कृषि मंत्री ने भी माना सोयाबीन घाटे की खेती
26 अगस्त 2021, भोपाल । कृषि मंत्री ने भी माना सोयाबीन घाटे की खेती – सोयाबीन राज्य का दर्जा हासिल मध्य प्रदेश के किसानों के लिए अब सोयाबीन की खेती घाटे की खेती साबित हो रही है । घटते उत्पादन और बढ़ती लागत ने सोयाबीन की खेती करने वाले किसानों को त्रस्त कर दिया है । प्रदेश की ग्रामीण अर्थव्यवस्था को समृद्ध बनाने वाली नगदी फसल सोयाबीन का विकल्प नहीं मिलने के कारण किसानों के लिए इसकी खेती करना मजबूरी है । सोयाबीन को प्रदेश में स्थापित करने वाला सहकारी उपक्रम म.प्र. राज्य तिलहन संघ, जो राज्य शासन का “ब्लू चिप कॉर्पोरेशन” कहलाता था, राजनैतिक महत्वकांक्षाओं की भेंट चढ़ गया। यही उपक्रम था , जो सोयाबीन उत्पादक किसानों को उगाने से ले कर उचित भाव दिलाने तक साथ देता था । विगत वर्षों में सोयाबीन की उत्पादकता में लगातार कमी आ रही है । उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार प्रदेश में जहाँ वर्ष 2016 में लगभग 10 क्विं. प्रति हेक्टेयर उत्पादकता दर और लगभग 55 लाख मीट्रिक टन उत्पादन था वहीँ वर्ष 2020 में यही घट कर क्रमश: लगभग 7 क्विं और 41 लाख मीट्रिक टन रह गया , जबकि सोयाबीन का क्षेत्र लगभग 55 – 56 लाख हेक्टेयर बना हुआ है ।
मध्य प्रदेश के कृषि मंत्री श्री कमल पटेल ने भी भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद की क्षेत्रीय समिति की वर्चुअल बैठक में कहा कि “हमारी कृषि वृद्धि दर राष्ट्रीय कृषि वृद्धि दर से अधिक है लेकिन इसके बाद भी हमारी खेती घाटे का धंधा बनती जा रही है। मध्यप्रदेश को सोयाबीन स्टेट का दर्जा हासिल है और पिछले पांच वर्षों से सोयाबीन की फसल घाटे की खेती बनती जा रही है और सोयाबीन के प्रति हेक्टेयर औसत उत्पादन से अब लागत भी मुश्किल से निकल रही है ।” इस बैठक में केंद्रीय मत्स्य ,पशुपालन मंत्री पुरुषोत्तम रूपला एवं कृषि राज्य मंत्री शोभा कारंदलाजे, श्री कैलाश चौधरी, अखिल भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के निदेशक डॉक्टर त्रिलोकी महापात्रा और कृषि वैज्ञानिकगण उपस्थित थे।
वर्तमान खरीफ 2021 सीजन में सोयाबीन बीज महंगा होने के बावजूद भी प्रदेश में किसानों ने लगभग 55 लाख हेक्टेयर में सोयाबीन बोई है। हालाँकि गत वर्ष लगभग 58 लाख हेक्टेयर में सोयाबीन फसल लगाई गई थी लेकिन उत्पादन लगभग 41 लाख मीट्रिक टन ही हुआ था । सोयाबीन की खेती में नुकसान के कई कारण हैं । लगातार एक ही फसल चक्र अपनाना , कीट – रोग के प्रकोप में वृद्धि , नई किस्मों और बीज विस्थापन दर में कमी , असामान्य मानसूनी गतिविधियाँ इसके प्रमुख कारण हैं ।
वैज्ञानिकों के शोध के नतीजे लैब से लैंड याने खेत तक पहुँचने की धीमी गति के चलते अब प्रदेश के किसानों ने इस घाटे की खेती से उबरने के लिए स्वयं कमर कसना शुरू कर दी है । इसी का परिणाम है कि मूंग , उड़द , मक्का , धान आदि फसलों की तरफ प्रदेश के किसानों का रूझान बढ़ने लगा है ।