राज्य कृषि समाचार (State News)

खरीफ पूर्व करे तैयारी एवं संसाधनो का संरक्षण जिससे फसलों से हो अधिक उत्पादन

लेखक: डॉ. मुकेश कुमार भार्गव, वरिष्ठ वैज्ञानिक (सस्य विज्ञान), डॉ. अमृतलाल बसेड़िया, वैज्ञानिक (कृषि अभियांत्रिकी), डॉ. पुष्पेन्द्र सिंह, वैज्ञानिक (पादप प्रजनन), श्री जे. सी. गुप्ता, वैज्ञानिक (पादप सुरक्षा), श्री योगेश चन्द्र रिखाड़ी, वरिष्ठ तकनीकी अधिकारी (मत्स्य विज्ञान), डॉ. पुनीत कुमार, वरिष्ठ वैज्ञानिक एवं प्रमुख, राजमाता विजयाराजे सिंधिया कृषि विश्वविद्यालय ग्वालियर, कृषि विज्ञान केन्द्र, शिवपुरी (म.प्र.)

28 अप्रैल 2025, भोपाल: खरीफ पूर्व करे तैयारी एवं संसाधनो का संरक्षण जिससे फसलों से हो अधिक उत्पादन –

माटी, पानी और पर्यावरण बचा रहे और ग्रामीण पलायन रुक सके:

मृदा और जल दो ऐसे महत्वपूर्ण प्राकृतिक संसाधन है जिनके आधार पर ही किसी क्षेत्र का विकास निर्भर करता है। दुर्भाग्यवश इन महत्वपूर्ण प्राकृतिक संसाधनों का ह्रास वर्तमान में बहुत तीव्र गति से हो रहा है, चूंकि जनसंख्या और पशुधन में विगत वर्षो में अत्यधिक वृद्धि हुई है। इससे मृदा और जल का अवैज्ञानिक तरीके से भरपूर दोहन हो रहा है तथा उत्पादकता में कमी आई है। साथ ही भविष्य की फसल तथा चारा पैदावार पर प्रश्न चिन्ह है। आने वाले वर्षो में हम अन्न व चारे की आनुपातिक आवश्यकताओं की पूर्ति कर पायेंगे अथवा नहीं ? स्थिति को देखते हुए वर्तमान में भू और जल संरक्षण एक प्राथमिक आवश्यकता बन गया है। आबादी का दबाब दिन प्रतिदिन बढता जा रहा है खेतों का आकार सिकुडता जा रहा है जिसकी वजह है कि कृषि भूमि आवास के लिये स्तेमाल की जा रही है और वनांे का ह्रास हो रहा है, जिससे हम पर्यावरण को बुरी तरह से हानि पहुचा रहे हैै। आज पूरा विश्व ग्लोबल वार्मिंग अर्थात धरती के बढते तापक्रम से चिंतित है, वर्तमान समस्याओं को दृष्टिगत रखते हुए हमें अपनी परम्परागत कृषि पद्धति में बदलाव लाकर ऐसी पद्धति अपनानी होगी जिससे सीमित संसाधनों में ही खाद्यान्न, फल, चारा, लकड़ी आदि की आवश्यकताओं को पूरा कर सकें। साथ ही दुनिया के सामने मरूस्थलीकरण को रोकना एक बडी चुनौती है। मृदा के भौतिक, रासायनिक एवं जैविक गुणों को बचाना बेहद जरूरी है। क्योंकि मृदा की उर्वराशक्ति के क्षीण होने का नुकसान किसी न किसी रूप में समूचे राष्ट्र को चुकाना पडता है।

खरीफ पूर्व खेत की जुताई/खेत की तैयारी कार्य:

अ. संसाधन संरक्षण तकनीकें:

(1) फसल अवशेष प्रबंधन- किसान भाई रबी फसल कटाई उपरांत नरवाई में आग न लगाकर फसल अवशेष प्रबंधन या प्रसंस्करण करें। फसल जैसे गेहूं की कम्बाइंड हार्वेस्टर से कटाई की जाती है या की गई है उसके बाद जो अवशेष बचते हैं उसे भूसा बनाने वाली मशीन (स्ट्रॉरीपर) से भूसा बनाकर पशुधन में चारा के रूप में उपयोग करें या फिर उसे बाजार में या उद्योग में विक्रय कर आर्थिक लाभ लिया जा सकता है। फसल अवशेषों को जमीन में मिलाकर मृदा का कार्बन प्रतिशत भी बढ़ाया जा सकता है। जो किसान खरीफ में धान लगाने की योजना बनाए हैं वे किसान सुपर सीडर का उपयोग करके फसल अवशेषों का प्रबंधन कर कर सकते हैं।

(2) समतलीकरण एवं मेड़बंदी- जिन खेतों का ढाल (स्लोप) बहुत ज्यादा है या समतल नहीं है उन खेतों को रबी फसल कटाई उपरांत समतल करने का उपयुक्त समय है। समतलीकरण के साथ किसान अपने खेतों का सही तरीके से मेड़बंदी जरूर कराएं ताकि खेत का पानी खेत में रहे और मृदा एवं पानी का संरक्षण हो सके।

(3) ग्रीष्मकालीन गहरी जुताई- जिन खेतों में पिछले 3 सालों में गहरी जुताई नहीं हुई है, उन खेतों में गर्मी में गहरी जुताई करें अर्थात् ग्रीष्मकालीन गहरी जुताई तीन साल में एक बार किसान अवश्य करें। गहरी जुताई हेतु किसान 55 हार्स पॉवर ट्रैक्टर तथा रिवर्सिवल प्लाऊ का उपयोग करें।

(4) गर्मी की साधारण जुताई- जिन खेतों में विगत सालों में अर्थात् तीन साल में एक बार ग्रीष्मकालीन गहरी जुताई हो गई है, उन खेतों को रबी फसल कटाई उपरांत साधारण जुताई कल्टीवेटर या हैरो से करके छोड़ दें।

ब. जलसरंक्षण तकनीकियां:

खेती तो क्या जीवन के लिये जल की महती भूमिका है। कहा भी गया है ‘‘रहिमन पानी राखिए बिन पानी सब सून, पानी गये न उबरे मोती मानस चून‘‘ ‘‘जल है तो कल है‘‘ कि धारणा तथा प्रति बूंद जल उपयोगिता को ध्यान में रखते हुए जल संरचनाओं का विकास, सुदृढ़ीकरण भूमि जल स़्त्रोतों के सुचारू रखने हेतु उपयुक्त तालाब के विकास के साथ-साथ मछली पालन व्यवसाय (नीली खेती) भी कम लाभकारी नहीं है। किसान भाइयो को अपने खेतों में मिलकर वर्षा जल संग्रह तालाब बनाने की भी सलाह दी जाती है। इन तालाबों में वर्षा के पानी को इकट्ठा किया जाता है तथा उसके बाद उसे सिंचाई आदि के लिए उपयोग में लाया जाता है। ये तालाब मछली पालन एवं सिंघाडा उत्पादन आदि के लिए भी प्रयोग में लाये जा सकते है। इन तालाबों में भू जल स्तर में भी सुधार होता है तथा वर्षा जल जो बहकर नष्ट हो जाता है को रोकने में सहायता मिलती है और पानी को अधिक समय तक संग्रहित रखा जा सकता है। खेती के लिए बूंद-बूंद और फव्वारा पद्वति से सिंचाई के लिए प्रोत्साहन देना अत्यावश्यक है, क्योकि इससे पानी की बहुत बचत होती है।

  1. वर्षाजल संरक्षण इकाई- ऐसी भूमि जहां पर सिंचाई संसाधनों का अभाव है वहां पर स्लोपी क्षेत्र में तालाब बनाकर वर्षा जल संचय करें ताकि इस जल का ंिसंचाई और अन्य कार्याें में उपयोग किया जा सके। भूजल संरक्षण में वृद्धि तथा जलस्तर में निरंतर गिरावट पर नियंत्रण किया जा सकता है। भूजल के अति दोहन के कारण जल स्तर में हो रही कमी को पुनः जल भरने के लिए उपयोगी साबित होगा। वर्षा जल संरक्षण/तालाब से मछली पालन कर अतिरिक्त आय भी अर्जित की जा सकती है। इसमे प्रेरक बना है कृषि विज्ञान केन्द्र शिवपुरी पर मॉडल भी बनाये गये हैं। भूमि के कुशल उपयोग हेतु 30ग28 मीटर लंबे, चौड़े एवं 3 मीटर गहरे तालाब के ऊपर 10ग6 फीट का ओवरहेड मुर्गीपालन इकाई का निर्माण एक सफल मॉडल समन्वित कृषि प्रणाली घटक के साथ कृषकों को नवोन्वेषी प्रयास के लिये बनाया गया है। जो जलसंग्रह इकाई, रूफ वॉटर हारवेस्टिंग संयोजन से जोड़ा गया है
  2. जलग्रहण विकास- जलग्रहण क्षेत्र भूमि की एक ऐसी इकाई है जिसका जल निकास एक बिन्दू पर होता है भूमि की इस प्राकृतिक इकाई का विकास भूमि के साथ वर्षा के पानी की पारस्परिक क्रिया द्वारा होता है और इसमें कृषि भूमि, अकृष्य भूमि तथा बारानी क्षेत्र में जल निकासी के प्राकृतिक नाले एवं नालियॉं शामिल है। आत्मनिर्भर उत्पादकता का आधार पर्यावरण की शुद्वता एवं निरोगता है, जिसमें भूमि तथा जल मुख्य भूमिका निभाते है। अतः जल एवं भूमि की वैज्ञानिक उपयोगिता बढाने हेतु वर्षा और भूमि के अर्न्तसम्बन्ध में निर्धारित इकाई जल ग्रहण ही आदर्श भौगोलिक इकाई बनती है।
  3. रूफ रेनवाटर हार्वेस्टिंग – जहां कॉलोनी बनी है या अपने घर की छतों के पानी को रूफ रेन वाटर हार्वेस्टिंग टैंक बनाकर छत के पानी का संचय किया जा सकता है। इस पानी का उपयोग सिंचाई या पीने के उपयोग में या अन्य घरेल कार्याें में किया जा सकता है।
  4. फब्बारा एवं सूक्ष्म तकनीक का प्रयोग- उद्यानिकी फसलों में ड्रिप इरीगेशन तथा अन्य फसलों में फब्बारा पद्धति का प्रयोग कर पानी की बचत एवं फसलोत्पादन में वृद्धि होती है।
    स. कृषियंत्रों का सुधार – खरीफ फसल बुवाई के लिए कृषि विज्ञान केन्द्र शिवपुरी द्वारा जिले में मेड़ नाली पद्धति, बीबीएफ पद्धति एवं रेज्ड बेड पद्धति की अनुशंसा की जा रही है। जिन किसानों के पास मेड़ नाली पद्धति या बीबीएफ मशीन नहीं है वह अपनी साधारण सीडड्रिल मशीन को अटैचमेंट लगवाकर मेड़ नाली एवं बीबीएफ पद्धति में रूपांतरित कर सकता है।
    द. मृदा सौरीकरण – मृदा सौरीकरण एक ऐसी तकनीक है जो मिट्टी को कीटों, बीमारियों एवं खरपतवारों से बचाती है तथा सूर्य ऊर्जा का उपयोग कर मिट्टी का उपजाऊ बनाती है। इसके उपयोग के लिए प्लास्टिक शीट का प्रयोग किया जाता है जिससे मिट्टी गर्म होती है तथा सभी प्रकार के कीटाणु, अंडाणु खरपतवारों के बीज तथा रोगजनक नष्ट हो जाते हैं तथा मिट्टी की गुणवत्ता ठीक हो कर उत्पादकता में सुधार होता है। ट्राइकोडर्मा प्रयोग यह एक जैव नियंत्रक एजेंट है। इसका प्रयोग पौधों में फफूंदजनित रोगों को रोकने और मिट्टी की गुणवत्ता में सुधार करने में मदद करने के लिए किया जाता है। यह एक फफूंद है जो कई प्रकार की फसलों में फायदेमंद है। जैसे अनाज, फल, फूल एवं सब्जियां इत्यादि। इसका उपयोग बीजोपचार, पौध उपचार, नर्सरी उपचार, फसलों में छिड़काव और यह पर्यावरण के लिए सुरक्षित है तथा कम लागत में उपयोगी है।
    उन्नत किस्मों का चुनाव – अच्छी उपज प्राप्त करने के लिए किसान भाई उन्नत एवं नवीनतम किस्मों का चुनाव करें। नवीन किस्में अधिक उत्पादन देने के साथ-साथ कीट एवं रोगों के प्रति ज्यादा सहनशील या प्रतिरोधी होती है। साथ ही जैव संवर्धित किस्में पोषण की दृष्टि से भी उन्नत होती है। खरीफ की प्रमुख फसलों की नवीनतम एवं उपयुक्त किस्में निम्नानुसार हैं सोयाबीन- राज सोया 24, जेएस 20116, आर.व्ही.एस.एम.11-35, राज सोया 18, जेएस-2034, एनआरसी-142, एनआरसी-147, एनआरसी-132। मूगंफली-टी.ए.जी. 37ए, टी.ए.जी. 73, जे.एल. 501, जी.जी. 20, जी.जी. 2, गिरनार 4 एवं गिरनार 5। उर्द- पीडीयू-1, पंत उर्द-31, विश्वास। धान- सीआर धान-310, डीआरआर धान-53। मक्का इत्यादि।
    बीजशोधन/प्रसंस्करण- जो किसान भाई घर का बीज बोनी हेतु उपयोग करते हैं वो बीज की छनाई करके उसे साफ कर लें। छोटी-बड़ी छन्नियों का उपयोग करके टूटे दाने, अण्डर साइज दाने एवं अन्य चीजों को अलग कर बीज साफ कर लें। चिकने एवं गोल दाने वाले बीज जैसे सोयाबीन की सफाई हेतु स्पाइरल सेपरेटर का भी उपयोग किया जा सकता है।
    बीज परीक्षण- जिस बीज को खरीफ मौसम में बोना है उसकी अंकुरण क्षमता की जांच बोनी के पूर्व ही कर लें जिसमें बीज अंकुरण क्षमता सुनिश्चित हो सके। यदि अंकुरण कम या नहीं हो रहा है तो ऐसे बीज की बोनी नहीं की जानी चाहिए। बीज परीक्षण हेतु सबसे सरल तकनीक थाली तकनीक है। जो किसान भाई बहुत सरलता से घर पर कर सकते हैं। इसके लिए एक मध्यम आकार का प्लेट या थाली लें उसमें डेढ़ से दो किलो बारीक मिट्टी रखें और यदि उपलब्ध हो तो आधा किलो गोबर खाद मिलाएं। यह सारा मिच्सचर थाली में बराबर फैलाकर समतल करें एवं इसमें परीक्षण किए जाने वाले बीज से 100 दाने निकालकर एक से डेढ़ स.ेीम. की दूरी पर रखकर उंगलियांे से बीज को मिट्टी में दबा दें। तत्पश्चात् हल्के से सिंचाई कर दें और थाली कहीं सुरक्षित जगह पर रख दें। आवश्यकतानुसार दिन में एक या दो बार हल्की सिंचाई करें। 5 से 10 दिन के अंदर अंकुरण योग्य बीज अंकुरित हो जाएंगे। अंकुरित बीजों की गिनती कर बीज का अंकुरण प्रतिशत पता चल जाता है।

ग्रामीण पलायन: कारण और निवारण

गॉवों से शहरों की ओर पलायन का सिलसिला कोई नया मसला नहीं है, गॉवों में कृषि भूमि पर लगातार जनसंख्या वृद्धि से घटती जोत के कारण, प्राकृतिक आपदाओं के चलते रोजी-रोटी की तलाश में ग्रामीणों को शहरों, कस्बों की ओर मुंह करना पड रहा है। एक तरफ शहरी चकाचौंध और दूसरी और गांवों में बेरोजगारी, अशिक्षा, खेती पर मौसम की मार और स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी ने लोगों को पलायन के लिये प्रेरित किया है। यद्यपि पलायन के पीछे लोगो की ज्यादातर आकांक्षाओं की पूर्ति करने का उद्देश्य होता है, यदि उन आकांक्षाओं और अवसरों को उनके निवास स्थान अथवा ग्रामीण क्षेत्रों में ही उपलब्ध कराया जाये तो न सिर्फ पलायन पर अंकुश लगेगा साथ ही गांव और शहरो की दूरी भी घटेगी।

खेती में विविधता लाये – गांवों में अभी भी ज्यादातर लोग परंपरागत खेती कर रहे है, युवाओं को समझाए जाए कि वे परंपरागत खेती के स्थान पर खेती में विविधता लाये फलों, फूलो एवं सब्जियो की भी खेती करें। फलों की तरह ही जडी-बूटी की खेती के प्रति भी लोगों को आकर्षित किया जाए।

समन्वित खेती पद्धति अपनाएं- छोटी और सीमांत कृषक समन्वित खेती पद्धति के जरिए कम लागत में अच्छी आमदनी प्राप्त की जा सकती है। इससे उन्हें शहरों में मिलने वाले रोजगार से ज्यादा आमदनी हो सकती है। यदि कृषको इस सम्बन्ध में प्रशिक्षिण ले और उन्हें योजना के तहत मिलने वाली सहकारी सहायता के बारे में विस्तार से जानकारी दी जाए तो भी पलायन काफी हद तक रूक सकता है।

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