खाद्य तेलों पर आयात शुल्क में वृद्धि से किसे फायदा!
04 मार्च 2025, नई दिल्ली: खाद्य तेलों पर आयात शुल्क में वृद्धि से किसे फायदा! – भारत हरित क्रांति के बाद अब खाद्यान्न के मामले में लगभग आत्मनिर्भर हो गया है लेकिन खाद्य तेलों के उत्पादन में आत्मनिर्भर होने में अभी भी लम्बा रास्ता तय करना है। दशकों के प्रयासों के बाद भी भारत आज अपनी घरेलू जरूरतों का सिर्फ 43 प्रतिशत ही खाद्य तेल का उत्पादन कर पा रहा है। शेष 57 प्रतिशत के लिए पूरी तरह आयात पर निर्भर है। भारत सरकार के कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय के मुताबिक भारत में हर साल 230 से 250 लाख टन तक खाद्य तेल की खपत हो रही है। जबकि प्रत्येक वर्ष लगभग 140 से 150 लाख टन से अधिक खाद्य तेल का आयात करना पड़ता है। पिछले वर्ष यह मात्रा 165 लाख टन तक पहुंच गई थी। हालांकि तिलहन उत्पादन में भारत विश्व में पांचवें स्थान पर है, किंतु जनसंख्या एवं आय में वृद्धि के साथ-साथ मांग एवं आपूर्ति के बीच का अंतर लगातार बढ़ता जा रहा है। भारत में सन् 1950-60 के दशक में प्रति व्यक्ति खाद्य तेलों की खपत 2.9 किलोग्राम थी, जो बढ़कर अब लगभग 20 किलोग्राम प्रति वर्ष हो गई है। खाद्य तेलों में सबसे ज्यादा सरसों का तेल पसंद किया जाता है। उसके बाद सोयाबीन एवं सूरजमुखी का स्थान है। खाद्य तेलों में निर्भरता के लिए राष्ट्रीय खाद्य तेल मिशन के तहत पाम आयल एवं दूसरे तिलहन उत्पादन को बढ़ावा दिया जा रहा है। इसके लिए उन्नत बीज एवं तकनीकी सहायता दी जा रही है। अगले छह वर्षों तक मिशन के तहत 10,103 करोड़ रुपये खर्च होंगे। इसके पहले 2021 में देश में पाम आयल की खेती को बढ़ावा देने के लिए 11,040 करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया था। पिछले वर्ष देश में 390 लाख टन तिलहन का उत्पादन हुआ था। इसे बढ़ाकर 2030-31 तक 697 लाख टन करने का लक्ष्य रखा गया है। सरकार का मानना है कि इससे घरेलू जरूरतों का लगभग 72 प्रतिशत पूरा हो जाएगा। इसका सीधा सा यही अर्थ हुआ कि तिलहन का उत्पादन बढऩे के बाद भी आयात करना मजबूरी ही रहेगी।
देश में खाद्य तेलों की पूर्ति के लिये आयात करने पर पहले बहुत कम आयात शुल्क लगाया जाता था लेकिन अब इस समय पाम तेल, कच्चे सोया तेल और कच्चे सूरजमुखी तेल पर 27.5 फीसदी आयात शुल्क लगाया गया है। अभी अपुष्ट सूत्रों से खबर आ रही है कि सरकार खाद्यान्न तेलों पर आयात शुल्क बढ़ाने जा रही है। सरकार यह मानकर चलती है कि आयात शुल्क बढ़ाने से घरेलु बाजार में तिलहन के दामों में वृद्धि होगी जिसका किसानों को ही फायदा होगा। यदि सरकार खाद्य तेलों के आयात पर सीमा शुल्क में बढ़ोतरी करती है तो यह किसानों के हित में नहीं बल्कि इससे उद्योगपतियों और व्यापारियों को लाभ होगा। क्योंकि उद्योगपतियों और व्यापारियों ने पहले ही किसानों से तिलहन की फसलें खरीद ली हैं। स्वाभाविक है कि आयात शुल्क बढ़ाने से आयात में कमी आएगी। मांग और आपूर्ति में अंतर आने से खाद्य तेलों की कीमतों में अवश्य ही वृद्धि होगी जिसका फायदा उद्योगपतियों और व्यापारियों को होगा। लेकिन इसका फायदा न तो किसानों को होगा और ना उपभोक्ताओं को। आयात शुल्क बढ़ाने से निश्चित ही घरेलू बाजार में खाद्य तेलों की कीमतें बढ़ेंगी। विडम्बना यह है कि किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य के लिये तरसना पड़ता है और तिल की कमी की पूर्ति के लिये सरकार अधिक मूल्य पर आयात करती है जिससे मांग और आपूर्ति में अंतर तो कम हो जाता है लेकिन कीमतें कम नहीं होती और इसका लाभ आयातक व्यापारियों को होता है। यदि किसानों को अपनी फसल का उचित दाम नहीं मिलेगा तो हो सकता है किसान तिलहन की फसल लगाने से दूरी बनाने लग जाएं। जिससे देश में खाद्य तेलों की कीमतें तो आसमान छूने लगेंगी जिसे थामना सरकार के लिए कठिन हो जाएगा।
पिछले वर्ष अक्टूबर 2024 में जब आयात शुल्क में वृद्धि की गई थी तब पाम ऑयल की कीमत 100 रुपये प्रति लीटर से बढ़कर 137 रुपये प्रति लीटर हो गई थी। इसी तरह सरसों का तेल भी 140 रुपये से बढ़कर 181 रुपये प्रति लीटर हो गया था। अब सरकर यह दावा करे कि आयात शुल्क बढ़ाने से किसानों को फायदा होगा तो इसके लिये एक समिति का गठन कर मूल्यांकन करवाएं ताकि यह पता चल सके कि वास्तव में किसको फायदा हो रहा है ? किसानों को, व्यापारियों को या उपभोक्ताओं को ? दरअसल देश में लघु और सीमांत किसानों की संख्या सबसे ज्यादा है और वे फसल के पकने के बाद तुरंत ही फसल को बेच देते हैं। यदि आयात शुल्क में वृद्धि फसल पकने के समय की जाए तो सम्भवत: अधिकांश किसानों को फसल का उचित मूल्य मिल सकता है अन्यथा इसका फायदा कम से कम किसानों को तो नहीं मिलेगा।
देश में खाद्य तेलों की मांग और आपूर्ति के बीच का अंतर लगातार बढ़ रहा है। इसलिए इस अंतर को कम करने के लिए तिलहन की खरीदी का काम सरकार करे और न्यूनतम समर्थन मूल्य का निर्धारण भी आयात किये जाने वाले तेल के मूल्य को आधार मानकर तय करे ताकि अधिकाधिक किसान तिलहन की फसल लगाने के लिये प्रोत्साहित हों। देश को तिलहन के उत्पादन में आत्मनिर्भर बनाने के लिये आयात शुल्क को बढ़ाना एक विकल्प हो सकता है लेकिन घरेलू बाजार में तिलहन की कीमतें किसी भी हालत में न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम न हो। सरकार को यह भी सुनिश्चित करना होगा।
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