State News (राज्य कृषि समाचार)

सोयामील आयात पर सोपा और कुक्कुट उद्योग आमने-सामने

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सोयाबीन के वायदा बाजार ने वास्तविक बाजार को चौपट किया

(मोहन जोशी )

7 दिसम्बर 2021, इंदौर । सोयामील आयात पर सोपा और कुक्कुट उद्योग आमने-सामने – पोल्ट्री इंडस्ट्रीज द्वारा जीएम सोयाबीन मील के आयात को जारी रखने का मुद्दा इन दिनों चर्चा में है। एक तरफ सोयाबीन प्रोसेसर्स एसोसिएशन ऑफ इंडिया (सोपा) इसका पुरजोर विरोध कर रहा है, वहीं दूसरी तरफ पोल्ट्री फेडरेशन ऑफ इंडिया ने अपनी बात रखते हुए सोयाबीन मील के आयात को जायज ठहराया है।

सोपा की प्रेस विज्ञप्ति में सोपा के कार्यकारी निदेशक श्री डी.एन. पाठक के अनुसार देश में सोयाबीन मील की मांग और आपूर्ति की स्थिति बहुत अच्छी है। आयात करने की कोई आवश्यकता नहीं है। इस वर्ष सोयाबीन की फसल बहुत अच्छी रही है और सरकार द्वारा जारी पहले अग्रिम अनुमान के अनुसार 127.20 लाख टन होने का अनुमान है। सोयाबीन की फसल का सोपा का अनुमान 119 लाख टन है। पहले कभी सोयाबीन मील का आयात नहीं किया और स्थानीय स्तर पर मांग को पूरा करते रहे हैं। उन वर्षों में भी जब सोयाबीन की फसल कम थी, आयात की आवश्यकता नहीं थी।

सोपा ने कुक्कुट उद्योग के सोयाबीन मील की खपत के आंकड़ों बहुत ज़्यादा बढ़े हुए बताते हुए कहा कि इस साल अक्टूबर में 70 लाख टन की मांग का अनुमान लगाया है, जिसे उन्होंने बिना किसी आधार या तथ्यों और आंकड़ों के अचानक संशोधित कर 90 लाख टन कर दिया है। सोयाबीन की कीमतों में वृद्धि सोयाबीन प्रोसेसर के हाथ में नहीं है। सोपा, सोयाबीन वायदा की जमाखोरी और अनुचित अटकलों का मुद्दा पहले भी उठा चुका है। पोल्ट्री उद्योग सोयाबीन मील के आयात की मांग विदेशों में खाने की कम कीमतों के कारण है। सोयाबीन, सोया प्रसंस्करण उद्योग के लिए कच्चा माल है और मील की कीमतें पूरी तरह सोयाबीन की कीमतों पर निर्भर हैं। किसानों को पोल्ट्री उद्योग द्वारा वांछित एमएसपी पर सोयाबीन बेचने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता है। सोयाबीन किसानों को भी उतनी ही आजीविका का अधिकार है, जितना कि पोल्ट्री किसानों को लाभकारी मूल्य मिलता है। एक उद्योग की मदद के लिए, दूसरे जुड़े उद्योग को बंद करने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता है। अधिकांश पोल्ट्री उद्योग बड़े कॉरपोरेट्स के हाथों में है, जिसमें किसान तो छोटा खिलाड़ी है। यदि सोयाबीन मील को केवल इसलिए आयात करने की अनुमति दी जाती है, क्योंकि सोयाबीन मील की कीमतें आयातित मील की कीमतों से अधिक हैं, तो सोयाबीन उद्योग का कोई बाजार ही नहीं रहेगा। आयातित सोयाबीन मील की कीमतों की तुलना करते समय, हमें आयातित सोयाबीन की कीमतों की तुलना में भारतीय सोयाबीन की कीमतों को भी ध्यान में रखना होगा। कुक्कुट उद्योग की मांग पूरी तरह एक तरफा है, इसमें दूसरे उद्योग और उससे जुड़े किसानों की अनदेखी की जा रही है। यदि इन मुद्दों पर तत्काल कार्रवाई की जाती है, तो उम्मीद है कि कीमतें उचित स्तर तक जाकर स्थिर हो जाएंगी।

सोयाबीन आयात के एक अन्य विश्लेषण में केंद्र सरकार से पोल्ट्री इंडस्ट्रीज द्वारा आयात का समय बढ़ाने के आवेदन पर त्वरित निर्णय लेकर बाजार में जारी अनिश्चितता को खत्म करने की मांग की गई है, ताकि सोयाबीन में आई सट्टात्मक गिरावट पर स्थायी रोक लग सके। पोल्ट्री इंडस्ट्रीज की इस मांग को पूरा करने से किसानों का बहुत नुकसान होगा। मिसाल के तौर पर हाल ही में वायदा कारोबार में 8.32 प्रतिशत मंदी का सर्किट लगने से हाजर में लेवाल पीछे हट गए और सोयाबीन के भावों में 400-500 रुपए की गिरावट आ गई। केंद्र द्वारा आयात शुल्क में भारी छूट देने के बाद भी सोया तेल सस्ता नहीं होने पर सवाल उठाते हुए सोयाबीन के दाम 7-8 हजार रुपए/क्विंटल होने की पैरवी की गई है। उल्लेखनीय है कि पोल्ट्री इंडस्ट्रीज को आयात की अनुमति तब दी थी जब देश में सोयाबीन की भारी कमी थी। लेकिन अब हालात बदल चुके हैं। सोयाबीन की फसल आ चुकी है। पोल्ट्री इंडस्ट्रीज को आयात की अनुमति एक समय सीमा के लिए दी गई थी। 12 लाख टन में से उन्होंने मात्र साढ़े छ: लाख टन का ही आयात किया। यह उनकी कमी थी। ऐसे में फिर समय बढ़ाए जाने से सोयाबीन कारोबार पर विपरीत असर पड़ेगा। जबकि पोल्ट्री इंडस्ट्रीज वाले सस्ता सोयाबीन लाकर भी पोल्ट्री उत्पाद सस्ते में नहीं बेचेंगे।

दूसरी तरफ पोल्ट्री फेडरेशन ऑफ इंडिया के अध्यक्ष श्री रमेशचंद्र खत्री सोनीपत ने इसे उचित ठहराते हुए कृषक जगत से कहा कि पिछले दो साल में पोल्ट्री इंडस्ट्रीज को बहुत नुकसान हुआ है। कई लोगों ने यह धंधा बंद कर दिया है। मक्का, बाजरा, चावल की चुरी के दाम बढऩे से लागत खर्च बहुत बढ़ गया है। पोल्ट्री इंडस्ट्रीज को जिंदा रखने के लिए यह जरूरी है। डीओसी का 80 प्रतिशत खरीदार पोल्ट्री इंडस्ट्रीज है। यदि यह उद्योग तबाह हो गया तो खरीदार कौन रहेगा? एक मुर्गी को तैयार करने में दो हजार का खर्च आता है। मुर्गी 6 महीने में अंडे देती है, तब आवक शुरू होती है। मुर्गी आहार में पोल्ट्री वालों को 8-10 रुपए किलो का नुकसान हुआ है। सोपा वालों का विरोध अनुचित है, क्योंकि हर धंधे का अपना सिस्टम होता है। यदि ऐसा है तो करीब 15 दिन पहले 35 में बिकने वाली डीओसी 65 तक कैसे पहुंच गई ? किसानों की आड़ में सब कमा रहे हैं। छोटे किसान जो अलग से एक एकड़ में 5 हजार की लागत से मुर्गी पालन करते हैं, उनका ध्यान रखना भी जरुरी है, अन्यथा ऐसे छोटे लोग बर्बाद हो जाएंगे। किसानों को फसल का उचित दाम मिले इससे इंकार नहीं है, लेकिन खेती लागत की सही गणना भी होनी चाहिए।  सोयाबीन का समर्थन मूल्य 3950 रु/क्विंटल है, जबकि यह 4500 से 5 हजार रु क्विंटल से भी ज़्यादा भाव में बिकती है। व्यापारी कम दाम में सोयाबीन खरीदकर स्टॉक कर लेते हैं और फिर उसे ऊँचे दाम पर बेचते हैं। हम भी किसान हैं। किसानों की तकलीफ समझते हैं। यह सही है कि वायदा बाजार ने पूरे वास्तविक बाजार को खराब कर दिया है। जहां तक 12 लाख टन में से मात्र साढ़े छ: लाख टन का ही आयात करने का सवाल है, तो तब समय कम था इसलिए पूरा आयात नहीं कर पाए थे। इसलिए समय बढ़ाने की मांग की गई है। हम भी यही चाहते हैं कि देश के किसान, मुर्गीपालक और उद्योगपति सभी को लाभ हो। लेकिन दूसरों के हितों का नुकसान करके नहीं।

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