राज्य कृषि समाचार (State News)

सोयाबीन एमएसपी से कम मूल्य पर न बिके

02 सितम्बर 2024, भोपाल: सोयाबीन एमएसपी से कम मूल्य पर न बिके – इन दिनों सोयाबीन उत्पादक किसान सोयाबीन की कीमतों को लेकर काफी परेशान हैं। सोशल मीडिया पर किसान सोयाबीन का मूल्य न्यूनतम समर्थन मूल्य से करीब हजार रुपए तक कम होने को लेकर आशंकित हो रहे हैं। उन्हें यह डर सता रहा है कि यदि न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम दरों पर सोयाबीन की बिक्री होती है तो उन्हें बहुत नुकसान होगा। इससे उत्पादन की लागत भी नहीं निकल पाएगी। किसानों का सबसे बड़ा दर्द यह है कि बीज, खाद और दवाइयों की कीमत में अत्यधिक वृद्धि हो गई है जिससे उत्पादन लागत भी काफी बढ़ गई है। इस कारण सोयाबीन की कम कीमत मिलने से नुकसान ही होगा। यदि लागत में किसान स्वयं अपनी और परिवार के सदस्यों की मेहनत को जोड़ दें तो लागत और उपज बेचने से प्राप्त राशि लागत के आसपास ही रहेगी। ऐसी स्थिति में किसानों के लिए असहज स्थिति उत्पन्न हो सकती है।

चूंकि किसान असंगठित हैं। लघु और सीमांत किसानों की संख्या सर्वाधिक यानी करीब 85 प्रतिशत है। अपनी जरूरत के लिए उपज को तुरंत ही बेचना उनकी मजबूरी रहती है इसलिए अधिकांश सोयाबीन उत्पादक किसानों के चेहरे पर चिंता की लकीरें खिंच गई हैं। इसका एक प्रमुख कारण यह भी है कि आमतौर पर फसल पकने के पहले पुरानी उपज की कीमतें अधिक होती हैं लेकिन सोयाबीन के मामले में स्थिति एकदम उलट है। अभी वर्तमान में सोयाबीन का बाजार भाव 4000 से लेकर 4300 रूपये के आसपास चल रहा है जबकि केंद्र सरकार ने न्यूनतम समर्थन मूल्य 4895 रूपये प्रति क्विंटल निर्धारित किया है। सोयाबीन का वर्तमान बाजार भाव दस साल पहले के स्तर के आसपास ही है। अब जबकि नई फसल एक-डेढ़ माह के बाद आ जाएगी। यदि कीमतों को लेकर कोई प्रयास नहीं किये गये तो किसानों का असंतोष बढ़ेगा और स्थिति अनियंत्रित हो सकती है। यह सम्भावना इसलिये बढ़ रही है कि भारतीय किसान संगठन ने सोयाबीन की मंडी में बिक्री 6000 रूपये प्रति क्विंटल करने की मांग की है और अपनी मांग पूरी नहीं होने पर आंदोलन करने की चेतावनी दी है।

भारत अपनी घरेलू खपत का करीब 50 प्रतिशत से अधिक खाद्य तेल का आयात करता है। दलहन के क्षेत्र में तो आत्मनिर्भरता के करीब पहुंच गए हैं लेकिन तिलहन के उत्पादन के मामले में अभी बहुत कुछ करना बाकी है। खाद्य तेल के लिए सोयाबीन, मूंगफली, सरसों और सूरजमुखी मुख्य स्रोत हैं। इनमें सोयाबीन और सरसों प्रमुख तिलहन है। यदि सोयाबीन की घरेलू बाजार में कीमतें नहीं बढ़ती हैं तो सोया उत्पादक किसान अन्य फसल लगाने के लिए मजबूर हो सकते हैं। चुनाव के मद्देनजर तेलों की कीमतों में स्थिरता रखने के उद्देश्य से इंपोर्ट ड्यूटी को कम कर दिया था और इसे अगले वर्ष 2025 तक लागू रहने का निर्णय लिया है। इस निर्णय से घरेलू बाजार में सोयाबीन की कीमतें बढ़ने के कोई आसार नहीं है। भारत में सोयाबीन का मुख्यतः उपयोग खाद्य तेल के लिए किया जाता है। इसके सह खाद्य पदार्थ जैसे बड़ी, दूध, टोफू, बिस्किट, नमकीन, रसगुल्ला आदि बनाए तो जा रहे हैं लेकिन इनमें सोया बड़ी ही सबसे ज्यादा उपयोग में लाई जा रही है। प्रोटीन से भरपूर सोयाबीन का उपयोग कुपोषण जैसी विकराल समस्या से निजात पाने में भी किया जा सकता है। सोया खाद्य प्रसंस्करण को बढ़ावा और इसमें किसानों की भागीदारी सुनिश्चित करने से सोयाबीन की ग्रामीण क्षेत्रों में भी खपत बढ़ेगी। सोयाबीन से तेल निकालने के बाद खली का निर्यात कर दिया जाता है जबकि घरेलू बाजार में इसकी काफी मांग होती है। ऐसी स्थिति में सोयाबीन का रकबा और उत्पादकता बढ़ाकर खाद्य तेलों में आत्मनिर्भरता की ओर कदम बढ़ाने की सख्त जरूरत है। लेकिन मूल समस्या सोयाबीन की कीमत को लेकर है। जब भी देश में खाद्य तेल की कमी की आशंका होती है, इम्पोर्ट ड्यूटी कम करके आयात कर लिया जाता है। इससे घरेलू बाजार में कीमतें तो स्थिर रहती हैं लेकिन किसानों को उनकी उपज का उचित मूल्य नहीं मिल पाता है। सरकार को इस दिशा में गंभीर प्रयास करने चाहिए। सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा सोयाबीन के उत्पादन की लागत में कमी करने और किसानों को सोयाबीन का कम से कम न्यूनतम समर्थन मूल्य मिलने का है। यदि ऐसा करने में सरकार सफल रहती है तो यह किसानों के हित में है वरना सोयाबीन उत्पादक किसान खरीफ की अन्य फसलों के विकल्प का चयन करने से परहेज नहीं करेंगे। सोया स्टेट के नाम से प्रसिद्ध मध्यप्रदेश में सोयाबीन का रकबा करीब 55 लाख हेक्टेयर है जिसके इस साल करीब 7 लाख हेक्टेयर कम होने की सम्भावना जताई गयी है। यदि यह सही है तो सरकार को इस दिशा में गम्भीरतापूर्वक विचार करना होगा।

केंद्र सरकार ने सोयाबीन सहित अन्य अधिसूचित खरीफ और रबी की फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित किए हैं तो सरकार की यह जिम्मेदारी बन जाती है कि अधिसूचित कृषि उपज न्यूनतम समर्थन मूल्य से बाजार में कम दाम पर नहीं बिके। यदि कम कीमत पर बिकती है तो किसानों को मुआवजा मिलना चाहिए। मध्यप्रदेश सरकार ने कुछ साल पहले ऐसी स्थिति से निपटने के लिए भावांतर योजना शुरू की थी लेकिन व्यापारियों और बिचौलियों ने जानबूझकर कीमतों को न्यूनतम समर्थन मूल्य से काफी कम रहने दिया जिसका सरकार को काफी आर्थिक नुकसान भी उठाना पड़ा था। जब सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित करती है है तो इसमें खाद, बीज, दवाई, मजदूरी सहित अन्य खचों को ध्यान में रखा जाता है। यदि न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम कीमत मिलती है तो निश्चित ही किसानों को काफी नुकसान होगा। ऐसी स्थिति में सरकार को हस्तक्षेप करना चाहिए ताकि न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम कीमत पर कृषि उपज की खरीदी ना हो। सरकार चाहे तो गेहूं की तर्ज पर सोयाबीन की खरीदी कर सकती है। सरकार ने दलहन के क्षेत्र में आत्मनिर्भरता की ओर कदम बढ़ाते हुए अरहर की खरीदी करने का निर्णय लिया है। इसी तरह खाद्य तेल के क्षेत्र में भी आत्मनिर्भरता के लिए तिलहन खासतौर से सोयाबीन की न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीदी कर ली जाए तो इसमें उल्लेखनीय सफलता मिल सकती है।

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