अक्टूबर माह में गेहूं व चना की खेती के लिए किये जाने वाले कृषि कार्य
लेखक: डॉ. उपेन्द्र सिह, डॉ. कैलाश चन्द्र शर्मा, एवं डॉ. डी. के वर्मा, भाकृअनुप-भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, क्षेत्रीय गेहूँ अनुसंधान केन्द, इन्दौर-462001,
03 अक्टूबर 2024, इन्दौर: अक्टूबर माह में गेहूं व चना की खेती के लिए किये जाने वाले कृषि कार्य – खरीफ फसल कटते ही एक साप्ताह के अंदर खेत की तैयारी तथा सिंचाई जल-उपयोगिता बढ़ाने के लिये कलवेटर से दो बार जुताई तथा पठार (पाटा) करें। छोटे किसान बैल-चालित बखर के द्वारा जुताई कर सकते हैं।
गेहूँ की फसल के लिए:
- क्षेत्र के लिए अनुशंसित प्रजातियों का प्रमाणित या आधार बीज जो उचित स्रोत से खरीदा हुआ तथा अच्छी गुणवत्ता वाला हो का ही चुनाव करना चाहिये। प्रजाति का चुनाव अपने संसाधनों यानि उपलब्ध सिंचाई की मात्रा तथा आवश्यकताओं के अनुरूप करें तथा बीज की व्यवस्था पहले से ही कर के रखें।
- गेहूँ की खेती की तैयारी तथा सिंचाई जल उपयोगिता बढ़ाने के लिये खरीफ फसल कटते ही एक साप्ताह के अंदर जुताई तथा पठार करें। छोटे किसान वैल-चालित बार के द्वारा जुताई कर सकते हैं।
- सूखे खेत में ही आवश्यकतानुसार संतुलित उर्वरक डालकर उथली बुवाई कर सिंचाई करें। सूखे में बुवाई कर ऊपर से दिया गया पानी गेहूँ फसल में अधिक समय तक काम आता है।
- अगेती बुवाई (कम पानी वाली प्रजातियाँ 20 अक्टूबर से 5 नवम्बर, समय से बुवाई (4-5 पानी वाली प्रजातियाँ) 10 से 25 नवम्बर तथा पछेती बुवाई दिसम्बर में कर देना चाहिये।
- नत्रजन स्फुर पोटाश संतुलित मात्रा अर्थात 4:2:1 के अनुपात में डालें। ऊँचे कद की (कम सिंचाई वाली) जातियों में नत्रजनः स्फुरःपोटाश की मात्रा 80:40:20 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर बुआई से पूर्व ही देना चाहिये। बौनी शरबती किस्मों को नत्रजनः स्फुरः पोटाश की मात्रा 120:60:30 तथा मालवी किस्मों को 140:70:35 किलो ग्राम प्रति हैक्टेयर देना चाहिये।
- पूर्ण सिंचित प्रजातियों में नत्रजन की आधी मात्रा तथा स्फुर व पोटाश की पूर्ण मात्रा बुवाई पूर्व खेत में बोजा चाहिए। शेष बचे हुए नत्रजन की आधी मात्रा 20 दिन बाद वाले सिंचाई के साथ देना चाहिये।
- गेहूं-सोयाबीन फसल चक्र वाले अधिकतर खेतों में बहुधा जिंक तथा सल्फर तत्वों की भी कमी हो जाती है। इसके लिये 25 किलो प्रति हैक्टेयर जिंक सल्फेट, प्रत्येक तीसरे वर्ष, बोनी से पहले भुरक कर मिट्टी में मिला देना चाहिये।
- मृदा की उर्वरता तथा जल धारण क्षमता को बनाये रखने के लिए अंतिम जुताई के समय गोबर की खाद 10 टन प्रति हैक्टेयर या मुर्गी की आद 2.5 टन प्रति हैक्टेयर या हरी खाद (जैसे सनई या द्वैषा) का उपयोग प्रत्येक तीन वर्षों में कम से कम एक बार अवश्य करना चाहिये।
- खाद तथा बीज अलग-अलग बोटों, खाद गहरा (ढाई से तीन इंच) तथा बीज उथला (एक से डेढ़ इंच गहरा) बोरों, बुवाई पश्चात पठार पाटा न करें।
- बीज की मात्रा 1000 दानों के वजन के आधार पर निर्धारित करें। 1000 दानों का जितना ग्राम हो उतना किलो ग्राम बीज एक एकड में बोयें।
- बुवाई के बाद खेत में दोनों ओर से (आड़ी तथा खड़ी) नालियों प्रत्येक 15-20 मीटर पर बनायें तथा बुवाई के तुरन्त बाद इन्ही नालियों द्वारा बारी बारी से क्यारियों में सिंचाई करें।
- अद्धसिंचित कम सिंवाई (1-2 सिंचाई) वाली प्रजातियों में एक से दो बार सिंचाई 35-40 दिन के अंतराल पर करें। पूर्ण सिंचित प्रजातियों में 20-20 दिन के अन्तराल पर 4 सिंचाई करें।
- रोग व नीदा नियत्रंण के लिये जीवनाशक रसायनों का उपयोग वैज्ञानिक संस्तुति के आधार पर ही करें।
- खेत में दीमक या अन्य किसी कीट की संभावना हो तो कोई भी कीटनाशी धूल 20-25 कि.ग्रा./हैक्टेयर अंतिम जुताई के समय भुरक कर दें।
- दीमक की रोकथाम के लिये क्लोरोपाईरीफॉस की ०.० ग्राम सक्रिय तत्व या थाईमेथोकझाम 70 डब्ल्यू, पी (कुसेर 70 डब्ल्यूपी) 0.7 ग्राम सक्रिय (1 kg) तत्व या फीपरोनिल (रेजेन्ट 5 एफ.एस.) 0.3 ग्राम सक्रिय (6 g/kg) तत्व प्रति किलोग्राम द्वारा बीज उपचारित करें।
मध्य भारत के लिये अनुशासित गेहूँ की नवीन प्रजातियाँ:
बुवाई अवस्था | बुवाई का समय | सिंचाई | प्रजातियां | खाद की मात्रा (नत्रजन: स्फुर:पोटास:कि.ग्रा/ हैक्टर) | उत्पादन (विंय. है.) | |
चंद्रदोसी सरबती | कठिया/मालवी | |||||
अगेती | 20 अक्टूबर से 10 नवम्बर | 1- 2 सिंचाई | एच.आई. 1531 (हर्षिता)’ एच.डी. 2987 (पूसा बहार), एच.आई. 1605 (पूसा उजाला) जे. डब्ल्यू, 3020, जे. डब्ल्यू, 3173, www जे.डब्ल्यू. 3211, जे.डब्ल्यू. 3269, www एम.पी. 3288, डी.बी.डब्ल्यू. 110 एच.आई. 1655 (पूसा हषा) | एच.आई 8777 ( पूसा गेहूं 8777 ) एच.आई 8802 ( पूसा गेहूं 8802 ) एच.आई 8805 ( पूसा गेहूं 8805 ) एच.आई 8823 ( पूसा प्रभात ) डी डी डब्लू 47 एच.आई 8830 (पूसा कीर्ति) | 80:40:20 | 30-40 |
समय से | 10 से 25 नवम्बर | 4-5 सिंचाई | जे.डब्ल्यू. 1201, जीडब्ल्यू, 273, www जीडब्ल्यू 322, जीडब्ल्यू, 366, wwive जीडब्ल्यू 513, एच.आई. 1544 (पूणर्णा), एच.आई. 1636 (पूसा वकुला) www एच. आई 1650 (पूसा ओजस्वी | एम.पी.ओ 1255 एच.आई 8663 (पोषण) एच.आई 8713 (पूसा मंगल) एच.आई 8737 (पूसा अनमोल) एच.आई 8759 (पूसा तेजस) एच.आई 8826 (पूसा पौष्टिक) | चन्दौसी शरखती 120:60:30 कठिया/मालवी 140:70:35 | 50-60 |
पिछेती | दिसंबर-जनवरी | 4-5 सिंचाई | जे.डब्ल्यू. 1202, जे.डब्ल्यू 1203, एम.पी. 3336, राज. 4238, www ww एच.डी. 2932 (पूसा 111), एच.आई. 1634 (पूसा अहिल्या) | – | 100:50:25 | 35-45 |
चने की फसल के लिये:
- चने की फसल के लिये अधिक जुताईयों की आवश्यकता नहीं होती है।
- खेत को तैयार करते समय कल्टीवेटर से 2-3 जुताईयों कर खेत को समतल बनाने के लिए पाटा लगाएँ। पाटा लगाने से नमी संरक्षित रहती है।
- उपलब्धतानुसार गोबर की सड़ी खाद या कम्पोस्ट खाद 10-20 टन/हैक्टयर की दर से खेत की तैयारी के समय डालनी बाहिए ताकि खेत में पोषक तत्वों के साथ उसकी जलधारण क्षमता भी बढ़ सके ।
- मध्य क्षेत्र के लिए संस्तुत बने की उन्नतशील प्रजातियां का बयन करें जैसे पूसा-209. पूसा-212, पूसा- 244. पूसा-256, पूसा-372 जे.जी.-11. जे.जी.-11. जे.जी.-24. जे.जी-62. जे.जी-315, जे.जी-322. सूर्या (डब्लू सी.जी.-2), अवरोधी, राधे, के, डब्लू, आर.-108, के.जी.डी.-1168 (उकठा रोधी), पी. 209. पी. 212. पी. 261, गौरव आदि किस्मों की बुताई करनी चाहिए। काबुली चने की पुला 1053, जे.जी. के 1, के. एल. के 2 एन 550 आदि किस्में चुकटारोभी तथा अधिक पैदावार देने वाली है।
- बुआई अक्टूबर के द्वितीय पखवाड़े में करनी चाहिए।
- देर से बुआई करने पर फसल की पैदावार पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। यदि किसी कारणवश बुवाई मे देरी होती है तो शीघ्र पकने वाली कम अवधि की किस्म जैसे जे जी-11, पूसा-372 आदि का चुनाव करना चाहिए।
- किस्मों के अनुसार लाइन से लाइन की दूरी 30-45 से.मी. रखी जा सकती है।
- समय से बुआई करने पर बीज की दर 70-80 कि.ग्रा. प्रति हैक्टेयर तथा देरी से बुवाई में बीज की मात्रा बढाकर 90 कि.ग्रा. प्रति हैक्टेयर डालनी चाहिए।
- याद रखें खाद व बीज मिलाकर ना बोयें तथा खाद व बीज के डालने में कम से कम 5 से.मी. की दूरी अवश्य रखें। इसके लिए उर्वरको को बीज से लगभग 5 से.मी. गहरा अथवा साइड में डाला जा सकता है।
- बुवाई से पूर्व बीज की बीमारियां से सुरक्षा हेतु 2 ग्राम बैविस्टिन 1 ग्राम थाइरम प्रति किलोग्राम बीज से उपचारित करके बोना चाहिए।
- यदि खेत में दीमक की सम्भावना हो तो बीज को कीटनाशी जैसे क्लोरोपाइरीफॉस की 5 मिलीलीटर मात्रा प्रति किलोग्राम बीज के हिसाब से उपचारित करना चाहिए।
- बीज को नत्रजन तथा फास्फोरस की उपलब्धता बढ़ाने वाले जैव उर्वरकों से भी अवश्य उपचारित करना चाहिए।
- चने की फसल में बुवाई के समय 15-20 किग्रा. नत्रजन 60-80 किलोग्राम स्फुर (फॉस्फोरस) तथा 30- 40 किलोग्राम पोटाश (पाशुज) प्रति हैक्टेयर की दर से देना चाहिए।
- चना की फसल कम उचाई की होने के कारण खरपतवारो से अधिक प्रभावित होती है। इनके नियत्रंण के लिये दो बार पहली बुवाई 25-30 दिन बाद व दूसरी बार 55-60 दिन बाद खुरपी से निराई करनी चाहिए। इसके लिए लाईनो में हो या अन्य किसी कृषि यन्त का प्रयोग करके भी इन्हे नियंत्रित किया जा सकता है।
- यदि श्रमिको की कम उपलब्धता हो तो खरपतवारनाशियों जैसे एक किलोग्राम सक्रिय तत्व फ्लूक्लोरेलिन
(बैसालिन) प्रति हैक्टेयर बुवाई पूर्व मिट्टी में मिलाकर अथवा 0.75 से 1.0 किलोग्राम सक्रिय तत्व पेन्डीमेधेलिन प्रति हैक्टेयर की दर से बुवाई के बाद अंकुरण पूर्व छिड़काव द्वारा खरपतवारो का नियंत्रण किया जा सकता है। - चने की खेती मुख्य रुप से बारानी क्षेत्रों में की जाती है तथा सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती है। लेकिन जहां सिंचाई की सुविधा होती है तो हल्की मृदाओं में पलेवा करके ही चना की बुवाई की जानी चाहिए ताकि सुनिश्चित अंकुरण हो सके। भारी मृदाओं में बुवाई के समय यदि खेत में नमी कम है तो बुवाई के बाद सिंचाई कर देनी चाहिए। इसके बाद आवश्यकतानुसार पहली सिंचाई 45-50 दिन बाद तथा दूसरी फली बनते समय करनी चाहिए। फूल आते समय कभी भी सिंचाई नही करनी चाहिए।
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