आस्था बनाम अंधविश्वास धर्म का वास्तविक अर्थ क्या ?
लेखक: सुशोभित
03 फ़रवरी 2025, नई दिल्ली: आस्था बनाम अंधविश्वास धर्म का वास्तविक अर्थ क्या ? – मूढ़ता का एक महासागर धर्म के नाम पर भारत-देश में हहराता है, किन्तु इसके विरुद्ध बोले कौन? लोभियों की बस्ती में अपरिग्रह पर प्रवचन करने वाला सफल नहीं हो सकता, आदर नहीं पा सकता। अंधविश्वास का प्रतिकार और देश में एक बौद्धिक-संस्कृति का निर्माण सरकार का काम है, किन्तु सरकार तो उन्हीं लोगों के वोटों से बनेगी, जो अंधविश्वासी हैं। फिर वो उन्हें समझाईश देगी या उलटे उन्हें बढ़ावा देगी? जो समाज मीडिया का ग्राहक है, वह उसकी धारणाओं पर क्यों कर प्रश्न करने लगा? जो कथित बौद्धिक हैं, उनमें भी बहुतेरे उसी अंधविश्वास के वशीभूत हैं, जिसे आस्था कहा जाता है। फिर बोले कौन? इस देश में जो प्रबुद्ध व्यक्ति हंै, वह घुट-घुटकर जीता है। वह जानता है उसकी सुनने वाला कोई नहीं।
कुम्भ में स्नान करने से मोक्ष और पुण्य मिलता है, इसका कोई प्रमाण नहीं है। मोक्ष और पुण्य जैसा कुछ होता है, इसका भी साक्ष्य नहीं है। इतना ही नहीं, मोक्ष और पुण्य से हम क्या समझते हैं, इसकी अगर व्याख्या करने को मैं कहूँ तो कोई ठोस और सुप्रमाणित व्याख्या भी नहीं कर सकेगा। सब कपोल-कल्पित है, सब अंधविश्वास है। किन्तु करोड़ों लोग इस मूढ़ता में डूबे हैं और सरकार और मीडिया इसे बढ़ावा देते हैं। इस दुष्चक्र का कोई अंत नहीं।
धर्म की दृष्टि से भी अगर बात करूँ तो कुछ पाने की लालसा लोभ है, धर्म नहीं। आपके घर के सामने धन की लालसा में याचक की तरह भीड़ एकत्र हो तो वह भिक्षुक कहलाएगी। किन्तु मोक्ष की लालसा में करोड़ों लोग नदी में डुबकी लगाने पहुँच जाएँ तो वो धर्मालु कहलाते हैं? श्रद्धालु कहलाते हैं? लोभ में धर्म कहाँ है? यह तो सस्ते में कुछ पा लेने की कामना है। कुम्भ में नदी नहाने से पाप धुल जाते हैं- इसका कोई प्रमाण नहीं। पाप समाज में बढ़ रहा है- इसका प्रमाण अवश्य है। सैकड़ों कुम्भ इस देश में आज तक हुए और उत्तरोत्तर देश में पाप, भौतिकता, मांसभक्षण, नीचता, भ्रष्टाचार, भोगवाद बढ़ रहा है। वह धर्म किस काम का, जो धर्मप्राण जनता के जीवन में गुणात्मक, नैतिक परिवर्तन नहीं लाता? कुम्भ के इतने सहस्र नहानों ने आज तक कितने पाप धोए हैं? क्या कुम्भ का स्नान अतीत के पापों से मुक्त होने का शॉर्टकट और भविष्य में किए जाने वाले पापों का लाइसेंस है? कि चाहे जितने अपराध करो, नदी नहाकर सब धुल जाएगा? एक मामूली अपराध करने पर भी क़ानून दण्ड देता है। फिर पाप तो और बड़ा अपराध है। वह नदी में नहाने से कैसे धुलेगा? उसका दण्ड क्या नहीं भुगतना होगा? क्या यही हिन्दू-धर्म का अटल कर्म-सिद्धान्त है कि कुम्भ में नहाने से प्रारब्ध गल जाएगा? जो लोग ईश्वर के उपासनागृहों में पंक्तिबद्ध खड़े होते हैं, भीड़ के भीड़ कुम्भ में नदी नहाने चले जाते हैं, उनके जीवन में झाँककर देखें, उनके आचरण का मूल्यांकन करेंगे तो क्या आपको धर्म दिखलाई देगा? जिस भीड़ में सामान्य नागरिक-बोध भी नहीं, जो पंक्तिबद्ध होकर चलना नहीं जानती, जो भगदड़, झूमा-झटकी, धक्का-मुक्की में विश्वास रखती है, क्या उसमें आचार्य शंकर के विवेक-चूड़ामणि का उदय सम्भव है?
अध्यात्म तो महाप्रज्ञा है, विराट-विवेक है, विलक्षण-दृष्टि है- जिसमें सामान्य शिष्टाचार भी नहीं, क्या उसको धर्म मिल जाएगा? भगदड़ सदियों से भारतीय-चरित्र का सौन्दर्यशास्त्र है। दुनिया के किसी देश में ऐसी भगदड़ नहीं मचती, जैसी भारत में मचती हैं और सहस्रों सालों से मचती आ रही हैं। सामूहिक अवचेतन में पैठी है यह। तनिक अफ़वाह पर सिर पर पैर रखकर दौडऩे की वृत्ति भारतवासियों में इतनी गहरी है कि चाहे पच्चीस-पचास कुचलकर मर जायें, कोई हजऱ् नहीं। संगम-किनारे डेरा डालकर सोते रहना कि सबसे पहले हमीं नहाएँगे और देर तक नहाएँगे और भीड़ का इन्हीं लोगों के ऊपर चढ़कर भगदड़ मचा देना- क्या यह धर्म का लक्षण है? क्या यह प्रार्थना में डूबा चित्त है? क्या इस भीड़ में तनिक भी सत्व है, शुद्धि है, पवित्रता है? सच तो यह है कि अगर यातायात-चौराहों पर लाल, पीली, हरी बत्तियाँ न हों, तो पूरा भारत ही एक भगदड़ है, फिर मेलों-ठेलों की क्या कहें। बुनियादी स्तर पर शिक्षा का अभाव, नागरिक-अधिकारों और कर्तव्यों के प्रति जागरूकता की शोचनीय दशा, तिस पर धर्म की अफीम, उसमें भी हज़ार मत-सम्प्रदाय, अपने-अपने कुऩबों और क़बीलों का घमण्ड, सामूहिकता के शोर में वैयक्तिक-चेतना का पराभव- कौन कहता है भारत विश्वगुरु है? प्रतिभा का एकाध नक्षत्र कोई यहाँ-वहाँ चमक उठे उससे क्या, इस देश की बहुसंख्य जनता तो मूढ़, दिग्भ्रान्त, अंधविश्वासी और पाखण्डी है। मूर्खता का एक महासागर धर्म के नाम पर भारत-देश में हहराता है, किन्तु इसके विरुद्ध बोले कौन?
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