कल्पतरु – केले की खेती से बढ़ाएं आमदनी
- कुमुदनी साहू , डॉ. जी.डी. साहू
- सेवन दास खुंटे
फल विज्ञान विभाग, इंदिरा गाँधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर (छग)
28 सितम्बर 2022, कल्पतरु – केले की खेती से बढ़ाएं आमदनी – केला भारत के प्राचीन फलों में महत्वपूर्ण फल है। इसके विविध उपयोग तथा महत्व को देखते हुये इस फल को कल्पतरु का संबोधन भारतीय संस्कृति में किया जाता है। इस पौधे के सभी भागों को किसी न किसी रुप में प्रयोग किया जाता है। केले के फलों की वर्ष भर उपलब्धता और पोषक तत्वों की प्रचुर मात्रा, इसे प्रत्येक व्यक्ति के लिए एक संपूर्ण पौष्टिक फल बनाने में महत्वपूर्ण हैं।
भूमि
केले की फसल हेतु मिट्टी का चयन करने में मृदा की गहराई और जल निकासी दो सबसे महत्वपूर्ण घटक है। इसकी अच्छी उत्पादन हेतु खेत में मिट्टी 0.5 से 1 मीटर गहरी हो। मृदा नमीधारक, उपजाऊ, जैविक पदार्थ में प्रचुर तथा 6.5 से 7.5 पी.एच. मान वाली हो। अच्छे जल निकास वाली दोमट भूमि (डोरसा/ माल/ चवारे) केले की खेती के लिए उपयुक्त होती है।
उन्नत किस्में
ग्रैंड नेन (जी.-9), डवार्फ कैवेन्डिश, लाल केला, उद्दयम
प्रर्वधन
केले का प्रवर्धन अधो भूस्तारी या सकर्स द्वारा किया जाता है। तलवार सकर की पत्तियां कम चौड़ी होती हैं। जिनका आकार बिल्कुल तलवार के आकार का होता है। नए पौधे के लिए तलवार सकर उत्तम माने जाते हंै।
उत्तक प्रर्वधन
उत्तक प्रर्वधन (टिशु कल्चर) के द्वारा तैयार पौधों को प्रसारण के लिये उपयोग में लाया जाता है। उत्तक संवर्धन द्वारा तैयार पौधों की निम्नलिखित विशेषताएं होती हंै।
- इस विधि से तैयार पौधे रोग व्याधि से मुक्त रहते हैं।
- तैयार पौधों को आसानी से एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाया जा सकता है।
- इससे तैयार पौधों में समरूपता होती है।
- परंपरागत संकर द्वारा फसलोत्पादन की अपेक्षा इस विधि से तैयार पौधों से कम समय में अधिक उत्पादन लिया जा सकता है।
खेत की तैयारी
गर्मी के महीनों में खेत को गहरी जुताई करके छोड़ दें जिससे खरपतवार व कीट व्याधि नष्ट हो जाये। इसके बाद हैरो चलाकर खेत समतल कर लें एवं उचित दूरी पर 60360360 सेमी. के आकार के गड्ढे खोदकर 15-20 दिनों के लिए खुला छोड़ दें। इसमें 10 कि.ग्रा. गोबर की खाद एवं 500 ग्राम नीम की खली मिलाकर गड्ढा भर दें।
खाद एवं उर्वरक
अच्छी सड़ी हुई गोबर की खाद 10 कि.ग्रा. गड्ढे भरते समय एवं 10 कि.ग्रा. पौधे लगााने के 3-4 माह बाद दें। भूमि के उर्वरता के अनुसार प्रति पौधा 350 ग्राम नत्रजन, 150 ग्राम स्फुर तथा 300 ग्राम पोटाश की आवश्यकता पड़ती है। स्फुर की आधी मात्रा पौध रोपण के समय तथा शेष आधी मात्रा रोपाई के बाद दें, नत्रजन की पूरी मात्रा 5 भागों में बाँटकर अगस्त, सितम्बर, अक्टूबर, फरवरी एवं अप्रैल में दें। पोटाश की पूरी मात्रा तीन भागों में बाँटकर सितम्बर, अक्टूबर एवं अप्रैल में दें।
सूक्ष्म पोषक तत्व
जिंक एवं बोरॉन की कमी के लक्षण पौधे पर दिखाई देते हंै। इसकी कमी के लक्षण दिखाई देने पर पत्तियां छोटी एवं पत्तियों के शिराओं में उत्तकक्षय दिखाई पड़ती है। इसलिए पौधे लगाने के तृतीय सप्ताह बाद 50 ग्राम/पौधे के हिसाब से बोरिक एसिड एवं जिंक सल्फेट डालें।
सिंचाई
खेत में नमी हमेशा बनी रहे। पौध रोपण के बाद सिंचाई करना अति आवश्यक है। आवश्यकतानुसार ग्रीष्म ऋतु में 7 से 10 दिन तथा शीतकाल में 12 से 15 दिन के अंतराल पर सिंचाई करते रहें। मार्च से जून तक यदि, केले के थालों पर पॉलीथिन का पलवार बिछा देने से नमी सुरक्षित रहती है, सिंचाई की मात्रा भी आधी रह जाती है साथ ही फलोत्पादन एवं गुणवत्ता में वृद्धि होती है। पौधों को लगाने के बाद सिंचाई करें। इसके बाद मौसम के अनुसार सिंचाई करें। टपक (ड्रिप) सिंचाई केले के लिए ज्यादा लाभप्रद है। इस पद्धति से पानी की बचत होती है एवं उत्पादन भी अच्छा प्राप्त होता है।
निंदाई-गुड़ाई
समय-समय पर केले की फसल में निंदाई – गुड़ाई जरूरी है। साथ ही साथ पौधों पर मिट्टी चढ़ाते रहें, ताकि पौधे को अधिक से अधिक मजबूती और स्तम्भन शक्ति मिल सके।
अनावश्यक पुत्तियां (सकर) निकालना केले के घेर को सहारा देना
मिट्टी चढ़ाना: केले के पौधों में मिट्टी समय-समय पर चढ़ाते रहें जिससे पौधे ज्यादा हवा गिर न जायें। पौधों के जड़ों का विकास अच्छे से हो सके। केले के लम्बे वाली किस्मों में मिट्टी चढ़ाना अत्यंत ही आवश्यक है।
नर फूलों को निकालना: केले के पौधों में फल के घेर का पूर्ण विकास हो जाने पर घेरे के अंतिम छोर पर लगा हुआ नर फूल को निकाल दें जिससे की केले के घेर में लगा हुआ अंतिम फलों के गुच्छों का वृद्धि एवं विकास हो सके।
मेटॉकिंग: केले के मुख्य फसल के कटाई उपरांत मुख्य फसल के तने का जमीन की सतह से 60 सेमी ऊपर काट दी जाती है एवं बाकी तने को जमीन पर ही छोड़ दी जाती है इस तने में विघमान पोषक तत्व पेड़ी वाली केले के फसल को धीरे-धीरे मिलता रहता है जिससे पेड़ी वाली फसल की वृद्धि तीव्र गति से होता है। जमीन की सतह से 60 सेमी ऊपर काटी गई केले के तनों को बाद में कई बार में काटा जाता है।
गर्म हवा से सुरक्षा: केले के पौधों को तेज हवाओं से बचाव करना अत्यंत आवश्यक होता है। वायु अवरोधक के रूप में सेसबेनिया या एमपी चरी को उत्तर पश्चिम दिशा की ओर पांच कतारों में लगायें।
केले की रोपाई
केला लगाने का उत्तम समय जून-जुलाई का महीना है। ग्रैंड नेन व ड्वार्फ कैवेन्डिश को 2.031.5 मीटर की दूरी पर लगा सकते हैं। पौधा लगाते समय ध्यान रखें कि पौधों को उचित दूरी पर तैयार गड्ढों में लगाकर मिट्टी को पौधों के पास अच्छी तरह से दबा दें एवं तुरंत हल्की सिंचाई करें।
केले में आवश्यक अंतर सस्य क्रियाएं
अनावश्यक पुत्तियां (सकर) निकालना: पौधे के अधिक वृद्धि व विकास के लिए पैतृक वृक्ष से निकले हुए अन्य दूसरे अधो-भूस्तारी को मुख्य पौधे में फल आने तक वृद्धि करने से रोकेें। अन्यथा ये अनैच्छिक अधो-भूस्तारी केले के फल उत्पादन पर बुरा प्रभाव डालते हैं। पौधे लगाने के 2-3 माह बाद से ही पौधों के बगल से पुत्ती (सकर) निकलने लगती है। जिसे समय समय पर निकालते रहें। जब केले में फूल आना शुरू हो उस समय एक स्वस्थ सकर, आगामी (रेटून) की फसल के लिये रखें जो मुख्य फसल कटने तक लगभग 3-4 माह की हो जाती है। इस बीच और जो भी सकर निकलते हैं उसे निकालते रहें।
केले के घेर को सहारा देना: केले के घेर को बांस द्वारा कैंची आकार में फंसाकर सहारा दें, अन्यथा पौधों के टूटने की संभावना रहती है। विशेष रूप से घेर निकलते समय सहारे की आवश्यकता होती है। केले के पौधे फल आने पर एक तरफ झुक जाते हैं तथा अधिक भार पडऩे पर पौधे टूट सकते हैं, इसके लिए पौधों में बांस अथवा लकड़ी का सहारा दें। साथ ही केले के पौधों की जड़ों में 25 से 30 सेंटीमीटर मिट्टी चढ़ा दें।