खेतों से संसद तक आंदोलन: संवाद से होगा समाधान !
28 दिसंबर 2024, नई दिल्ली: खेतों से संसद तक आंदोलन: संवाद से होगा समाधान ! – पूरे देश में संसद का शीतकालीन सत्र सबसे ज्यादा चर्चा में रहा। पक्ष और विपक्ष दोनों और से ही छीटाकसी और आरोप प्रत्यारोप का दौर जारी रहा। संसद का शीतकालीन सत्र पिछले महीने 25 नवम्बर से शुरू हुआ था और 20 दिसम्बर को संसद के दोनों सदनों की कार्रवाई अनिश्चितकाल के लिए स्थगित कर दी गई। इस दौरान पूरे सत्र में कुल 20 बैठकें हुई। लोकसभा और राज्यसभा में लगभग 105 घंटे कामकाज हुआ। बाकी समय आरोप प्रत्यारोप और निरर्थक बातों पर बीत गया। सत्र के दौरान लोकसभा की उत्पादकता 57.87 प्रतिशत और राज्यसभा की 41 प्रतिशत रहीं। सदन में कुल चार बिल पेश किए गए लेकिन कोई भी पारित नहीं हो सका। इनके अलावा एक देश, एक चुनाव के लिए पेश हुआ 129वें संविधान (संशोधन) बिल रहा। बिल को 39 सदस्यीय संयुक्त संसदीय समिति को भेज दिया गया है। कमेटी में लोकसभा से 27 और राज्यसभा से 12 सांसद है। यह समिति संसद के आगामी सत्र के आखिरी सप्ताह के पहले दिन लोकसभा में रिपोर्ट प्रस्तुत करेगी। हालाकि विपक्षी दलों के रुख को देखते हुए लगता है कि समिति की बैठक हगामेदार होगी और शायद ही कोई सर्वमान्य राय बन सके।
एक और दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत में शीतकालीन सत्र के दौरान पक्ष और विपक्षी दलों के बीच शब्द युद्ध चला, उसे किसी भी दृष्टि से एक स्वस्थ लोकतांत्रिक देश के लिये अच्छा नहीं कहा जा सकता। भले ही संविधान हमें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता देता है लेकिन इसकी भी अपनी एक मर्यादा होती है। संविधान के लागू होने के 75 वर्ष पूरे होने के अवसर पर संसद के दोनों सत्रों में संविधान पर हुई चर्चा को देखकर तो यही कहा जा सकता है कि चर्चा में संविधान का नाम जरूर लिया गया लेकिन संविधान के गुण दोषों से ज्यादा चर्चा आरोप-प्रत्यारोप लगाने पर हुई। इसे स्वस्थ चर्चा तो कतई नहीं कहा जा सकता। संसद की कार्रवाई पर एक घंटे में करीब डेढ करोड रूपये खर्च होता है जो आम जनता की गाढ़ी कमाई का ही होता है। दूख की बात है कि सभी राजनेता आम जनता की भलाई की बात करते हैं और उन्हीं की मेहनत की कमाई को आरोप-प्रत्यारोप और विवाद में उड़ा देते हैं। आम मतदाता उन्हें जिस कार्य के लिए चुनकर संसद में भेजता है, जब वे उनकी गतिविधियों को देखता है तो अपने आपको ठगा हुआ महसूस करता है यह सोचकर कि हमने इन्हें किसान काम के लिए चुना है और ये देश के सर्वोच्च सदन में अशोभनीय व्यवहार कर रहे हैं।
इन्हीं दिनों किसान आंदोलन फिर सुर्खियों में आ गया है। करीब दस महीने से अधिक समय से हरियाणा की सीमा पर बैठे किसान आसू गैस, गमर्मी, वर्षा के बाद कड़ाके की सर्दियां झेल रहे है। इस बीच किसान नेता जगजीत सिंह डबेवाल के आमरण अनशन ने किसान आंदोलन में जान फूंक दी है। भले ही उनकी जान पर बन आई है लेकिन किसान आदोलन को पुनर्जीवन मिल गया है। यहां ध्यान देने योग्य बातें यह भी है कि केंद्र सरकार ने नवम्बर 2021 में तीन कृषि कानूनों को रद्द करने के बाद न्यूनतम समर्थन मूल्य पर एक समिति बनाने की घोषणा की थी और समिति का गठन जुलाई 2022 में कर भी दिया था लेकिन समिति ने अभी तक सरकार को रिपोर्ट नहीं सौंपी है। यह बात भी सही है कि किसान आंदोलन में अधिकांश किसान पंजाब और हरियाणा के ही है लेकिन देश के अन्य किसान संगठनों का उन्हें नैतिक समर्थन हासिल है। भारत में 80 प्रतिशत से अधिक सीमांत और लघु किसान है जो किसी तरह अपनी गुजर बसर कर रहे हैं। उन्हें तो इस आंदोलन की रूपरेखा भी मालूम नहीं है कि वे किन मुद्दों को लेकर आंदोलन कर रहे हैं। भारत में 10 से 12 प्रतिशत किसान ही न्यूनतम समर्थन मूल्य का लाभ ले पाते हैं। हालांकि, सरकार चाहती है कि देश के ज्यादातर किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य का लाभ मिले लेकिन अभी तक की परिस्थितियों पर नजर डालें तो ऐसा सम्भव नहीं लगता। इसका सबसे बड़ा कारण यह भी हो सकता है कि अधिकांश लघु और सीमांत किसानों की अपनी फसल को तुरंत विक्रय करने की मजबूरी होती है लेकिन बड़े किसानों की ऐसी कोई मजबूरी नहीं होती और वे भुगतान में देरी से भी विचलित नहीं होते हैं। इसी कारण वे धैर्य के साथ फसल को न्यूनतम समर्थन मूल्य की दरों पर बेचते हैं।
किसान आंदोलन को शुरू हुए चार साल से अधिक समय हो गया है और अभी तक कोई सावेक समाधान नहीं निकला है। दो साल पहले सरकार के साथ बातचीत का सिलसिला शुरू हुआ था लेकिन गतिरोध बना रहा। इस समय सरकार के साथ बातचीत होने की कोई हलचल नहीं दिखाई नहीं दे रही है जबकि बातचीत का सिलसिला शुरू हो जाना चाहिए था। इसी तरह ससद का कामकाज बिना किसी विवाद और शोरगुल के चले, आम सहमति बनने के बाद भी अपने-अपने राजनीतिक लाभ के चलते संसद की कार्रवाई से भी निराशा ही हाथ लगी है। किसान आआंदोलन और संसद के गतिरोध को समाप्त करने का एकमात्र उपश्य संवाद ही है।
सरकार अपना बड़ा दिल दिखाते हुए उनकी बातों को सुने और सर्वसम्मति से किसी ऐसे निर्णय पर पहुंचे जी सभी को मान्य हो। न्यूनतम समर्थन मूल्य पर समिति की रिपोर्ट शीघ्र प्राप्त कर उसको लागू करने का प्रयास करें। यदि कोई आमसहमति बन जाती है तो यह न सिर्फ किसानों बल्कि देश के हित में भी है। इस मुद्दे पर केवल सरकार की ही जिम्मेदारी नहीं है, किसानों को भी हठधर्मिता नहीं दिखानी चाहिए। ऐसा ही विपक्षी दलों के नेताओं से भी अपेक्षा तो की जा सकती है। किसान विपक्षी दल और सरकार एक मंच पर आकर किसान हित और देशहित पर खुले हृदय से चर्चा कर दीर्घ समस्या का सर्वमान्य समाधान करें।
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