संपादकीय (Editorial)

मिट्टी बचेगी तो देश बचेगा

बंजर भूमि का देश अपनी आजादी कैसे बचा पायेगा? यह सवाल महाराष्ट्र, यवतमाल के एक किसान सुभाष शर्मा पूछ रहे हैं। शर्माजी पुराने जैविक किसान हैं, कई वर्षों के अनुभव से उन्होंने मिट्टी का महत्व जाना-समझा है। अन्न सुरक्षा तथा सुरक्षित अन्न के लिए मिट्टी की उर्वराशक्ति बनाये रखना देश का प्रथम कर्तव्य बनता है, किन्तु आधुनिक कृषि व्यवस्था रसायन पर ही जोर देती है, मिट्टी के स्वास्थ्य को पर्याप्त महत्व नहीं दिया जाता, यह चिंता का विषय है। वैश्विक अन्न तथा कृषि संगठन (एफएओ) भी इस विषय को लेकर चिंतित है। वर्ष 2015 में अंतर्राष्ट्रीय मृदा वर्ष मनाने का आह्वान उन्होंने किया था। बाद में अपेक्षित कार्य नहीं होने के कारण इसे 2024 तक बढ़ाकर अंतर्राष्ट्रीय मृदा दशक घोषित किया गया। तीन साल बीत गए, भारत में केवल मृदा स्वास्थ्य कार्ड छोड़कर अब भी इस दिशा में कोई उल्लेखनीय कार्य नहीं हुआ है।

अन्न सुरक्षा ही नहीं, जलसंवर्धन भी मिट्टी के साथ जुड़ा है। खेतों में कन्टूर बंडिंग द्वारा मृदा के साथ-साथ वर्षा जल संवर्धन भी अपने-आप सधेगा। हवा-पानी-मिट्टी जीवन के मूलाधार हैं, उनकी हिफाजत करना सभी का फर्ज है। किन्तु अति आधुनिक तकनीक के इस जमाने में मूलभूत बातों को नजरअंदाज किया जाता है। आज हमारा देश मरुभूमि बनने जा रहा है। कुल 32 करोड़ 87 लाख हेक्टर भूमि में से 9 करोड़ 64 लाख हेक्टर भूमि अत्यंत बुरी अवस्था में है। मिट्टी की उपजाऊ परत वर्षा जल के साथ बह जाना इस बदहाली का प्रमुख कारण है। भारत में हर साल 53 करोड़ 34 लाख टन मिट्टी इसी तरह बह जाती है। हरित आवरण (पेड़-पौधे) नष्ट होना, खेतों की गहरी जुताई, जमीन में जैविक पदार्थों की कमी,कृषि रसायनों का बेहिसाब इस्तेमाल आदि कारणों से भूक्षरण होता है।

खेतों में कन्टूर बंडिंग से मिट्टी तथा बारिश का प्रभावी ढंग से संवर्धन किया जा सकता है। कन्टूर बोआई से भूमि में नमी बनी रहती है, जिससे फसल का विकास अच्छी तरह होता है। कन्टूर बोआई से उपज में बढ़ोतरी होती है, यह विदर्भ के किसानों का यह प्रत्यक्ष अनुभव है। कन्टूर बोआई का तंत्र लोकप्रिय बनाने हेतु किसानों के खेतों पर ही प्रत्यक्ष आयोजन जरूरी है। किसान प्रत्यक्ष देखकर ही सीखेगा, भरोसा करेगा। इससे उसकी आय में पहले ही साल बढ़ोत्तरी तो होगी ही,साथ-साथ भूजल भी बढ़ेगा। फसलों के जैविक अवशेष जमीन का भोजन हैं। उन्हें जलाना, खेत के बाहर कर देना एकदम गलत है। जैविक पदार्थों के बिना जमीन बंजर बनती है। मनुष्य के शरीर में जो स्थान खून का है वही जमीन में जैविक पदार्थ का मानना होगा। जैविक पदार्थ मिट्टी के कणों को बांध कर रखते हैं जिस से भूक्षरण रुकता है।

मिट्टी बनाने तथा बचाने में वृक्षों की भूमिका अहम् है। वृक्षों की पत्तियों द्वारा जमीन को विपुल मात्रा में जैविक पदार्थ प्राप्त होते हैं। वृक्षों के कारण बारिश की सीधी मार जमीन पर नहीं पड़ती। कुछ बारिश पत्तियों पर ही रुक जाती है, हवा के हलके झोंकों के साथ बूंद-बूंद नीचे आकर भूजल में परिवर्तित होती है। वृक्ष के नीचे केचुएँ अधिक सक्रिय होते हैं। वे जमीन की सछिद्रता बढ़ाते हैं। इस कारण वर्षा अधिक मात्र में भूजल में परिवर्तित होती है। वृक्ष जमीन से जितना लेते हैं उससे कई गुना ज्यादा जमीन को जैविक पदार्थों के रूप में लौटाते है। वृक्ष की जड़ें जमीन में गहरी जाकर खनिज पदार्थ लेती हैं। यह पदार्थ अंत में पत्तियों के रूप में मिट्टी के उपरी स्तर को समृद्ध बनाते हैं। वृक्ष हमें भोजन, पानी, समृद्ध भूमि तथा सही पर्यावरण प्रदान करते हैं।

खेतों में कन्टूर बंडिंग तथा बोआई का प्रशिक्षण, जैविक पदार्थों का व्यवस्थापन सिखाना जरूरी है। पढ़े-लिखे लोग भी जैविक पदार्थों के महत्व को नहीं समझते,उन्हें जला देते हैं। इससे दोहरी हानि होती है। जैविक पदार्थ तो नष्ट होते ही हैं, हवा में जहरीली कार्बनिक गैसों की बढ़ोतरी भी होती है। जैविक पदार्थों का सही व्यस्थापन अगर होता है तो कृषि क्षेत्र में पर्यावरण-हितैषी क्रांति हो सकती है। जैविक पदार्थ के लिए  जन-जागरण आवश्यक है। जैविक सामग्री से बढिय़ा खाद बनती है, ऐसी सामग्री आग के हवाले करना सिवा पागलपन के और कुछ नहीं।

जैविक प्राकृतिक कृषि पद्धति पर्यावरण स्नेही है, मिट्टी की उर्वराशक्ति बनाये रखना इसकी विशेषता है। अत: इस कृषि पद्धति का विस्तार तेजी से होना जरुरी है। इससे बढ़ती गर्मी, वायु प्रदूषण तथा पर्यावरण की अन्य समस्याएँ सुलझाने में भी मदद होगी। खाद्य फसलों के कारण कई बार जमीन का शोषण होता है, किन्तु पेड़ जमीन को वापस समृद्ध बनाते हैं। अत: वृक्षों से खाद्य प्राप्त करना उचित है। भले ही यह पूरी तरह संभव न हो सके, यथा-संभव इस दिशा में हमें प्रयास करने होंगे। महुआ, चिरौंजी, भिलावा, कौठ, सीताफल, रामफल, ताड़, काजू, कटहल, चिकू, खिरणी, आंवला, आम, सहजन, अगस्ती, कचनार, इमली, लिसोडा, ताड, सिंदी आदि वृक्ष हमें भोजन प्रदान करते हैं। कंद उगाना आसान है। उन पर कीडे तथा बीमारियों का प्रकोप कम-से-कम होता है। वे जमीन को अधिक जैविक पदार्थ लौटाते हैं।

ऊसर, बंजर भूमि को सुजलाम-सुफलाम बनाने के प्रयास कई जगह सफल हुये हैं। महाराष्ट्र के रालेगन सिद्धि, हिवरे बाजार तो मशहूर हैं ही। विदर्भ के वर्धा जिले का काकडदरा गांव, एक समय जंगल काटकर लकड़ी बेचने वाला, महुआ से शराब बनाकर बेचने वाला, कर्ज  में डूबा गांव था जो आज पेड़ लगाकर जंगल हरा-भरा कर रहा है। अपनी पथरीली जमीन को उन्होंने कन्टूर बंडिंग द्वारा उपजाऊ बनाया है। उस जमीन से वे पर्याप्त दाना-पानी पाते हैं। एक जमाने में गांव में पेयजल की भारी किल्लत रहती थी। एक बार आग लगने पर पूरा गांव भस्म हो गया था।

घास-फूस के मकान थे, आग बुझाने पानी कहां से लाते? किन्तु आज सामूहिक श्रमकार्य द्वारा गांव की शक्ल बदल गयी। इस पराक्रम में महिलाओं का विशेष योगदान है। मधुकर खडसे नामक इंजीनियर के मार्गदर्शन में 1980 के दशक में मृदा तथा जल संवर्धन कार्य काकडदरा में शुरू हुआ था। ग्रामसभा में सर्वसम्मति से निर्णय लेने की उनकी पद्धति शुरू से ही रही थी, सम्पूर्ण क्षेत्र में कन्टूर बंडिंग तथा पत्थर के बांध बनाये गये। इससे भूजल बढा, खेती की उपज भी लक्षणीय बढ़ी। सामूहिक श्रम से  कुंआ खोदा गया, मिट्टी का तालाब भी गांव वालों ने अपने श्रम से बनाया।

आज के बाजारू समय में खेती और उसके उत्पादन में सर्वाधिक महत्वपूर्ण मिट्टी आमतौर पर हमारी नजरों से ओझल हो जाती है। नतीजे में उसकी गुणवत्ता, उत्पादकता और विस्तार में लगातार कमी होती जा रही है। वैज्ञानिकों के मुताबिक देशभर में मिट्टी की उत्पादकता करीब आधी यानि 50 फीसदी रह गई है। इसे कैसे वापस लाया जाए? प्रस्तुत है, इस विषय की व्यापक पड़ताल और कुछ कारगर सुझावों की ओर इशारा करता बसंत फुटाणे का यह आलेख।
 
  • बसंत फुटाणे
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