Horticulture (उद्यानिकी)

धान में एकीकृत पोषक तत्व प्रबंधन

Share
धान खरीफ ऋतु की एक महत्वपूर्ण खाद्यान फसल है तथा म.प्र. में सोयाबीन के बाद इसकी खेती अन्य खाद्यान्नों की अपेक्षा सर्वाधिक हैं भारत में धान की खेती 4 करोड़ हेक्टेयर से अधिक क्षेत्रफल में की जाती है जिससे 9 करोड़ टन से अधिक की पैदावार होती है धान के कुल रकबे का लगभग 42 प्रतिशत क्षेत्र आज भी वर्षा आधारित है म.प्र. में धान की बुआई का क्षेत्र 9 लाख हेक्टेयर है, जिससे 12.6 लाख टन धान का उत्पादन होता है। धान का कटोरा कहे जाने वाले राज्य छत्तीसगढ़ में धान का विस्तार 36.7 लाख हेक्टेयर है और उत्पादन 41.4 लाख टन हैं इस प्रकार भारत के विभिन्न राज्यों में धान की बुआई का क्षेत्र, उत्पादन एवं उत्पादकता में काफी विषमता हैं इसका मुख्य कारण धान की उच्च उत्पादक एवं संकर प्रजातियां को न अपनाना, फसल चक्रण में दोष, रोग एवं कीटों का प्रकोप एवं सबसे महत्वपूर्ण कारण मृदा की उपजाऊ शक्ति में कमी एवं रसायनिक जैविक उर्वरकों का उचित प्रबंधन नहीं होना हैं।

धान की अधिक पैदावार के लिये एकीकृत पोषक तत्व प्रबंधन एक महत्वपूर्ण पद्धति हैं, इसमें रसायनिक उर्वरक, सूक्ष्म पोषक तत्व, जैविक उर्वरक, हरी-नीली शैवाल, गोबर खाद एवं हरी खाद आदि का समुचित उपयोग किया जाता हैं धान के उत्पादन में मुख्य पोषक तत्व नाइट्रोजन (नत्र), फास्फोरस (स्फुर), पोटाश, जिंक (जस्ता) आदि महत्वपूर्ण हैं, जिनकी भरपाई किसानों द्वारा रासायनिक उर्वरकों की उपयोग से की जाती हैं एकीकृत पोषक तत्व प्रबंधन सभी प्रकार के आदानों को आवश्यकतानुसार उपयोग करने के लिये बढ़ावा देता हैं मृदा के स्वास्थ्य को बनाये रखने, मृदा की उपजाऊ शक्ति को बढ़ाने एवं लाभकारी सूक्ष्म जीवों की संख्या बढ़ाने के लिये एकीकृत पोषक तत्व प्रबंधन अत्यंत आवश्यक हैं।
एकीकृत पोषक तत्व प्रबंधन का सबसे पहला सिद्धांत यह है कि फसल लेने के पूर्व मृदा प्रयोगशाला में मृदा की जांच कराई जाये ताकि जांच की रिपोर्ट के आधार पर मृदा में उपलब्ध पोषक तत्वों की जानकारी प्राप्त हो सके, जिसके आधार पर पोषक तत्वों की सही मात्रा खेत में डाली जा सके सामान्य तौर में किसान भाई अपनी मृदा की जांच नहीं कराते हैं सामान्यतया धान की फसल के लिये 80-100 किलो/हेक्टर नाइट्रोजन, 50-60 किलो/हेक्टर फास्फोरस एवं 30-50 किलो/हेक्टर पोटाश की मात्रा की सिफारिश की जाती है खेत तैयार करते समय खेत में सड़ी हुई गोबर खाद अथवा कम्पोस्ट खाद का 10-12 टन प्रति हेक्टेयर का प्रयोग किया जाये तो इससे नाइट्रोजन का अधिक उपयोग हो पाता हैं एवं पोषक तत्व प्राप्त होने के साथ-साथ मृदा को भौतिक स्तर में भी सुधार होता हैं।

नाइट्रोजन: यूरिया, नाइट्रोजन का सर्वाधिक उपयोग होने वाला स्रोत हैं, यूरिया से प्राप्त होने वाले नाइट्रोजन के नुकसान को कम करने के लिये यूरिया की संपूर्ण मात्रा को धान की फसल में 3 बार में उपयोग करना चाहिए। यूरिया की पहली मात्रा लगभग एक तिहाई भाग खेत में रोपाई करने के पूर्व दिया जाना चाहिए, जिससे मृदा को नाइट्रोजन प्राप्त हो सके। इसके उपरांत दूसरी मात्रा लगभग एक तिहाई कल्ले फूटने की पहली स्टेज में टॉप ड्रेसिंग के रूप में दी जाती है ध्यान देने योग्य बात यह है कि टॉप ड्रेसिंग (ऊपर से छिड़काव) के समय खेत में पानी की निकासी कर देना चाहिए। आवश्यकता पडऩे पर 24 घंटे के उपरांत ही खेत में पानी भरना चाहिए। टॉप ड्रेसिंग से उपज में वृद्धि होती है। यूरिया की तीसरी मात्रा अर्थात् शेष एक तिहाई भाग पुष्प आने के एक सप्ताह पूर्व में डालनी चाहिए। इससे धान की बालियों की संख्या और मोटाई दोनों बढ़ जाती हैं दाना बनने के पश्चात उर्वरक का प्रयोग नहीं करना चाहिए।

फास्फोरस : धान की अच्छी उपज लेने के लिये फास्फोरस का उपयोग उपयुक्त मात्रा में होना आवश्यक है सिंगल सुपर फास्फेट का उपयोग सभी प्रकार की मृदाओं में उपयोगी माना गया हैं। फास्फोरस, धीरे-धीरे पौधों की जड़ों द्वारा खींचा जाता है, जो जड़ों की वृद्धि के लिये बहुत उपयोगी है। फास्फोरस का सम्पूर्ण उपयोग एक ही समय में खेत की मचाई (पडलिंग) के दौरान करना चाहिए। फास्फोरस का उपयोग टॉप ड्रेसिंग के दौरान नहीं करना चाहिए।

पोटाश : धान में 30-50 किलो पोटाश प्रति हेक्टेयर डालने की सिफारिश की जाती हैं काली एवं भारी मृदा में पोटाश की सारी मात्रा एक साथ बुवाई से पहले मिट्टी में डालनी चाहिए, मुख्यत: काली एवं भारी मृदा में पोटाश की मात्रा कम डालनी चाहिए। हल्की दोमट मिट्टी में पोटाश की पहली मात्रा धान की रोपाई के पूर्व एवं दूसरी मात्रा फूल आने के समय डाली जा सकती हैं।

सूक्ष्म पोषक तत्वों का उपयोग:
धान के लिये जस्ते का महत्व : ऐसी मृदा जिसमें जस्ते की कमी पाई जाती है उनमें जस्ते की कमी के निम्न लिखित लक्षण देखे गए हैं,
कल्ले फूटने में कमी 2. पौधों में असमान वृद्धि। द्य बौने पौधों की पत्तियों में भूरे रंग के धब्बे पडऩा।

  • नयी पत्तियों की निचली सतह की मिड रिब में पीलापन।
  • पत्तियों का अपेक्षाकृत सकरा होना आदि।

मृदा में जिंक (जस्ते) की इस कमी को पूरा करने के लिए जिंक सल्फेट की 25 कि.ग्रा. मात्रा प्रति हेक्टेयर के हिसाब से अंतिम पडलिंग की समाप्ति के समय डालनी चाहिए जिंक का मृदा में उपयोग खड़ी फसल में पर्णीय छिड़काव करने से कही अधिक फायदेमंद होता है जिंक की कमी से धान की फसल में खैरा रोग होता है, जिसके निदान के लिये 1 किलोग्राम जिंक सल्फेट एवं 5 कि.ग्रा. यूरिया को 200 ली.पानी में घोलकर प्रति एकड़ छिड़काव करना चाहिए। आवश्यकता पडऩे पर 7 दिनों के अंतराल में पुन: इसका छिड़काव किया जा सकता हैं।
आयरन (लोहा) एवं गंधक की कमी की पूर्ति: लोहे की कमी को क्लोरोसिस के नाम से जाना जाता है लोहे की कमी को दूर करने के लिये 1 कि.ग्रा. फेरस सल्फेट को 100 ली. पानी में घोल कर सात दिनों में एक बार छिड़काव करना चाहिए। ढैंचा की फसल से तैयार की गई हरी खाद का उपयोग भी धान की फसल में लौह तत्व की पूर्ति करता है 0.2 टन /हेक्टेयर जिप्सम पायरायट देने से लोहे एवं गंधक की आवश्यकता पूरी होती हैं।

जैव उर्वरकों के उपयोग: रसायनिक खादों की बढ़ती कीमतों के कारण जैव उर्वरकों के उपयोग के प्रति किसानों का ध्यान बढ़ा हैं बीज उपचार के अतिरिक्त जैव उर्वरकों का उपयोग कई प्रकार से किया जा सकता है एजेक्टोबैक्टर, एजोस्पाइरिलम एवं पी.एस.बी. का उपयोग धान की फसल के लिये उपयोगी है रोपाई के समय पौधों की जड़ों को जैविक खाद के घोल में 15 मिनट तक डुबोकर रखने के बाद रोपाई की जा सकती है एजेक्टोबैक्टर के प्रयोग से धान में नाइट्रोजन की उपलब्धता बढ़ती है, वही पी.एस.बी. का उपयोग फसल में फास्फोरस उपलब्ध कराता हैं।

हरी-नीली शैवाल का उपयोग
हरी-नीली शैवाल एक प्रकार का संशलेषण पौधा हैं। जिसे संश्लेषक नाइट्रोजन फिक्सिंग एजेंट भी कहते हैं हरी-नीली शैवाल के लिए जलयुक्त धान का खेत (तराई) एक आदर्श पारिस्थितिकी तंत्र है हरी नीली शैवाल, खेत में भरे हुए पानी में वृद्धि कर एक चटाई का आकर लेती जाती हैं एवं नाइट्रोजन के फिक्सिंग का काम करती हैं हरी-नीली शैवाल, मृत शैवाल कोशिकाओं के रिसाव और माइक्रोबियल गिरावट के माध्यम से तय नाइट्रोजन की आपूर्ति कर फसल के विकास को बढ़ावा देता है विभिन्न अध्ययनों से पता चल है कि, हरी-नीली शैवाल फसल के दौरान 20-30 किलो ग्राम नाइट्रोजन प्रति हेक्टेयर उपलब्ध करा सकती है धान की फसल में 10 कि.ग्रा. हरी- नाली शैवाल का कल्चर फसल की उपज में 15 प्रतिशत तक वृद्धि करता है हरी-नीली शैवाल के उपयोग से कम से कम 70 कि.ग्रा. यूरिया प्रति हेक्टेयर की दर से बचत होती है। इस प्रकार केवल रसायनिक अथवा जैविक उर्वरकों का उपयोग करने की अपेक्षा एकीकृत पोषक तत्व प्रबंधन का अधिक महत्व है धान की भरपूर पैदावार लेने के साथ-साथ मृदा की उर्वरकता बढ़ाने में एकीकृत पोषक तत्व प्रबंधन उपयोगी हैं जो कम खर्चीली, असरदार एवं टिकाऊ पद्धति है।

Share
Advertisements

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *