Horticulture (उद्यानिकी)

नींबू की उत्पादन तकनीक

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  • दुर्गाशंकर मीणा, तकनीकी सहायक
    जयराज सिंह गौड़, डॉ. मूलाराम, सहायक आचार्य
    कृषि अनुसंधान केंद्र, मण्डोर
    (कृषि विश्वविद्यालय, जोधपुर)

11 फरवरी 2022,   नींबू की उत्पादन तकनीक – भारत में आम तथा केले के पश्चात् नींबू प्रजाति के फलों का तीसरा स्थान है इसमें सर्दी तथा गर्मी सहन करने की क्षमता होने के कारण नींबू प्रजाति का कोई न कोई फल लगभग सभी प्रान्तों में उगाया जाता है। जैसे संतरा की खेती के लिये नागपुर विख्यात है जबकि मौसम्बी महाराष्ट्र में, सतगुड्डी आंध्रप्रदेश में, ब्लड रेड माल्टा, जाफा एवं वेलेन्सीया पंजाब एवं राजस्थान में तथा नींबू आंध्रप्रदेश, बिहार, गुजरात, तमिलनाडु तथा अन्य राज्यों में व्यवसायिक स्तर पर उगाये जाते हैं। वैसे नींबू सम्पूर्ण भारत में उगाया जाता हैं नींबू प्रजाति के फलों की दो श्रेणियाँ हैं -खट्टी जातियाँ तथा मीठी जातियाँ।

  • खट्टी जातियों में नींबू गलगल रंगपुर लेमन, कर्ना खट्टा इत्यादि फल आते हैं।
  • मीठी जातियों में संतरा, मौसम्बी, ग्रेपफ्रूट चकोतरा इत्यादि फल आते हैं।

इन फलों में विटामिन ए, बी, सी और खनिज पदार्थ प्रचुर मात्रा में पाये जाते हैं। नींबू प्रजाति के फल विटामिन ’सी’ के प्रमुख स्त्रोत है। नींबू प्रजाति के फलों से बनने वाला परिरक्षित पदार्थ ‘मार्मलेड’ की विश्व में पर्याप्त मांग रहती है। इसके पुष्प पर्ण तथा छिलकों से प्राप्त तेल का भी व्यवसायिक महत्व है। इसकी मीठी जातियाँ जैसे संतरा, मौसम्बी, ग्रेपफ्रूट, आदि का उपयोग ताजे फलों के रूप में किया जाता है। जबकि खट्टी जातियाँ जैसे नींबू, गलगल, रंगपुर लेमन, करना खट्टा आदि का उपयोग पानक (स्क्वैश) कार्डियल, अचार तथा विभिन्न प्रकार की औषधियों में किया जाता हैं। नींबू वर्गीय फलों का राष्ट्रीय अनुसंधान केन्द्र नागपुर में स्थित है।

जलवायु

नींबू की खेती उष्ण से शीतोष्ण जलवायु तक सफलतापूर्वक की जा सकती हैं। शुष्क एवं अर्धशुष्क क्षेत्र जहाँ पानी की सुविधा हो, इसकी खेती के लिए उत्तम रहते हैं। इसकी सफल बागवानी के लिये उपयुक्त तापक्रम 16 से 32 डिग्री से. है। राजस्थान के उन भागों में जहाँ पाला कम पड़ता हैं तथा वातावरण नम व जाड़े की ऋतु लम्बी होती है, वहाँ इसकी खेती सफलतापूर्वक की जाती हैं।

भूमि

नींबू की खेती सभी प्रकार की मृदाओं में की जा सकती है किन्तु उपजाऊ दोमट भूमि सर्वोत्तम मानी गयी है। भूमि जीवांश युक्त व 2 मीटर गहरी होनी चाहिए। अधिक रेतीली व चिकनी मिट्टी इसके लिए उपयुक्त नही रहती हैं। भूमि में जल निकास की उचित व्यवस्था हो।

उन्नत किस्में

भारत मे उगाई जाने वाली विभिन्न किस्मों में कागजी नींबू, पाती नींबू, कागजी कलाँ, बारहमासी नींबू, इन्दौर सीडलैस, पन्त लेमन -1 आदि प्रमुख हैं। इसके अतिरिक्त कई नयी किस्में जैसे विक्रम, प्रमालिनी, सईशर्बती तथा जयदेवी आदि विकसित की गयी है जो अधिक उपज तथा उत्तम गुणवत्ता वाली हैं।

प्रवर्धन

नींबू का प्रवर्धन निम्न विधियों से किया जाता है –

बीज द्वारा – नींबू के प्रवर्धन की यह सबसे सरल विधि है। नींबू के बीज में बहुभ्रूणता होने के कारण एक बीज से तीन-चार पौधे निकलने की संभावना रहती है। बीज जुलाई-अगस्त के माह में भूमि से 10 सेमी. ऊंची उठी क्यारियों में बोना चाहिए। उगने के 6 माह के पश्चात् दूसरी क्यारियों में 10 से 15 सेमी. के अंतर पर या पॉलीथिन की थैलियों में स्थानान्तरित कर दें। लगभग 9 माह के बाद पौधे खेत में रोपने योग्य हो जाते हैं।

गूटी दाब द्वारा – गूटी के लिए ऐसी शाखा का चुनाव करते हैं जो एक वर्ष पुरानी हो व लगभग एक सेमी. मोटी हो। जुलाई-अगस्त के महीने में चुनी गई शाखा पर 4 सेमी लम्बाई में छल्ले के आकार में छाल उतार दी जाती है, ध्यान रहे की छाल पूरी तरह हट जाए व काष्ठ को कोई हानि न पहुँचे। कटे हुए भाग को नम मॉस से ढक कर ऊपर से पॉलीथिन का टुकड़ा लपेट दिया जाता है। लगभग 20 से 25 दिन बाद कटाव के ऊपर वाले भाग से जड़े आ जाती हंै। इस प्रकार तैयार गूटी को जड़ सहित पैतृक वृक्ष से काट कर अलग करके नर्सरी में पॉलीथिन की थैलियों में लगाकर अर्ध छायादार जगह पर रख देते हैं। गूूटी में जड़ों के शीघ्र के तथा अच्छे फुटान के लिये लेनोलीन के साथ आई.बी.ए. (500-1500 पी.पी.एम.) का लेप कटाव के ऊपर वाले भाग पर लगाने की अनुशंसा की जाती है।

पौध रोपण

नींबू के पौधे लगाने के लिए मई-जून के महीने मे 75म75म75 सेमी. आकार के गढ्ढे 6म6 मीटर की दूरी पर खोदे जाते है। उक्त गड्ढों को 10-15 दिन खुला छोडऩे के बाद प्रत्येक गड्ढे में 20 किलोग्राम गोबर की खाद, किलोग्राम सुपर फास्फेट तथा 50 से 100 ग्राम मिथायल पैराथियान पाउडर मिट्टी के साथ मिलाकर पुन: भर देना चाहिए । जुलाई-अगस्त माह में तैयार गड्ढों में पौधे लगाना उपयुक्त रहता हैं पौधा रोपण के तुरन्त बाद सिंचाई अवश्य करें।

देशी खाद, सुपर फास्फेट तथा म्यूरेट ऑफ पोटाश की पूरी मात्रा व यूरिया की आधी मात्रा फूल आने के 6 सप्ताह पूर्व दें। यूरिया की शेष आधी मात्रा फल बनने पर दें।

सिंचाई

वर्षा ऋतु में प्राय: सिंचाई की आवश्यकता नही पड़ती है। नींबू में सर्दी में 25 दिन के अंतराल पर व गर्मी मे 15 दिन के अंतराल में सिंचाई करें। फूल खिलने के समय सिंचाई नहीं करनी चाहिए अन्यथा फूल झडऩे की सम्भावना रहती है।

कटाई-छंटाई
साधारणत: नींबू में किसी विशेष कटाई-छंटाई की आवश्यकता नहीं पड़ती हैं, परन्तु वर्ष में एक बार रोग ग्रसित, सूखी व एक दूसरे में फसी शाखाओं की कटाई-छंटाई करना चाहिए। इसके अतिरिक्त प्रारम्भिक अवस्था में निश्चित आकार प्राप्त करने के लिये कटाई-छंटाई करें।

उपज एवं भण्डारण
नींबू का पौधा 3-4 वर्ष की आयु के पश्चात् फल देने योग्य हो जाता हैं। फलों की तुड़ाई पूर्ण परिपक्व अवस्था में करनी चाहिए। नींबू का रंग हल्का पीला हो जावे तब उन्हे तोड़ लेना चाहिए। पूर्ण विकसित पौधे से लगभग 1000 से 1200 फल प्रति पौधा व औसतन 50-75 किग्रा. प्रति पौधा उपज प्राप्त होती है। नींबू के फलों को 8-10 डिग्री सेल्सियस तापक्रम व 85-90 प्रतिशत आपेक्षिक आद्र्रता पर 3-6 सप्ताह तक भण्डारित किया जा सकता है।

कीट
नींबू वर्गीय फलों को नुकसान पहुंचाने वाले विभिन्न कीटों में निम्नलिखित कीट प्रमुख हैं –
नींबू की तितली- तितली की लटें पत्तियों को खा कर नुकसान पहुंचाती है। इससे पौधों की वृद्धि रुक जाती है। इसके नियंत्रण के लिये लटों को पौधों से पकड़ कर मिट्टी के तेल में डालना चाहिए। क्विनालफास 25 ई.सी. का 1.5 मिली./लीटर पानी मैं गोल बनाकर छिडक़ाव करना चाहिए।

फल चूषक – कीट फलों से रस चूस कर नुकसान करता है। प्रभावित फल पीला पडक़र सूख जाता है और गुणवत्ता भी कम हो जाती है। इस कीट के नियंत्रण के लिये मैलाथियॉन 50 ई.सी. 1 मिली./लीटर पानी का घोल का छिडक़ाव करना चाहिए। कीट को आकर्षित करने के लिये प्रलोभक का भी उपयोग करना चाहिए। प्रलोभक में 100 ग्राम शक्कर के 1 लीटर घोल में 10 मिली. मेलाथियान मिलाया जाता है।

लीफ माइनर – यह कीट वर्षा ऋतु में नुकसान पहुंचाता है। यह पत्तियों की निचली सतह को क्षतिग्रस्त कर पत्तियों में सुरंग बनाता है। इस कीट के नियंत्रण हेतु मिथाइल डिमेटॉन 25 ई.सी. या क्विनालफास 25 ई.सी. का 1.5 मिली./लीटर पानी में घोल बनाकर छिडक़ाव करना चाहिए।
मूलग्रंथी (सूत्रकृमि) – यह नींबू प्रजाति के फलों की जड़ो को नुकसान पहुँचाता है। इसके प्रकोप से फल छोटे व कम लगते हैं। नुकसान पहुंचाता है जिससे पत्तियाँ पीली पड़ कर टहनियाँ सूखने लगती इसके नियंत्रण के लिये कार्बोफ्यूरॉन 3 जी. 20 ग्राम/पौधा देना चाहिए।
व्याधियाँ – नींबू वर्गीय फलों को प्रभावित करने वाली निम्नलिखित व्याधियाँ प्रमुख हंै-

नींबू का केंकर – यह रोग जेंथोमोनास सिट्राई नामक जीवाणु द्वारा होता है। रोग से प्रभावित पत्तियों, फलों व टहनियों पर भूरे रंग के धब्बे पड़ जाते है। फलों पर पीले, खुरदरे धब्बे बन जाने से गुणवत्ता प्रभावित होती है। कागजी नींबू इससे ज्यादा प्रभावित होते है। केंकर की रोकथाम के लिये 20 ग्राम एग्रोमाइसीन अथवा 8 ग्राम स्ट्रेप्टोसाइक्लिन को 10 लीटर पानी में घोल बनाकर छिडक़ाव करना चाहिए। नये रोग रहित पौधों का चुनाव करें तथा पौधों पर रोपण से पूर्व बोर्डो मिश्रण का छिडक़ाव करें।
गमोसिस – यह तना सडऩ रोग है जिसमें तने से भूमि के पास व टहनियों के ग्रसित भाग से गोंद जैसा पदार्थ निकलता है। इस गोंद से छाल प्रभावित होकर नष्ट हो जाती है। रोग के अधिक प्रकोप से पौधा नष्ट हो जाता है। रोग के नियंत्रण के लिये छाल से गोंद हटाकर ब्लाईटॉक्स-50 0.3 प्रतिशत का छिडक़ाव करना चाहिए। इस दवा का छिडक़ाव पौधों पर भी किया जाना चाहिए। इसके अतिरिक्त बाग का उचित प्रबंधन भी रोग से बचाव करता है।

सूखा रोग (डाई बैक)- इस रोग में टहनियाँ ऊपर से नीचे की तरफ सूख कर भूरी हो जाती है। पत्तियों पर भूरे बेंगनी धब्बे बनने से सूख कर गिर जाती है। इससे उपज पर विपरीत प्रभाव पड़ता है तथा पौधा नष्ट हो जाता है। नियंत्रण के लिये रोगी भाग को काट कर अलग करना चाहिए एवं मेन्कोजेब 2 ग्राम/लीटर पानी का घोल का छिडक़ाव करना चाहिए। इसके अतिरिक्त फरवरी व अप्रैल माह में सूक्ष्म तत्वों का पौधों पर छिडक़ाव करना चाहिए।

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