर्मूला दोषपूर्ण हो सकता है। पिछले दिनों सरकार द्वारा गन्ना वर्ष 2017-18 के लिए उचित व लाभकारी मूल्य की घोषणा की गई। गन्ना खेती की लागत में लगातार वृद्धि के बावजूद इसमें महज 25 रुपये प्रति क्विंटल यानी 10 फीसदी की बढ़ोतरी की गई है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार, वर्ष 2014-2015 के दौरान किसान आत्महत्या में 42 फीसदी की वृद्धि देखी गई। वर्ष 2014 में 5,650 किसानों ने आत्महत्या की थी, जो 2015 में बढ़कर 8,007 तक पहुंच गई। महाराष्ट्र में पिछले वर्ष तीन हजार से ज्यादा किसानों ने आत्महत्या की। आंकड़ों की मानें, तो किसान आत्महत्या के 80 फीसदी मामलों में कारण बैंक लोन है।
आज किसानी की सबसे बड़ी समस्या है निर्धारित लागत मूल्य और ‘वास्तविक लागत मूल्यÓ के बीच का फासला, जो किसानों को समर्थन मूल्य से दूर रख रहा है। इसमें किसानों की बुनियादी जरूरतों को नजरअंंंदाज करना अन्यायपूर्ण है। इस स्थिति में मूल्य निर्धारण प्रक्रिया में ‘मूल्य नीतिÓ को दरकिनार कर अब ‘आय नीतिÓ की सिफारिशों की जरूरत महसूस होने लगी है। पिछले वर्षो में दैनिक उपयोग की वस्तुओं की कीमतों में अपार वृद्धि हुई है। वर्ष 2001 में दूध की कीमत जहां 14-15 रुपये प्रति लीटर थी, वह आज 50 रुपये प्रति लीटर पर पहुंच चुकी है। 12 रुपये प्रति किलोग्राम बिकने वाली चीनी 40-50 रुपये प्रति किलो के भाव से बेची जा रही है। 1994 से 2014 के आंकड़ों के अनुसार कर्मचारियों का वेतन 300 प्रतिशत बढ़ा है। स्टील, सीमेंट, साबुन व वस्त्र के मूल्य में भी 300 फीसदी का इजाफा हुआ है। रसायनिक खादों के दाम 300 रुपये से बढ़कर 1100 रुपये हो गए हैं। कीटनाशक, जो 100 रुपये में मिलते थे, अब 400 रुपये के हो चुके हैं।
इस परिदृश्य में किसानों की आय दोगुनी करने का प्रारूप स्पष्ट नहीं होता। यदि 2022 तक किसानों की आमदनी वर्तमान से दोगुनी हो भी जाती है, तो क्या बढ़ती महंगाई के अनुपात में यह वृद्धि कारगर होगी। सरकार फसल बीमा योजना, स्वॉइल हेल्थ कार्ड व अन्य योजनाओं के जरिये कृषि व्यवस्था के कायाकल्प में लगी है। उत्तर प्रदेश व पंजाब के किसानों की आधी-अधूरी कर्जमाफी की पहल से अन्य राज्यों के किसानों में भी आस जगी है। खेती को घाटे से उबारने के लिए अब तक की सरकारें टेढ़़ा रुख अपनाती रही हैं और उचित मूल्य से पल्ला झाड़ती रही हैं। स्वामीनाथन रिपोर्ट का सभी दलों ने समर्थन किया था, इसलिए अब सबकी नैतिक जिम्मेदारी है कि इसकी सिफारिशों को लागू करें।

Share
Advertisements

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *