सब्जियों में आलू की उपयोगिता
शायद ही कोई ऐसी सब्जी हो जिसमें आलू का उपयोग नहीं होता हो। परिणामत: इसकी जरूरत प्रत्येक सब्जी और व्यक्ति को होती है। ऐसे में आलू की मांग में बहुत ज्यादा गिरावट आने की संभावना बहुत ही कम होती है। यही कारण है कि रबी में खाद्यान्न फसलों के बाद यदि किसी का स्थान आता है तो वह आलू है। हमारा देश विश्व का पांचवे नंबर का आलू उत्पादक है। विगत कुछ वर्षों से आलू के क्षेत्र में सराहनीय प्रगति हुई है। यदि 4-5 दशक पहले का रिकॉर्ड देखें तो आलू का कुल क्षेत्र 2.34 लाख हेक्टर था जो बढ़कर वर्तमान में दस गुना अधिक हो गया है। हमारे प्रदेश में आलू उत्पादन में क्रांति लाने वाले सभी प्रकृति साधन मौजूद हैं। वर्तमान में इसका क्षेत्र करीब 56 हजार हेक्टेयर के आसपास है। आलू का 80 प्रतिशत क्षेत्र प्रदेश के मालवांचल में आता है जिसमें इंदौर, देवास, शाजापुर, उज्जैन, मंदसौर, रतलाम एवं धार जिले प्रमुख हैं। शेष 20 प्रतिशत आलू का क्षेत्र जबलपुर, छिंदवाड़ा, सागर, बैतूल इत्यादि में आता है। आलू की उत्पादकता करीब 15 टन/हेक्टर है जिसे बढ़ाने के लिये प्रदेश की जलवायु, भूमि बहुत सहायक हो सकती है।
पड़ोस के प्रदेश छत्तीसगढ़ में आलू का क्षेत्र 11-12 हजार हेक्टर है। जिसका अधिकांश क्षेत्र कोरिया, बस्तर, रायगढ़ तथा बिलासपुर जिलों में आता है। आलू की खेती के लिये सबसे जरूरी पहलू है खेत की तैयारी, जितनी अच्छी जमीन बनेगी उतना ही अच्छा आलू का उत्पादन होगा। इसके अलावा संतुलित पोषक तत्व प्रबंधन जैसे गोबर खाद का उपयोग, प्रमुख पोषक तत्वों में नत्रजन, स्फुर, पोटाश की सिफारिश की गई मात्रा का उपयोग, इसके अलावा सूक्ष्म तत्व जैसे जस्ते का उपयोग, कुछ क्षेत्रों में आवश्यकता अनुरूप किया जाना चाहिए। यूरिया की आधी मात्रा बुआई के समय तथा शेष आधी मिट्टी चढ़ाने के समय दिया जाना चाहिए। स्फुर – पोटाश की पूरी मात्रा बुआई के समय ही दी जाना चाहिए। सभी उर्वरकों का उपयोग भूमि में बीज के नीचे दी जाने से इसकी उपयोगिता बढ़ जायेगी। आलू बीज को शीत भंडार गृह से निकालने के बाद कुछ घंटे छाया में रखना चाहिए फिर स्थान्तर किया जाये यह अच्छे अंकुरण के लिये जरूरी होगा। बीजोपचार भी अन्य फसलों की भांति अच्छे अंकुरण के लिये जरूरी होगा। आलू की फसल में मिट्टी चढ़ाना सबसे अधिक महत्वपूर्ण कार्य है इससे आलू में हरापन नहीं आ पाता है।
निंदाई – गुड़ाई कार्य सावधानी से कुशल मजदूरों के द्वारा ही किया जाना चाहिये। उल्लेखनीय है कि आलू की फसल में अगेती झुलसा तथा पिछेती झुलसा रोगों से बड़ी हानि होती है। अगेती झुलसा का आक्रमण एवं विस्तार पिछेती झुलसा की तुलना में धीरे-धीरे होता है इसलिये इसके उपचार के लिये समय मिल जाता है जबकि पिछेती झुलसा एकाएक आता है और विनाश करने की क्षमता रखता है। शीतकाल में कम तापमान के साथ भारी औस आद्र्रता से जो वातावरण बनता है उससे पिछेती झुलसा का विस्तार शीघ्रता से हो जाता है। समय पर इसके नियंत्रण का उपाय करना जरूरी होगा। पाले से हानि के उपाय भी मौसम परख कर करना जरूरी है। आलू के विपणन संबंधित कठिनाईयां आज भी है। पर अगर उनका समाधान हो जाये और निर्यात के अवसर बढ़ जाये तो अच्छा होगा। शीतगृहों की उपलब्धि यदि बढ़ जायें तो आलू से अधिक से अधिक विदेशी आर्थिक लाभ प्राप्त करना कोई असम्भव नहीं है। आलू की कुछ अच्छी किस्में जैसे कुफरी सूर्या आज उपलब्ध है जिससे अच्छे उद्योग कायम किये जा सकते हंै। इस किस्म की यह भी विशेषता है कि इसके सेवन से मधुमेह के मरीजों को कोई हानि नहीं होती। आज आलू के उत्पादन बढ़ाने के लिये विकसित तकनीकी उपलब्ध है जिसका विस्तार जरूरी है उत्पादन लागत के लिये सुलभ ऋण व्यवस्था की जाने से निश्चित ही आलू के क्षेत्र का विस्तार हो जायेगा उद्योग बढ़ेंगे और खेती लाभकारी धंधा बन जायेगी। साथ ही आलू के विपणन में बिचौलियों की नकारात्मक भूमिका पर पैनीनजर रखना होगी। ताकि जमाखोरी और किसानों के मिलने वाले भावों को लेकर कोई समस्या खड़ी न हो सके।