प्राकृतिक खेतीः कर्जमुक्त जहरमुक्त खेती
लेखक – डॉ राजेश कुमार दाधीच, फार्म प्रमुख, एनएससी,के.रा.फार्म सरदारगढ़, जिलाः-श्रीगंगानगर
18 अगस्त 2025, भोपाल: प्राकृतिक खेतीः कर्जमुक्त जहरमुक्त खेती – हरित क्रांति के बाद खाद्यान्न उत्पादन में वृद्धि अवश्य हुई, लेकिन उर्वरकों और रसायनों के अंधाधुंध व अधिक प्रयोग से मृदा स्वास्थ्य, प्रकृति, पर्यावरण व मानव स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। प्रकृति के अनुकूल कार्य करना हमारी संस्कृति थी लेकिन प्रकृति के विरुद्ध कार्य करने से पर्यावरण एवं मृदा स्वास्थ्य पर पडे़ कुप्रभाव हमारे अंदर पैदा हुई विकृति को दर्शाते हैं लेकिन पिछले दशकों से हमने प्रकृति के विपरीत कार्य किया जैसे मृदा में गोबर, एफवाईएम इत्यादि का प्रयोग अतिअल्प करना, फसल अवशेषों को मिट्टी में नहीं मिलाना, हरी खाद एवं वानिकी पौधों का रोपण ना करने से कार्बनिक पदार्थ घटे हैं तथा यांत्रिकीकरण की होड में मृदा में अत्यधिक जुताई से लाभदायक जीवाणु कम हुए हैं फसल चक्र एवं मिश्रित खेती नहीं अपनाने, मल्चिंग नहीं करने से उत्पादन में कमी आई है।
देशी गाय का गोबर एवं गौमूत्र प्राकृतिक खेती का आधार है। इसलिए ही गाय को माता कहा जाता है। खेती के साथ पशुपालन में कमी आई है, जिससे गोबर गोमूत्र का प्रयोग खेती में घटा है। खेती में कीट एवं व्याधि नियंत्रण हेतु रसायनों का प्रयोग अत्यधिक बढ़ा है जिससे मित्र कीटों की संख्या में पर्याप्त कमी आई है साथ ही स्थानीय जलवायु के अनुकूल रोग प्रतिरोधक, आनुवांशिक और भौतिक रूप से शुद्ध बीजों का प्रयोग भी बहुत कम किसान कर रहे हैं, ऐसी स्थिति में खेती में लागत बढ़ रही है, मिट्टी बंजर हो रही है, मृदा अपरदन बढ़ रहा है उपज की गुणवत्ता कम हो रही है। ग्लोबल वार्मिंग बढ़ रही है जिससे मृदा जल की हानि हो रही है मित्र कीटों की संख्या घट रही है यह हमारे अंदर प्रकृति के विरुद्ध कार्य करके विकृति पैदा हुई है उक्त वर्णित सभी समस्याओं का हल प्राकृतिक खेती में निहित है प्राकृतिक खेती यानी रसायन मुक्त खेती अथवा बिना कर्ज, बिना जहर खेती। प्राकृतिक खेती में किसानों के खेतों में उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों जैसे देसी गाय का गोमूत्र, गोबर, गुड़, बेसन, नीम इत्यादि का प्रयोग खेती में किया जाता है जिससे पर्यावरण, प्राकृतिक एवं उत्पादित खाध पर केमिकल के प्रभाव को कम एवं संपूर्ण रूप से खत्म किया जा सकता है हम आज नहीं संभले तो आने वाली पीढ़ीयों को ना केवल हम बंजर जमीन देके जायेंगें साथ ही हमारी आगे आने वाली पीढ़ीयां हमें कभी माफ नहीं करेगी।
प्राकृतिक खेती से न केवल गुणवत्ता युक्त अधिक उपज प्राप्त होती है एवं खेती में लागत भी कम आती है, प्रकृति और पर्यावरण का संतुलन बना रहता है गुणवत्ता युक्त उपज प्राप्त होने से बाजार में मांग अधिक और अच्छी दर मिलने से अधिक फायदा होता है, मृदा स्वास्थ्य बढ़ता है मित्र कीटों की संख्या बढ़ती है पानी की मात्रा में लगभग 50% बचत होती है ग्लोबल वार्मिंग को कम करने में प्राकृतिक खेती अहम रोल अदा करती है देसी गाय के गोबर में लगभग 16 पोषक तत्व होते हैं गोमूत्र की महक से किसान का सच्चा मित्र केंचुआ आकर्षित होता है सिंचाई के अंतराल में वृद्धि होती है पौधों से दूर नाली के माध्यम से सिंचाई करने से न केवल जडें विकसित होती है साथ ही पानी की बचत होती है। प्राकृतिक खेती से मृदा में जलधारण क्षमता बढ़ती है, प्रदूषण कम होता है मृदा स्वास्थ्य अच्छा रहता है मृदा अपरदन कम होता है। देसी गाय के गोबर में लगभग 300 करोड़ लाभप्रद जीवाणु होते हैं जो कि वातावरण की नाइट्रोजन को नाइट्रेट में परिवर्तित करते हैं रसायन खेती से मृदा सख्त होने से देश में बाढ़ आ रही है प्राकृतिक खेती से मिट्टी पोली होने से पानी मृदा में नीचे तक जाएगा बाढ़ का खतरा कम होगा साथ ही भीषण गर्मी में भी फसल एवं पौधे जीवित रहेंगें। मृदा में कार्बनिक पदार्थ कम होने के कारण मृदा की पीएच अधिक हो जाती है, जिससे सूक्ष्म पोषक तत्व जैसे जिंक आयरन मृदा में उपलब्ध रहते हुए भी अप्राप्य अवस्था में मृदा में रहते हैं इससे फसल को पोषक तत्व प्राप्त नहीं हो पाते हैं। ट्यूबवेल का पानी भी क्षारीय हो जाता है एवं सिंचाई के लिये प्रयोग में नहीं लाया जा सकता है। फर्टिलाइजर एसोसिएशन ऑफ इंडिया की रिपोर्ट में मृदा में उर्वरकों के माध्यम से सप्लाई की जा रही नाइट्रोजन फास्फोरस की मात्रा मानकों से अधिक हो चुकी है जिससे मानव स्वास्थ्य के ऊपर विषाक्त प्रभाव पड़ रहा है कैंसर के मामले बढ रहे हैं। प्राकृतिक खेती में किसान बंधु अपने खेत में उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों से निम्न सिंद्धातों को अपनाकर कम लागत में अधिक गुणवत्तायुक्त उपज प्राप्त कर सकते हैं एवं प्रकृति और पर्यावरण को भी संतुलित रख सकते हैं एवं मृदा एवं मानव स्वास्थ्य को भी उत्तम रख सकते हैंः-
- किसान भाईयों को मृदा में कार्बनिक पदार्थों एवं लाभदायक जीवाणुओं की मात्रा को बढ़ाने के लिए उर्वरकों के स्थान पर जीवामृत(500 लीटर प्रति हैक्टयर सिंचाई के बाद) एवं घनजीवामृत (10 कुण्टल प्रति हैक्टयर बीजाई से पूर्व) का प्रयोग करना चाहिए क्योंकि जीवामृत एवं घनजीवामृत देसी गाय के गोबर एवं गौमूत्र से ही तैयार किया जाता है जो कि लाभदायक जीवाणुओं की वृद्धि करने में सक्षम है।
जीवामृत बनाने की विधि:
सामग्री:1. गोबर (देशी गाय का) – 10 किग्रा2. गोमूत्र (देशी गाय का) – 10 लीटर3. गुड़ – 2 किग्रा4. बेसन (चना या मूंग का) – 2 किग्रा 5. मिट्टी (फसल की मिट्टी) – थोड़ी मात्रा में
विधि:1. एक बड़े बर्तन में 200 लीटर पानी लें।2. इसमें गोबर, गोमूत्र, गुड़ और बेसन मिलाएं।3. अच्छी तरह मिलाकर बर्तन को छाया में रखें।
4. 7-10 दिन तक मिश्रण को मिलाते रहें। 5. मिश्रण को घोलकर जीवामृत तैयार करें।
उपयोग:1. जीवामृत को फसलों में उपयोग करने से मिट्टी की गुणवत्ता में सुधार होता है।2. पौधों की वृद्धि और उत्पादन में वृद्धि होती है।
फायदे:1. जीवामृत एक प्राकृतिक और जैविक उर्वरक है। 2. यह मिट्टी की उर्वरता बढ़ाता है और पौधों को पोषक तत्व प्रदान करता है।
घनजीवामृत बनाने की विधि:
सामग्री:1. 100 किग्रा गोबर (देशी गाय का)2. 2 किग्रा बेसन (चना या मूंग का)3. 2 किग्रा गुड़4. 10-20 लीटर गोमूत्र (देशी गाय का)5. मिट्टी (फसल की मिट्टी)
विधि:1. गोबर, बेसन और गुड़ को मिलाकर एक मिश्रण बनाएं।2. इसमें गोमूत्र मिलाकर अच्छी तरह मिलाएं।3. मिश्रण को 3-4 दिन तक छाया में रखें और नियमित रूप से मिलाते रहें।4. मिश्रण को सुखाकर घनजीवामृत बनाएं।5. घनजीवामृत को सुखाकर स्टोर करें और आवश्यकता अनुसार उपयोग करें।
उपयोग:
1. घनजीवामृत को मिट्टी में मिलाकर फसलों की वृद्धि और उत्पादन बढ़ा सकते हैं।2. यह मिट्टी की गुणवत्ता में सुधार करता है और पौधों को पोषक तत्व प्रदान करता है।
फायदे:1. घनजीवामृत एक प्राकृतिक और जैविक उर्वरक है। 2. यह मिट्टी की उर्वरता बढ़ाता है और फसलों की उत्पादकता में सुधार करता है।
- किसान भाई फसलों की कटाई के पश्चात फसल अवशेषों को ना जलायें इससे ना केवल लाभदायक जीवाणु नष्ट होते हैं साथ ही गायों के लिए चारा भी अनुपलब्ध हो जाता है इसलिये फसल अवशेषों को मृदा में मिला दें जिससे फसल अवशेष सड़कर मृदा में कार्बनिक पदार्थों की मात्रा में वृद्धि कर सकें।
- मल्चिंग करने से ना केवल मृदा जल को वाष्पीकरण से बचाया जा सकता है साथ ही मृदा का तापमान भी गर्मी में ठण्डा एवं सर्दियों में अपेक्षाकृत गर्म रहता है। खरपतवारों में भी कमी लायी जा सकती है। अत्यधिक वर्षा के समय मृदा अपरदन कम होता है। मृदा स्वास्थय अच्छा रहता है। कीट व्याधियांे का प्रकोप कम होता है। फसल परिपक्वन अवस्था के समय फसल अवशेषों से की गई मल्चिंग लाभदायक जीवाणुओं के भोजन का भी स्त्रोत होती है।
- न्यूनतम जुताई एक कृषि पद्धति है जिसमें मिट्टी की जुताई को कम से कम किया जाता है या बिल्कुल नहीं किया जाता है। इसका उद्देश्य मिट्टी की संरचना और उर्वरता को बनाए रखना है न्यूनतम जुताई से मिट्टी की संरचना बनी रहती है, जिससे मिट्टी का क्षरण कम होता है। न्यूनतम जुताई से मिट्टी में जैविक पदार्थों का संचयन होता है, जिससे मिट्टी की उर्वरता बढ़ती है। न्यूनतम जुताई से मिट्टी में जल का संचयन बढ़ता है, जिससे फसलों को पर्याप्त जल मिलता है। न्यूनतम जुताई से ईंधन की खपत कम होती है, जिससे किसानों का खर्चा कम होता है। न्यूनतम जुताई से मिट्टी का क्षरण और जल प्रदूषण कम होता है, जिससे पर्यावरण का संरक्षण होता है। मृदा में लाभदायक जीवाणुओं की संख्या में वृद्धि होती है।
- हरी खाद एक प्राकृतिक और जैविक तरीका है हरी खाद के रूप में ढैंचा ग्वार मूंग उडद तिल सनई इत्यादि को उगाकर जमीन में मिलाने से मृदा में कार्बनिक पदार्थों की मात्रा में वृद्धि होती है एवं मिट्टी की उर्वरता बढ़ती है। यह एक प्रभावी तरीका है जिससे मिट्टी की गुणवत्ता में सुधार होता है और फसलों की उत्पादकता बढ़ती है। हरी खाद से मिट्टी में जैविक पदार्थों की मात्रा बढ़ती है, जिससे मिट्टी की उर्वरता में सुधार होता है। हरी खाद में नाइट्रोजन की मात्रा अधिक होती है, जो मिट्टी में नाइट्रोजन का संचयन करती है। हरी खाद से मिट्टी की संरचना में सुधार होता है, जिससे मिट्टी का जल धारण क्षमता बढ़ती है। हरी खाद के उपयोग से रासायनिक उर्वरकों की आवश्यकता कम होती है, जिससे पर्यावरण प्रदूषण कम होता है। हरी खाद से फसलों की उत्पादकता में वृद्धि होती है, जिससे किसानों की आय बढ़ती है।
- खेत के चारों तरफ शीशम, खेजड़ी, नीम, आक, ग्लिरिसिडिया, कदंब, देशी बबूल इत्यादि वृक्षों को लगाने से वानिकी पौधे मिट्टी को स्थिर रखने में मदद करते हैं, जिससे मिट्टी का क्षरण कम होता है। वानिकी पौधे वातावरणीय संतुलन बनाए रखने में मदद करते हैं, जिससे तापमान और आर्द्रता का स्तर नियंत्रित रहता है। वानिकी पौधे जैव विविधता का संरक्षण करने में मदद करते हैं, जिससे विभिन्न प्रकार के जीव-जन्तुओं को आश्रय मिलता है। वानिकी पौधे फसलों को तेज हवा और तूफान से बचाने में मदद करते हैं। वानिकी पौधों से लकड़ी, फल और अन्य उत्पाद प्राप्त हो सकते हैं, जिससे किसानों को अतिरिक्त आय मिलती है। मृदा जलधारण क्षमता बढ़ेगी एवं लाभदायक जीवाणुओं की संख्या बढ़ेगी तथा पेड़ों पर मित्र पक्षी बैठेंगें एवं लट इत्यादि कीटों को खायेंगें जिससे हानिकारक कीटों का जैविक नियंत्रण होगा। मृदा का पीएच मान कम होगा। उत्पादन बढ़ेगा पोषक तत्व बढ़ेंगे
- कवर क्रॉप एक कृषि पद्धति है जिसमें मुख्य फसल के अलावा अन्य फसलें जैसे धान की भूसी, मूंग उडद तिल रेपसीड इत्यादि उगाई जाती हैं जो मिट्टी को ढकती हैं और उसकी सुरक्षा करती हैं।कवर क्रॉप मिट्टी को स्थिर रखने में मदद करता है, जिससे मिट्टी का क्षरण कम होता है। कवर क्रॉप मिट्टी में जैविक पदार्थों की मात्रा बढ़ाता है, जिससे मिट्टी की उर्वरता में सुधार होता है। कवर क्रॉप खरपतवारों को बढ़ने से रोकता है, जिससे फसलों को अधिक पोषक तत्व मिलते हैं। कवर क्रॉप मिट्टी में जल का संचयन बढ़ाता है, जिससे फसलों को पर्याप्त जल मिलता है। कवर क्रॉप जैव विविधता का संरक्षण करने में मदद करता है, जिससे विभिन्न प्रकार के जीव-जन्तुओं को आश्रय मिलता है। कवर क्रॉप, फसल चक्र अपनाने, इंटरक्रॉपिंग लगाने से खेत में खरपतवार कम होगी मृदा स्वास्थ्य बढ़ेगा कार्बनिक पदार्थ बढ़ेंगे मृदा अपरदन कम होगा रसायनों पर लगने वाला खर्चा कम होगा। लागत घटेगी एवं खेती में लाभ बढे़गा।
- विविध फसल प्रणाली जैसे बहुफसलों को लगाने, अंतर फसल लगाने, फसल चक्र अपनाने से समग्र रूप से प्रति हेक्टयेर उत्पादन बढ़ता है। मृदा की जलधारण क्षमता बढ़ेगी, मृदा स्वास्थ्य बढ़ेगा, मित्र कीटों की संख्या बढ़ेगी, लागत कम आयेगी, खेती में शुद्ध लाभ बढ़ेगा खरपतवार घटेगी। भूमि के उपर एवं भूमि के नीचे के संसाधनों जैसे प्रकाश, पोषक तत्व, मृदा जल इत्यादि के उपयोग में सुधार होगा। मृदा स्वास्थय अच्छा रहता है। कीट व्याधियांे का प्रकोप कम होता है। खेती में वित्तीय जोखिम की संभावना कम होगी। फसलों को जलवायु परिवर्तनशीलता के अनुकूल ढलने में मदद मिलती है। बहुफसली कृषि जैव विविधता को बढ़ावा देती है और पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं का समर्थन करती है।
- गाय हमारी माता है। गोबर में 16 पोषक तत्व होते हैं। 01 ग्राम गोबर- लगभग 300 करोड़ लाभदायक जीवाणु होते हैं। गौमूत्र से केंचुआं आकर्षित होते हैं भारतीय केंचुआ कम एवं ज्यादा दोनो तापमान को सहन कर सकता है। साथ ही भारतीय केंचुआ गोबर के साथ मिट्टी भी खाता है मृदा को उपजाऊ एवं पोली बनाता है जिससे मृदा में वायु संचार अच्छा होता है मृदा की जलधारण क्षमता बढ़ती है। कार्बनिक पदार्थ बढ़ते हैं एवं मित्र कीट बढ़ते हैं इसलिए किसान को खेती के साथ देशी गाय का पालन भी करना चाहिए।
- किसान भाईयों को कीट व्याधि नियंत्रण हेतु प्राकृतिक तरीकों से प्रबंधन करना चाहिए जैसे स्टीकी टैªप स्टीकी येल्लो टैªपए लाइट टैªप टैªप क्रॉप, फोरामेंन टैªप इत्यादि। हानिकारक कीटों के नियंत्रण हेतु मित्र कीटों से जैविक नियंत्रण एवं किसान भाईयों को हानिकारक कीट व्याधि नियंत्रण हेतु प्राकृतिक तरीके से तैयार किये गये नीमास्त्र, ब्रह्मास्त्र एवं दशपर्णी का प्रयोग करना चाहिएः.
दशपर्णी बनाने की विधि: सामग्री:1. 10 प्रकार के पत्ते (दशपर्णी के लिए उपयुक्त पत्ते जैसे कि नीम, करंज, आक, आदि)2. गोमूत्र (10 लीटर)3. गोबर (2 किग्रा)4. बेसन (1 किग्रा) 5. गुड़ (1 किग्रा) विधि:1. 10 प्रकार के पत्तों को इकट्ठा करें और उन्हें पानी में उबालकर एक घोल बनाएं। 2. इस घोल को ठंडा करके गोमूत्र, गोबर, बेसन और गुड़ मिलाएं। 3. मिश्रण को 24-48 घंटे तक रखकर दशपर्णी तैयार करें।4. मिश्रण को छानकर तरल रूप में उपयोग करें।उपयोग:1. दशपर्णी को कीटनाशक और फफूंदनाशक के रूप में उपयोग करें। 2. यह पौधों को कीटों और बीमारियों से बचाता है। फायदे: 1. दशपर्णी एक प्राकृतिक और जैविक कीटनाशक है।2. यह पर्यावरण के लिए सुरक्षित है और पौधों की वृद्धि में सुधार करता है। किसान भाईयों को स्थानीय जलवायु के अनुकूल आनुवांशिक एवं भौतिक रूप से शु़द्ध एवं कीट व्याधि से मुक्त गुणवत्तायुक्त प्रमाणित बीजों का प्रयोग करना चाहिए जिससे खेती में लागत कम हो एवं आदानों जैसे सिंचाई खाद इत्यादि का समुचित प्रयोग हो सके एवं उत्पादकता बढ़ाई जा सके एवं खेती में किसान का शुद्ध लाभ बढ़ाया जा सके।
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