कहाँ खड़े हैं हम ‘तथाकथित’ अन्नदाता ?
समझने लायक कुछ खास बातें,जिनका ज्ञान हमें होना चाहिए, तभी तो हम समझ पाएंगे कि आज हमारी स्थिति में दिन प्रति दिन इतना ह्रास क्यों हो रहा है ?
13 अगस्त 2024,भोपाल: कहाँ खड़े हैं हम ‘तथाकथित ‘ अन्नदाता ? – आजादी के समय हम किसानों की आबादी थी 75% थी। अब रह गई 60% । वर्तमान में कुल किसानों की संख्या 72 करोड़। इस वर्ष 2024 देश के कुल बजट की राशि 48.21 लाख करोड़ रुपये। कुल बजट में कृषि एवं सम्बद्ध क्षेत्र के लिए इस वर्ष प्रावधान 1.52 लाख करोड़ रूपए यानी हम 60% की आबादी के लिए देश के कुल बजट में प्रावधान केवल 3.15% विगत वर्ष की तुलना में वृद्धि केवल 0.4 %। हमारी कृषि की लागत बढ़ी 10 % से अधिक। कृषि की विकास दर विगत वर्षों में घटते- घटते 4.6 % से घट कर अब इस वर्ष रह गई केवल 1.8 %। कृषि शोध तीव्रता ( एआरआई) एवं कृषि जीडीपी का अनुपात का अनुपात विगत वर्षों में 0.75% से इस वर्ष घटकर 0.43% रह गया है। यदि हम केवल कृषि की बात करें ( इससे सम्बद्ध क्षेत्र को छोड़ दें) तो 2021 में कुल बजट मे प्रावधान था 4.47 %। पिछले वर्ष और कम हुआ और अब इस वर्ष 2024 में हो गया 2.48% यानी लगभग आधा । जबकि हमारी खेती की लागत में लगातार वृद्धि 10 से 15 % से अधिक की हो रही है।
शासकीय एजेंसी एनएसएसओ की रिपोर्ट के अनुसार किसान की प्रतिदिन की आय केवल 27/- प्रति दिन है। विगत 5 सालों में इसमें कोई वृद्धि नहीं हुई, बल्कि कई राज्यों में घटी है।कृषि की स्टैंडिंग कमेटी की रिपोर्ट के अनुसार किसान की आय दोगुनी होने की बजाय उल्टा कम हुई है। पिछले 5 वर्षो में सरकार ने बजट के प्रावधान का लगभग एक लाख करोड़ रुपये सरेंडर किये यानी वह खर्च नही कर पाई। यानी कृषि के लिए कुल आवंटित बजट में से मैदान में कितना खर्च हुआ हुआ आप स्वयं अंदाज लगा लेवें। ( लगभग 60%)। विडंबना है कि 30 से 40% राशि लेप्स हो गई और हमारी सरकार खर्च नहीं कर पाईं।
इसे एक उदाहरण से समझने का प्रयास करें –
- सौर ऊर्जा की महत्वाकांक्षी पी एम कुसुम योजना में देश में 10 लाख किसानों के यहाँ कृषि पम्प लगाने का प्रावधान था, जिसमें कुल स्वीकृत हुए 1,61,640 सोलर पम्प और लगाए गए केवल एक चौथाई किसानों के यहां।
- एग्रीकल्चर इंफ्रास्ट्रक्चर ( कृषि संसाधन) के लिए विगत पांच वर्षों के लिए प्रावधान किया गया था एक लाख करोड़ खर्च करने का, उसमें से पांच सालों में योजनाएं बनी केवल 35 हजार करोड़ रुपये खर्च की, परन्तु जारी हुए केवल 25 हजार करोड़ रुपये । 10,00 करोड़ रुपये लेप्स हो गए इस तरह हमारे बजट के प्रावधानों के बावजूद भी हमारे ऊपर खर्च कितने हुए आप स्वयं अंदाज लगा लीजिये।
इस वर्ष कितनी कटौती (कुछ बिंदु केवल उदाहरण के लिए समझें)
- पी एम मान धन योजना के लिए विगत वर्ष प्रावधान था 138 करोड़ का, अब रह गया 100 करोड़।
- हमारे देश के यूरिया में इस वर्ष 2000 करोड़ की कटौती।
- आयातित यूरिया के लिए विगत वर्ष प्रावधान था 30 हजार करोड़ का , अब रह गया 22 हजार करोड़। इसमें भी 8 हजार करोड़ की कटौती।
- अन्य खादों के लिए पिछले वर्ष था 32,370 करोड़, अब इस वर्ष रह गया 26,500 करोड़। 5870 की कटौती।
- विदेशों से आयातित अन्य खादों के लिए भी इस वर्ष आवंटन में 9430 करोड़ की कटौती की गई है।
- फ़र्टिलाइजर की दी जाने वाली सब्सिडी में इस वर्ष कटौती 25,711 करोड़ की ।
- पी एम फसल बीमा योजना में इस वर्ष 400 करोड़ की कटौती कर दी गई।
- पी एम फसल योजना में सरकार ने जो प्रीमियम इकठ्ठा किया, उसका किसानों में बाँटा केवल आधा।
- बीमा कंपनियों को विगत वर्षों में फायदा..63,648 करोड़ का।
- ग्रामीण मजदूरों के लिए मनरेगा के बजट में भी कटौती।
- कृषि शोध पर राशि में कोई बढ़ोत्री नहीं, जबकी कृषि अर्थ शास्त्री मानते हैं कि कृषि शोध पर एक रुपये खर्च करने पर 10 रुपये से अधिक का कृषि में फायदा होता है।
अब बात एम.एस. पी. की – आपको पता ही है कि सरकार 23 फसलों की एम एस पी तय करती है, और खरीद होती है केवल 8 -10 फसलों की ही । इसका कितना लाभ हमें मिलता है? कुछ उदाहरण से समझने का प्रयास करें।
- गेहूँ का देश में वर्ष 23- 24 में कुल उत्पादन हुआ 1129 लाख मीट्रिक टन का, और खरीद हुई केवल 262 लाख मे. टन की। यानी खरीद केवल 23% की ही हुई। इसी प्रकार चने की खरीद 0.37% ,मसूर की 14%, सरसों की 9.19%, सूरजमुखी एवं जो की 0 % हुई।..शेष फसल किसान औने पौने दाम में बाजार में बेचने मजबूर हुआ।
अब बात करें फसलों की लागत मूल्य की – कृषि मूल्य आयोग ने नीति आयोग को प्रेषित एक रिपोर्ट मे स्वीकार किया है कि किसानों की प्रांतों की लागत का मूल्यांकन सही नहीं है, प्रांतों में फसल उत्पादन की लागत,समर्थन मूल्य से अधिक है। डॉ स्वामीनाथन के सी 2 पर 50 % को न लेकर यदि उनके दूसरे फॉर्मूले ए 2 + एफ एल को ही लेवें तो सन 24-25 में किसानों को धान में प्रति हेक्टेयर 31.4 % का नुकसान उठाना पड़ा। उड़द में 475/-, सोयाबीन में 4749/-, ज्वार में 718/- प्रति हेक्टेयर का नुकसान सहना पड़ा, इसी प्रकार अन्य फसलों में भी किसान घाटे में खेती कर रहे हैं। इन परिस्थितियों में किसान की समृद्धि की कल्पना या ढिंढोरा क्या बेमानी नहीं है ?
जरा विचार कीजिए –
विगत वर्षो में मैंने नीति आयोग एवं कृषि मूल्य आयोग की कई बैठकों में भाग लिया वहाँ किसानों का पक्ष जोरदारी से रखने के प्रयास किये गये । विडंबना है कि आर्थिक नीतियों पर अफसरशाही और उनकी अलग सोच और मान्यताओं के चलते हमें तो छोड़ दें, सरकार में बैठे हमारे नुमाइंदे भी बेबस नजर आते दिखते हैं। कुल मिलाकर इन सबका आंकलन करने पर यह स्पष्ट समझ में आता है कि खेत – किसान न कभी किसी सरकार की प्राथमिकता में रहा है और न रहेगा। दिन प्रति दिन गिरते इन आंकड़ों से स्पष्ट है कि सरकार की नीति खेती के रकबे और किसानों की संख्या को कम करने की है। घाटे की खेती से आगे आने वाली पीढ़ी बच रही है। किसान इस धंधे से अलग हो रहे हैं । यही नहीं, इस देश में कर्ज में डूबे हर रोज 31 किसान आत्महत्या को मजबूर हो रहे हैं। शायद इस पहलू को हम समझ सकें।
सरकार शायद यह भूल रही है कि अन्नदाता ने ही देश के अन्न के भंडारों को भरा, तभी तो करोना काल में देश की आबादी का पेट भरने में सरकार सफल हो पाई, नहीं तो भुखमरी की एक अन्य त्रासदी से हमें गुजरना पड़ता। अगले पांच सालों तक 80 करोड़ आबादी को मुफ्त अनाज की सुविधा के सरकार के वायदे का क्या होगा, यदि किसान खेती करना बंद कर दें ? हमेशा हमें यह कह कर दबाया जाता है कि किसान से टैक्स नहीं लिया जाता, जबकि सच्चाई यह है कि किसान अप्रत्यक्ष रूप से हर वस्तु पर टैक्स देते हैं , चाहे वह खाद हो, डीजल हो, यंत्र हों, आदान सामग्री हों। रोटी कपड़ा, मकान , रोज मर्रा की वस्तुएं हों सबके टेक्स का भुगतान वह करता है । किसान का देश की आर्थिक उन्नति में भी उतना ही योगदान है। किसानों के द्वारा भरे गये अन्न के भण्डारों के कारण बड़ी बड़ी बातें। खाली पेट होते तो शायद इसमें कमी आती। भगवान न करे वह स्थिति आए ।
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