जल संरक्षण की कृषि में उपयोगिता
- दीपक चौहान (वैज्ञानिक – कृषि अभियांत्रिकी) , डॉ. मृगेन्द्र सिंह (वरिष्ठ वैज्ञानिक एवं प्रमुख)
- डॉ. अल्पना शर्मा (वैज्ञानिक) ,भागवत प्रसाद पंद्रे (कार्यक्रम सहायक)
कृषि विज्ञान केन्द्र, शहडोल
ज. ने. कृषि विश्व विद्यालय, जबलपुर
3 जून 2021, शहडोल/जबलपुर । जल संरक्षण की कृषि में उपयोगिता – वर्षा जल प्रबंधन: भारत में प्रकृति की देन से प्रचुर मात्रा में वर्षा होती है परन्तु देश में स्थानिक वर्षा की मात्रा एवं वितरण अस्थाई रूप से अत्यधिक परिवर्तनशील है। कम अवधि के साथ उच्च तीव्रता की वर्षा की वजह से बारिश जमीन की सतह पर गिरने के बाद अपवाह के रूप में बह जाती है। इसलिए उस वर्षा के पानी को वही संचय करना बहुत जरुरी है। सामान्यत: वर्षा जल का संचयन दो तरीकों से किया जा सकता है जैसे इन-सीटू एवं एक्स-सीटू।
इन-सीटू वर्षा संरक्षण: इन-सीटू तकनीक एक तरीके से मृदा प्रबंधन का उपाय है जो वर्षा जल के अन्त शरण (इंफिल्ट्रेशन) को बढ़ती है एवं सतही अपवाह करती है। इन-सीटू जल संरक्षण के तरीकों का प्राथमिक उद्देश्य खेती योग्य क्षेत्र में सिंचित वर्षा जल के अंतशरण में सुधार के द्वारा मिट्टी की परतों में पानी का भण्डारण को बढ़ावा देना है। आमतौर पर इन-सीटू वर्षा जल संरक्षण के लिये कुछ पद्धतियों का इस्तेमाल किया जाता है।
चौड़ी क्यारी एवं कुंड पद्धति:- इस पद्धति में लगभग 100 सेमी चौड़ी क्यारियाँ 50 सेमी गहरे कुंडों के साथ बनाई जाती है। इन क्यारियों की चौड़ाई को खेती के लिये स्थान की स्थिति, फसल की ज्यामिति एवं प्रबंधन के तरीकों के आधार पर परिवर्तित किया जा सकता है। यह तकनीक उन क्षेत्रों में जहाँ काली मिट्टी पाई जाती है और जहाँ वर्षा 750 मिमी. या इससे अधिक होती है वहां उपयुक्त है।
मेड़ एवं कुंड पद्धति:- इस विधि का सिद्धांत खेत में मेड़ एवं कुंड के माध्यम से वर्षा जल संग्रहण में सुधार के द्वारा मिट्टी की ऊपरी सतह में पानी की मात्रा को बढ़ाना है। यदि ढाल के सहारे मेड़ एवं कुंड बनाया जाता है तो इस पद्धति को कंटूर मेड़ एवं कुंड पद्धति भी कहा जाता है। यह सामान्य तौर पर 5 प्रतिशत की ढलान एवं जहाँ 350-750 मिमी वर्षा होती है यह उस क्षेत्र में बनाया जाता है कुंड के दोनों किनारों पर फसलों को लगाया जा सकता है।
कंटूर ट्रेन्चिंग:- इस तकनीक में खाइयों को कृत्रिम रूप से फसल क्षेत्र में कंटूर पंक्तियों के साथ तैयार किया जाता है। यदि वर्षा जल पहाड़ी के नीचे की और बहता है तो नीचे इन खाइयों को बनाने से वर्षा का पानी इन खाइयों में एकत्रित रखा जा सकता है जो कि मिट्टी की उप सतह परत में फसल विकास एवं उपज में वृद्धि करने के लिए पौधो की जड़ों तक चला जाता है।
सीढ़ीदार खेत एवं कंटूर बंडिंग:- सीढ़ीदार खेत एवं कंटूर बंडिंग पहाड़ी के ढलान को कई छोटे-छोटे ढलानों में बांटते हंै और पानी के प्रवाह को रोककर मिट्टी में पानी के अवशोषण को बढ़ावा देते हैं। साथ ही मिट्टी के कटाव को भी बचाते है। यह संरचना 8 प्रतिशत से कम ढलान पर प्रभावी साबित होती है 8 प्रतिशत से ज्यादा ढलान में यह संरचना महँगी एवं काम प्रभावी साबित हो जाती है।
कंटूर खेती:- इस विधि से एक ही ढलान में खेती की गतिविधियां (जुताई, रोपाई, फसल कटाई आदि ) की जाती है इसमें ऊपर व निचे के ढलान की आवश्यकता नहीं होती है। कंटूर खेती वर्षा के अपवाह को रोकने के लिए एक छोटी बाधा के रूप में कार्य करती है। जिससे पानी को जमीन के अंदर जाने का समय ज्यादा मिल जाता है। कंटूर खेती 2 से 7 प्रतिशत तक की मध्यम ढलान वाले क्षेत्रों के लिए कारगर साबित होती है।
सूक्ष्म जलग्रहण:– इस तकनीक के तहत बारनी क्षेत्रों से वर्षा जल के अपवाह को फसली क्षेत्र में संग्रहित किया जाता है, जिससे संग्रहित क्षेत्र की मिट्टी में पानी के स्टार में सुधार हो सकता है। सूक्ष्म जलग्रहण को मुख्य रूप से पेड़ या झाडिय़ों को उगाने के काम में लिया जाता है। यह तकनीक प्रतिवर्ष 150 मिमी से काम वर्षा वाले क्षेत्रों तथा शुष्क व अर्ध शुष्क क्षेत्रों के लिए सबसे उपयुक्त है।
एक्स सीटू वर्षा जल संरक्षण:- एक्स सीटू वर्षा जल संरक्षण में वर्षा जल के अपवाह को फसल क्षेत्र के बहार एकत्रित किया जाता है। इसके लिए कई तरह की यांत्रिक संरचनाओं जैसे खेत तालाब, चौक डेम आदि की जरुरत पड़ती है।
खेत तालाब:- खेत तालाब तटबंध प्रकार का या खोदा हुआ हो सकता है। तटबंध प्रकार का तालाब उन स्थानों पर बनाया जाता है जहाँ पानी की निकासी वाली नालियों में गड्ढे हो वह स्थान उपयुक्त रहता है। इस प्रकार के तालाब में गड्ढों से मिटटी के अवसाद हटा दिया जाता है और उसमे वर्षा के पानी को एकत्रित करने के लिए एक तटबंध का निर्माण किया जाता है। खुदे हुए तालाब का निर्माण खेत में उस जगह किया जाता है जहाँ तालाब के क्षेत्रफल में वर्षा जल का अधिकतम अपवाह एकत्रित हो सके। इस प्रकार के तालाब में इनलेट व आउटलेट संरचनाओं के साथ चारों ओर तटबंध का निर्माण किया जाता है।
चेक डेम:- इस प्रकार की संरचनाओं का निर्माण जल संरक्षण क्षेत्र में जल निकासी वाली नालियों में किया जाता है। इन संरचनाओं के निर्माण के लिए स्थानीय स्तर पर उपलब्ध सामग्री (ईट, पत्थर, रेट, सीमेंट आदि) का प्रयोग किया जाता है।
नहरी क्षेत्र में जल संरक्षण:- नहरी सिंचाई भारत में कुल सिंचित क्षेत्र के 29 प्रतिशत योगदान के साथ दूसरा सबसे महत्वपूर्ण सिंचाई स्त्रोत है। कुछ नहरे वर्ष भर सिंचाई के लिए पानी उपलब्ध करवाती है जिससे जब भी फसलों को सिंचाई के लिए पानी की आवश्यकता होती है उस समय पानी की उपयुक्त मात्रा को उपलब्ध करवाया जा सके ताकि सूखे की स्थिति से फसलों को बचाया जा सके और साथ ही कृषि उत्पादन को बढ़ाने में मदद मिल सके। नहर के कमांड में काम पानी की मात्रा एवं फसल के लिए अविश्वनीय पानी की अनुपलब्धता के कारण फसल उत्पादकता संभावित उत्पादकता की तुलना में हम है। इस स्थिति में वर्षा जल संरक्षण एवं सुरक्षित सीमा तक भूजल दोहन का सुझाव दिया गया है। नहर के पानी को संचित रखने के लिए सहायक जल संरचनाओं का निर्माण किया जाता है।
जल विस्तार:- यह विधि कृत्रिम रूप से भूजल पुन:भरण के लिये व्यापक रूप से उपयोग में लाई जा रही है। इस विधि में जमीन की सतह पर पानी को भरा जाता है जिससे पानी अंत:सरण के द्वारा जमीन से जाकर भूजल स्तर में मिल जाता है।
टपकन तालाब:– यह एक कृत्रिम रूप से बनाया गया सतही जल निकाय है, जो अत्यधिक पारगम्य भूमि में सतही अपवाह को टपकन द्वारा भूजल का पुनभरण कर सके।