उद्यानिकी (Horticulture)

करें ब्रोकली की खेती

विशिष्ट गुण : ब्रोकली फूलगोभी के जैसी होती है परंतु कुछ प्रजातियों में शीर्ष (फूल) बैंगनी या सफेद रंग का होता है किन्तु हरे रंग के शीर्ष वाली गोभी अधिक गुणकारी एवं उपजाऊ है। फूलगोभी की तुलना में ब्रोकली के शीर्ष ठोस नहीं होते तथा इसका उपयोग सलाद, सब्जी तथा सूप बनाने में किया जाता है। इसमें प्रचुर मात्रा में विटामिन सी (300 मिग्रा/100 ग्राम) तथा 3.3 प्रतिशत विटामिन होता है। अन्य पौष्टिक तत्व जैसे डाइट्रीफाइबर्स भी इसमें प्रचुर मात्रा में पाये जाते हैं। इसमें ग्लूकोराफेन, जिसको कैंसर प्रतिरोधी तत्व सल्फोराफेन में परिवर्तित किया जाता है, पाया जाता है। जिससे प्रमाणित होता है कि ब्रोकली में कैंसर प्रतिरोधी गुण होता है। 

खेती के लिये वैज्ञानिक तकनीक : ब्रोकली की खेती में केवल कुछ बातों का ध्यान रखने से इसकी उत्तम फसल ली जा सकती है। व्यवसायिक खेती हेतु महत्वपूर्ण बिन्दु इस प्रकार हैं-

जलवायु तथा मृदा: अच्छे उत्पादन के लिये मध्यम ठंडी जलवायु अर्थात् 15-20 डिग्री सेंटीग्रेड तापमान तथा पाले से बचाव होना आवश्यक हैे। अगेती प्रजातियों के लिये 20-30 डिग्री सेंटीग्रेड, मध्यावधि की किस्मों के लिये 12-18 डिग्री सेंटीग्रेड तथा पिछेती किस्मों के लिये 5-7 डिग्री सेंटीग्रेड उचित तापमान है। दोमट मृदा, पीएच मान 6 से 6.8 तथा उचित जल निकास एवं पर्याप्त मात्रा में जीवांश पदार्थ होने से अच्छी मात्रा होती है। 

बुवाई समय: मैदानी क्षेत्रों में अगेती किस्मों को जुलाई में लगाया जाता है। मध्यवर्ती किस्मों को अगस्त तथा पिछेती किस्मों को अक्टूबर में लगाया जाता है। बुवाई से तात्पर्य है कि बुवाई इन माह में पौधशाला में की जानी चाहिये।  पर्वतीय क्षेत्रों में ब्रोकली की खेती मई से नवम्बर के मध्य की जाय तो किसानों को अधिक लाभ प्राप्त होता है। घाटी क्षेत्रों में मध्यावधि किस्मों को अगस्त तथा पिछेती किस्मों को सितम्बर तक पौधशाला में बोयें। 

ब्रोकली शब्द की उत्पत्ति लैटिन शब्द ब्राजियम से हुई है जिसका अभिप्राय शाखा या भुजा होता है। देश के मध्यम ठंडी जलवायु वाले पर्वतीय एवं मैदानी क्षेत्रों में इसकी व्यावसायिक खेती की अपार सम्भावनायें हैं। ब्रोकली की मांग दिनों-दिन बढ़ रही है। इसकी बढ़ती मांग को देखते हुये ऐसा प्रतीत होता है कि इसकी व्यावसायिक खेती सब्जी उत्पादकों के लिये लाभकारी सिद्ध होगी। यह लेख ब्रोकली के विशिष्ट गुण एवं उसकी व्यवसायिक खेती तथा उससे जुड़ी समस्यायें एवं उनके समाधानों पर प्रकाश डालता है। 

उन्नत किस्में: परिपक्वता के आधार पर ब्रोकली की किस्मों को तीन भागों में विभाजित किया गया है। 

अगेती किस्में- ये किस्में रोपण के पश्चात 60-70 दिन में तैयार हो जाती हैं। प्रमुख किस्में डी सिक्को, ग्रीन बड तथा स्पार्टन अर्ली हैं तथा संकर किस्मों में सर्दन कोमैट, प्रीमियम क्राप, क्लीप प्रमुख हैं।

मध्यवर्गीय किस्में- ये लगभग 100 दिन में तैयार हो जाती हैं। प्रमुख किस्में- ग्रीन स्प्राउटिंग मीडिया। संकर किस्में- क्रोसैर, क्रोना, ईमेरलर्ड।

पिछेती किस्में- ये किस्में रोपण के लगभग 120 दिन के उपरांत तैयार हो जाती हैं। प्रमुख किस्में- पूसा ब्रोकली-1, के. टी., सलेक्शन-1, पालम समृद्धि। संकर किस्में- स्टिफ, कायक, ग्रीन सर्फ एवं लेट क्रोना।

बीज चयन एवं बीज दर: व्यवसायिक एवं लाभकारी खेती हेतु बीज मुख्य भूमिका निभाता है। उत्तम बीज ही अच्छी फसल लेेने में सहायक होता है। अत: लाभकारी खेती हेतु अच्छे बीज का चयन करेें। इसकी खेती हेतु बीज दर 400-500 ग्राम प्रति हेक्टेयर है।

पौध की तैयारी: पौध हेतु 15 सेमी. ऊंची, 1 मीटर चौड़ी तथा आवश्यकतानुसार लम्बी क्यारी बनायें। क्यारियों में सड़ी गोबर की खाद ढंग से मिलाने से अच्छी पौध प्राप्त की जा सकती है। ट्राइकोडर्मा या स्यूडोमोनास उपचारित गोबर की खाद अधिक लाभकारी होती है। यह फसल को रोगों से बचाती है अत: पौधशाला की तैयारी के दौरान उपचारित कर खाद मिलायेें। क्यारी तैयार हो जाने के बाद उसमें 7-10 सेमी. की दूरी पर 1-2 सेमी गहरी कतारें बनायें। बीज की बुवाई करके कतारों को गोबर की खाद मिली मिट्टी ढंक देते हैं। उसके पश्चात सूखी घास या पुआल से क्यारियों को ढंक देते हैं तथा ऊपर से हल्की हल्की सिंचाई करते हैं। जब पौध बड़ी होने लगे तब घास- पुआल को हटा दें। वर्षा से क्यारियों को बचाने के लिये योजना बनानी चाहिये पन्नी अथवा टाट द्वारा वर्षा के पानी  से क्यारियों का बचाव करें। पौधशाला के लिये पॉलीथिन थैलियों का भी उपयोग कर सकते हैं। 

रोपाई: एक से डेढ़ माह की पौध रोपाई हेतु उपयुक्त है। पौध रोपण के लिये पंक्तियों से पंक्तियों की दूरी तथा पौधे से पौधे की दूरी 50&50 सेमी रखें। 

खाद एवं उर्वरक: उत्तम एवं गुणवत्तायुक्त उत्पादन हेतु 20-25 टन सड़ी गोबर की खाद, 40-50 किग्रा नत्रजन, 60-80 किग्रा फॉस्फोरस तथा 40-60 किग्रा पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से आवश्यकता होती है। फॉस्फोरस एवं पोटाश की पूरी मात्रा और नत्रजन की आधी मात्रा रोपाई के समय एवं शेष आधी मात्रा बराबर भागों में बांटकर दो बार में रोपाई से 20 व 40 दिनों बाद उपयोग करें। 

पलवार (मल्च): पौधों के चारों ओर मिट्टी को ढंकना पलवार या मल्च कहलाता है। यह चाहे कार्बनिक हो या अकार्बनिक। कार्बनिक स्रोतों के अंतर्गत सूखी पत्तियां/घास तथा गोबर की खाद तथा अकार्बनिक स्रोतों में प्लास्टिक फिल्म का उपयोग किया जाता है। नमी संरक्षण व खरपतवार नियंत्रण के लिये पलवार का प्रयोग किया जाता है। पलवार के रूप में काले रंग की प्लास्टिक (132-100 गेज) का प्रयोग अधिक प्रभावी होता है। यह नमी संरक्षण के साथ-साथ खरपतवार नियंत्रण में श्रम की बचत भी करता है। 

फूल तुड़ाई: ब्रोकली का फूल जब गठा हुआ, हरा व उचित आकार का हो तभी डंठल सहित तोडऩा चाहिये। तुड़ाई करने में विलम्ब होने से शीर्ष (फूल) में पीलापन तथा स्वाद में विपरीत प्रभाव पड़ता है।  
उपज : 75-100 क्विंटल/हेक्टेयर औसतन उपज प्राप्त होती है। 

तुड़ाई पश्चात रखरखाव: ब्रोकली को तुड़ाई के पश्चात बाजार में बिकने तक उचित रखरखाव की आवश्यकता होती है। अन्यथा ब्रोकली खराब होने लगती है। इसके लिये या तो ब्रोकली को बर्फ के साथ पैकिंग करें या ठंडे कमरे में रखें  अथवा ठंडे पानी का छिड़काव करें। उचित रखरखाव करें इसमें ब्रोकली खराब नहीं होगी तथा बाजार पहुंचने तक ताजी एवं गुणकारी रहेगी। 

फसल सुरक्षा
प्रमुख रोगआद्र्र पतन (डेम्पिंग ऑफ) : यह रोग नर्सरी में अधिक पाया जाता है। पौध या तो जमीन के नीचे ही सड़ जाती है या फिर भूमि से ऊपर आने के पश्चात भूमि के पास से गलने लगती है। उपचार : बोने से पहले बीज को कार्बेन्डाजिम 2.5 ग्राम प्रति किग्रा बीज से उपचारित करें। तथा जल निकासी का प्रबंधन अच्छा हो एवं 0.1 प्रतिशत कार्बेन्डाजिम से मृदा को भी उपचारित करें। 
काला बिगलन (ब्लैक रॉट) : यह इस फसल का प्रमुख रोग है। इसमें पत्तियों के किनारों पर अंग्रेजी के व्ही आकार के धब्बे बनते हैं। उपचार: बीज को 50 डिग्री से. गर्म पानी में 20-30 मिनट तक भिगोकर उपचारित किया जाता है। पौध को स्ट्रेप्टोसायक्लिन 1 ग्राम/10 लीटर पानी के घोल में 15-20 मिनट तक रखकर उपचारित करें। मुदकर मूल रोग (क्लब रूट) : जमीन के ऊपरी भाग में इस रोग के लक्षण इस प्रकार होते हैं। पौधा तथा शीर्ष छोटे आकार का रहता है तथा पत्तियां पीली पडऩे लगती हैं। ऐसे पौधों को जब उखाड़कर देखें तो जड़ों में अनुचित बढा़व, जड़ें मोटी व थुलथुली (क्लब) दिखती हैं। उपचार : रोग प्रतिरोधक प्रजातियों को लगाने से रोगों से निजात मिल सकती है। 
प्रमुख कीट :कटवर्म या कटुआ  : यह कीट पौधों को जमीन से काटते है। 20-25 दिन पश्चात जब पौधे का तना सख्त हो जाता है तो इसका प्रकोप कम हो जाता है। 
सूंडी : ये सूडियां शुरूआत में पत्तों तथा बाद में शीर्ष को नुकसान पहुंचाती हैं। नियंत्रण हेतु नीम के बीजों के पाउडर का घोल 40 ग्राम/ लीटर पानी की दर से 10 दिन के अंतराल में छिड़काव करें। कार्टप हाइड्रोक्लोराइड का 175 ग्राम/हे. की दर से छिड़काव करने से भी लाभ होता है। 
  • डॉ. ए. के. सिंह
  • डॉ. जय सिंह

singhak123@rediffmail.com

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