क्यों नहीं बढ़ रही मोटे अनाजों की खेती
सुपर फूड-मोटे अनाज
- डॉ. रवीन्द्र पस्तोर,
सीईओ. ई-फसल
मो. : 9425166766
22 फरवरी 2023, भोपाल । क्यों नहीं बढ़ रही मोटे अनाजों की खेती – हमारे देश में खेती करने के तौर-तरीक़ों में बहुत तेज़ी से परिवर्तन हो रहे हैं। भारत सरकार ने परम्परागत खेती को बढ़ावा देने के लिए अनेक नीतिगत निर्णय लिये हैं तथा बजट में पर्याप्त निधि आवंटित की गई है। जैविक खेती व मोटे अनाजों की खेती के उत्पादों का राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय बाज़ारों में व्यापार बढ़ाने के लिए अथक प्रयास किए जा रहे हैं। बदलते पर्यावरण और बढ़ती जनसंख्या की भरण-पोषण की चिंता के बीच भारत के अनुरोध पर संयुक्त राष्ट्र की ओर से वर्ष 2023 को मिलेट ईयर या मोटे अनाजों का वर्ष घोषित किया गया है। अफ्रीका महाद्वीप सर्वाधिक मोटे अनाजों का उत्पादन करने वाला महाद्वीप है। यहाँ 489 लाख हेक्टेयर में मोटे अनाजों की खेती की जाती है। इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मिलेट्स रिसर्च हैदराबाद के अनुमान के अनुसार भारत एशिया का 80 प्रतिशत व विश्व का 20 प्रतिशत उत्पादन करता है। हरित क्रांति के बाद इन फसलों के क्षेत्रफल में निरंतर कमी आती रही है। एफएओ के अनुसार, वर्ष 2020 में मोटे अनाजों का विश्व उत्पादन 30.464 मिलियन मीट्रिक टन (एमएमटी) था और भारत की हिस्सेदारी 12.49 एमएमटी थी, जो कुल मोटे अनाजों के उत्पादन का 41 प्रतिशत है। भारत ने 2021-22 में मोटे अनाजों के उत्पादन में 27 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की, जबकि पिछले वर्ष यह उत्पादन 15.92 एमएमटी था।
एपीडा के आँकड़ों के अनुसार – मोटे अनाजों का निर्यात बढ़ रहा है। ज्वार, बाजरा, प्रमुख निर्यातक फसलें हैं। इंडोनेशिया, बेल्जियम, जर्मनी, मैक्सिको, इटली, अमेरिका, ब्रिटेन, ब्राज़ील और नीदरलैंड प्रमुख आयातक देश हैं। एपीडा द्वारा मोटे अनाजों के निर्यात को बढ़ावा देने के लिए काम किया जा रहा है। मोटे अनाजों के तहत ज्वार, बाजरा, कंगनी, कोदो, सावां, चेना, रागी, कुटटू, चौलई, कुटकी आदि प्रमुख पौष्टिक फसलें है। इनमें रेशे, बी- कॉम्प्लेक्स विटामिन, अमीनो एसिड, वसीय अम्ल, विटामिन- ई, आयरन, मैगनीशियम, फास्फोरस, पोटेशियम, विटामिन बी- 6 व कैरोटीन ज़्यादा मात्रा में पाये जाते हैं। ग्लूकोज़ कम होने से मधुमेह का ख़तरा कम होता है। इसलिए इन फसलों को सुपर फ़ूड कहते हंै। यह फसलें कम पानी में अर्ध शुष्क क्षेत्रों में उगाई जा सकती हंै तथा जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के परिणाम आसानी से सहन करने की क्षमता रखती है। इनकी रोग प्रतिरोधक क्षमता बहुत अधिक होने से उत्पादन लागत बहुत कम हो जाती है। उच्च पोषण और बेहतर स्वास्थ्य प्रदान करते हुए बदलती जलवायु परिस्थितियों में जीवित रहने की क्षमता के कारण देश में मोटे अनाज को पुनर्जीवित करने में रुचि बढ़ रही है। मोटे अनाज की खेती और विपणन को बढ़ाने की दिशा में विभिन्न एजेंसियों द्वारा कई तरह की पहलों को बढ़ावा दिया जा रहा है। व्यापक प्रभाव के लिए प्रमुख प्राइवेट कम्पनियों, आपूर्ति श्रृंखला के हितधारकों जैसे एफपीओ, स्टार्टअप, निर्यातकों और मोटे अनाजों पर आधारित गुणमूल्य संवर्धित उत्पादों के उत्पादकों के बीच एकीकृत दृष्टिकोण और नेटवर्किंग की महती आवश्यकता है।
दुनिया के अर्ध-शुष्क क्षेत्रों में भोजन और चारे के रूप में मोटे अनाज, छोटे अनाज वाले घास के अनाज का एक समूह महत्वपूर्ण है। भारत में, मुख्य रूप से गरीब और सीमांत किसानों द्वारा और कई मामलों में आदिवासी समुदायों द्वारा शुष्क भूमि में मोटे अनाजों की खेती की जाती रही है। इस देश में मोटे अनाजों की खेती को पुनर्जीवित करने के लिए बढ़ती रुचि पोषण, स्वास्थ्य और लचीलेपन के विचारों से प्रेरित है। ये अनाज शुष्क क्षेत्रों और उच्च तापमान पर अच्छी तरह से बढ़ते हैं; वे खराब मिट्टी, कम नमी और महंगे रासायनिक कृषि आदानों से जूझ रहे लाखों गरीब और सीमांत किसानों के लिए आसान फसलें रही हैं। क्योंकि उनकी कठोरता और अच्छे पोषण की गुणवत्ता के कारण वे वास्तव में जलवायु परिवर्तन को अपनाने के लिए महत्वपूर्ण रणनीति का हिस्सा हो सकते हैं।
मोटे अनाजों के उपयोग में वृद्धि में आने वाली बाधाओं और प्रवृत्तियों को बेहतर ढंग से समझने के लिए, डॉ. एम.एस. स्वामीनाथन रिसर्च फाउंडेशन, एक्शन फॉर सोशल एडवांसमेंट एंड बायोडायवर्सिटी इंटरनेशनल ने 2016 और 2017 में एक अध्ययन किया, जिसमें तमिलनाडु और मध्य प्रदेश में गुणमूल्य श्रृंखला में काम करने वालों को शामिल किया गया। इन फसलों के अनुसंधान और विकास दोनों में लगे प्रमुख हितधारकों के साक्षात्कार लिए गये। जिससे मोटे अनाजों की समस्याओं को समझने में मदद मिली।
अनाजों का बाजार
मोटे अनाजों के उत्पादन में गिरावट के पीछे प्रमुख कारकों में कम फसल उत्पादकता, उच्च श्रम सघनता, फसल कटाई के बाद के कठिन संचालन और आकर्षक फार्म गेट कीमतों की कमी शामिल हैं। सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) के माध्यम से चावल और गेहूं की आसान उपलब्धता ने बाजरा उत्पादक क्षेत्रों में खाद्य खपत पैटर्न के बदलाव में योगदान दिया है। रागी के अपवाद के साथ – जिसके लिए प्रौद्योगिकी ने तेजी से प्रगति की है- मोटे अनाजों के हल से संबंधित कठिन परिश्रम अभी भी स्थानीय उत्पादकों को हतोत्साहित कर रहा है। अन्य अक्षम करने वाले कारकों में शामिल हैं, उत्पाद विकास, व्यावसायीकरण में अपर्याप्त निवेश, और उनके उपभोग से जुड़ी निम्न सामाजिक स्थिति की धारणा। दैनिक आहार में मोटे अनाजों का उपयोग करने के तरीकों के बारे में ज्ञान का अभाव व्यापक है, इसके बावजूद कि उनसे कई प्रकार के व्यंजन बनाए जा सकते हैं। स्थानीय बाजारों में मोटे अनाजों की खराब उपलब्धता, उनके उत्पादों की उच्च कीमतों के साथ-साथ उनकी लोकप्रियता को सीमित कर रही है। हालांकि, सरकार के अनुसार, यह अनुमान है कि मोटे अनाजों का बाजार 2025 तक 9 बिलियन अमेरिकी डॉलर से अधिक के अपने मौजूदा बाजार मूल्य से बढक़र 12 बिलियन अमेरिकी डॉलर से अधिक हो जाएगा। भारतीय बाजरा को बढ़ावा देने के लिए इंडोनेशिया, जापान और यूनाइटेड किंगडम के देशों में क्रेता-विके्रता बैठकें भी आयोजित की जाएंगी। एपीडा खुदरा स्तर पर और लक्षित देशों के प्रमुख स्थानीय बाजारों में भोजन के नमूने और चखने का आयोजन भी करेगा, जहां व्यक्तिगत, घरेलू उपभोक्ता उत्पादों से परिचित हो सकते हैं।
प्रोसेसिंग की बड़ी चुनौती
मोटे अनाजों का कठिन प्रसंस्करण प्रमुख चुनौती है जो उपभोक्ता की मांग और बाज़ार क्षमता बढ़ाने में बाधा डालती है। गुणमूल्य श्रृंखला के कारकों द्वारा प्रसंस्करण संयंत्रों तक पहुंच को सुविधाजनक बनाने के लिए कई हस्तक्षेप किए जा सकते हैं और दूसरी ओर उपभोक्ताओं की प्रसंस्कृत मोटे अनाजों के उत्पादों तक पहुंच बनाई जा सकती है। मोटे अनाजों के खेतों के पास उपयुक्त प्रसंस्करण इकाइयों की कमी के कारण स्थानीय उत्पादकों को अपनी उपज को दूर-दराज के स्थानों पर ले जाने के लिए मजबूर होना पड़ता है। उदाहरण के लिए, धर्मपुरी (तमिलनाडु), कोरापुट (ओडिशा) या डिंडोरी और मंडला जिलों (मध्य प्रदेश) में उत्पादित मोटे अनाज जैसे कोदो व बाजरा को प्रसंस्करण के लिए नासिक (महाराष्ट्र) तक ले जाने की आवश्यकता होती है। इसके कारण गुणमूल्य श्रृंखला में कीमतों में वृद्धि हो जाती है। जिससे उपभोक्ताओं को धान और गेहूं के उत्पादों की तुलना में मोटे अनाजों के खाद्य पदार्थों के लिए अधिक मूल्य का भुगतान करना पड़ता है। इस संबंध में, यह ध्यान रखना दिलचस्प है कि निजी क्षेत्र द्वारा दक्षिणी भारत (जैसे तमिलनाडु में थेनी जिला) और हाल ही में रायपुर (छत्तीसगढ़) में बड़े पैमाने पर क्षेत्रीय प्रसंस्करण इकाइयों की स्थापना का बहुत सकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है। जिससे गुणमूल्य श्रृंखलाओं को छोटा करने और सस्ते उत्पादों के माध्यम से स्थानीय और क्षेत्रीय खपत को बढ़ावा देने में मदद हो रही है। देश के अन्य क्षेत्रों में इसी तरह के हस्तक्षेप से लाभकारी प्रभाव पड़ेगा।
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