टिशू कल्चर केले की हाईटेक खेती से करें ज्यादा कमाई
केले की फसल से ज्यादा पैदावार लेने और अच्छी गुणवत्ता का केला प्राप्त करने के लिए जरूरी है कि केले की खेती के हर तकनीकी पहलू को समय पर सही तरीके से अपनाया जाए। जिस खेत में केले की खेती करनी हो, उस खेत की उपजाऊ ताकत यानी उस खेत में जीवाश्म की पर्याप्त मात्रा मौजूद होनी चाहिए। टिशू कल्चर से तैयार पौधों में 8-9 महीने बाद फूल आना शुरू होता है और एक साल में फसल तैयार हो जाती है, इसलिए समय को बचाने के लिए और जल्दी आमदनी लेने के लिए टिशू कल्चर से तैयार पौधे को ही लगाएं । ग्रेंड नेन किस्म यानी टिशू कल्चर तकनीक से तैयार पौधे 300 सेंटीमीटर से ज्यादा लंबे होते हैं। इस किस्म के केले मुड़े हुए होते हैं। टिशू कल्चर से तैयार पौधे की फसल तकरीबन 1 साल में तैयार हो जाती है।
कृषि जलवायु
केला मूलत: एक उष्ण कटिबंधीय फसल है तथा 13 डिग्री. सें -38 डिग्री. सें तापमान की रेंज में एवं 75-85 प्रतिशत की सापेक्षिक आद्र्रता में अच्छी तरह बढ़ती है। भारत में ग्रैन्ड नाइन जैसी उचित किस्मों के चयन के माध्यम से इस फसल की खेती आद्र्र कटिबंधीय से लेकर शुष्क उष्ण कटिबंधीय जलवायु में की जा रही है। शीत की वजह से नुकसान 12 डिग्री से.ग्रे. से निचले तापमान पर होता है। केले की सामान्य वृद्धि 18 डिग्री से.ग्रे. से शुरू होती है, 27 डिग्री से.ग्रे. पर इष्टतम होती है, उसके बाद गिरकर 38 डिग्री से.ग्रे. पर रूक जाती है। धूप की वजह से उच्च तापमान फसल को झुलसा देता है।
मिट्टी
केले के लिए मिट्टी में अच्छी जल निकासी, उचित प्रजनन क्षमता तथा नमी होनी चाहिए। केले की खेती के लिए गहरी, चिकनी बलुई मिट्टी, जिसकी पी.एच. 6-7.5 के बीच हो, सबसे ज्यादा पसंद की जाती है। खराब जल निकासी, वायु के आवागमन में अवरोध एवं पोषक तत्वों की कमी वाली मिट्टी केले के लिये अनुपयुक्त होती है। नमकीन, ठोस कैल्शियम युक्तं मिट्टी, केले की खेती के लिए अनुपयुक्त होती है। केलों के लिये ऐसी मिट्टी अच्छी होती है जिसमें अधिक अम्लता या क्षारता न हो, जिसमें अधिक नाइट्रोजन के साथ कार्बनिक पदार्थ की प्रचुरता हो एवं भरपूर पोटाश के साथ फॉस्फोरस का उचित स्तर हो।
भूमि तैयार करना
केला रोपने से पहले ढेन्चा, लोबिया जैसी हरी खाद की फसल उगाएं एवं उसे जमीन में गाड़ दें। जमीन को 2-4 बार जोतकर समतल किया जा सकता है। पिंडों को तोडऩे के लिए राटावेटर या हैरो का उपयोग करें तथा मिट्टी को उचित ढलाव दें। मिट्टी तैयार करते समय एफ.वाईएम की आधार खुराक डालकर अच्छी तरह से मिला दी जाये।
सामान्यत: 45 & 45 & 45 सेमी के आकार के एक गड्ढे की आवश्यकता होती है। गड्ढों का 10 किलो (अच्छी तरह विघटित हो), 250 ग्राम खली एवं 20 ग्राम कॉर्बोफ्यूरॉन मिश्रित मिट्टी से पुन: भराव किया जाता है। तैयार गड्ढों को सौर विकिरण के लिए छोड़ दिया जाता है, जो हानिकारक कीटों को मारने में मदद करता, मिट्टी जनित रोगों के विरुद्ध कारगर होता तथा मिट्टी में वायु मिलने में मदद करता है। नमकीन क्षारीय मिट्टी में, जहां पी.एच. 8 से ऊपर हो, गड्ढे के मिश्रण में संशोधन करते हुए कार्बनिक पदार्थ को मिलाना चाहिए।
खाद एवं उर्वरक
बरसात का मौसम शुरू होने से पहले यानी जून के महीने में खोदे गए गड्ढों में 8.15 किलोग्राम नाडेप कम्पोस्ट खाद, 150-200 ग्राम नीम की खली, 250-300 ग्राम सिंगल सुपर फास्फेट 200 ग्राम नाईट्रोजन 200 ग्राम पोटाश डाल कर मिट्टी भर दें और समय पर पहले से खोदे गए गड्ढों में केले की पौध लगा देनी चाहिए। हमेशा सेहतमंद पौधों का चुनाव करना चाहिए।
रोपने की सामग्री
टिशू कल्चर में, रोपाई के लिये पौधों की सिफारिश की जाती हैं। वे स्वस्थ, रोग मुक्त, एक समान तथा प्रामाणिक होते हैं। रोपने के लिये केवल उचित तौर पर कठोर, किसी अन्य, से उत्पन्न पौधों की सिफारिश की जाती है।
रोपाई का समय
टिशू कल्चर केले की रोपाई वर्ष भर की जा सकती, सिवाय उस समय के जब तापमान अत्यन्त कम या अत्यन्त ज्यादा न हो। ड्रिप सिंचाई प्रणाली की सुविधा महत्वपूर्ण है। महाराष्ट्र में दो महत्वपूर्ण मौसम हैं- मृग बाग खरीफ) रोपाई के महीने जून- जुलाई, कान्दे बहार (रबी) रोपाई के महीना अक्टूबर- नवम्बर।
रोपाई में दूरी
परंपरागत रूप से केला उत्पादक फसल की रोपाई 1.5 मी. &1.5 मीटर पर उच्च घनत्व के साथ करते हैं, लेकिन पौधे का विकास एवं पैदावार सूर्य की रोशनी के लिए प्रतिस्पर्धा की वजह से कमजोर हैं। ग्रैन्डातइन को फसल के रूप में लेकर जैन सिंचाई प्रणाली अनुसंधान एवं विकास फार्म पर विभिन्न परीक्षण किए गए थे। तदोपरांत 1.82 मी & 1.52 मी. के अंतराल की सिफारिश की जा सकती है, इस पंक्ति की दिशा उत्तर- दक्षिण रखते हुए तथा पंक्तियों के बीच 1.82 मी. का बड़ा अन्तर रखते हुए 1452 पौधे प्रति एकड़ (3630 प्रति हेक्टेयर) समा लेती है। उत्तर भारत के तटीय पट्टों जहां नमी बहुत अधिक है तथा तापमान 5-7 सें तक गिर जाता है, रोपाई का अंतराल 2.1 मी. &1.5 मी. से कम नहीं होनी चाहिए।
रोपाई का तरीका
पौधे की जड़ीय गेंद को छेड़े बगैर उससे पॉलीबैग को अलग किया जाता है तथा उसके बाद छ तने को भूस्तयर से 2 सें.मी. नीचे रखते हुए पौधों को गड्ढ़ों में रोपा जा सकता है। गहरे रोपण से बचना चाहिए।
जल प्रबंधन
केला, एक पानी से प्यार करने वाला पौधा है, अधिकतम उत्पादकता के लिए पानी की एक बड़ी मात्रा की आवश्यकता मांगता है। लेकिन केले की जड़ें पानी खींचने के मामले में कमजोर होती हैं। अत: भारतीय परिस्थितियों में केले के उत्पादन में दक्ष सिंचाई प्रणाली, जैसे ड्रिप सिंचाई की मदद ली जानी चाहिए।
केले के जल की आवश्यकता, गणना कर 2000 मिली मीटर प्रतिवर्ष निकाली गई है। ड्रिप सिंचाई एवं मल्ंिचग तकनीक से जल के उपयोग की दक्षता में बेहतरी की रिपोर्ट है। ड्रिप के जरिये जल की 56 प्रतिशत बचत एवं पैदावार में 23-32 प्रतिशत वृद्धि होती है।
पौधों की सिंचाई रोपने के तुरन्त बाद करें। पर्याप्त पानी दें एवं खेत की क्षमता बनाये रखें। आवश्यकता से अधिक सिंचाई से मिट्टी के छिद्रों से हवा निकल जाएगी, फलस्वरूप जड़ के हिस्से में अवरोध उत्पन्न होकर पौधे की स्थापना और विकास प्रभावित होगें। इसलिए केले के लिए ड्रिप पद्धति उचित जल प्रबंधन के लिये अनिवार्य है।
निराई-गुड़ाई
केले की खेती में नियमित रूप से निंदाई जरूरी है। पांच माह बाद प्रत्येक दो माह में निंदाई-गुड़ाई के पश्चात मिट्टी चढ़ाने का कार्य करें। नींदा नियंत्रण हेतु नींदानाशक जैसे-ग्लायसेल, पैराक्वाट आदि का उपयोग किया जा सकता हैं। प्रत्येक गुड़ाई के पश्चात मिट्टी चढ़ाने का कार्य किया जाना चाहिए।