Crop Cultivation (फसल की खेती)

तिवड़ा की उन्नतशील खेती

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भारत में रबी दलहन परिदृश्य

  • डॉ. ए. के. शिवहरे, संयुक्त निदेशक
    दलहन निदेशालय, केन्द्रीय कृषि मंत्रालय, भोपाल

 

24 नवंबर 2021,  तिवड़ा की उन्नतशील खेती – तिवड़ा दलहन फसलों में सूखा सहनशील फसल मानी गयी है एवं इसे कम वर्षा वाले बारानी क्षेत्रों में लगाया जाता है, इसके साथ शीत ऋतु में जब मसूर एवं चने की उपज अच्छी न होने की आशा होती है वहाँ तिवड़ा की फसल ली जा सकती है। तिवड़ा की फसल में सूखा सहन करने की अनोखी क्षमता होती है। इस फसल में जल भराव को भी सहन करने की क्षमता होती है। इसका उपयोग दाल एवं चपाती बनाने में भी किया जाता है। परन्तु सामान्यत: इस फसल को चारा फसल के रूप में उगाया जाता है। यह फसल मृदा में 36-48 किग्रा प्रति हे. नत्रजन स्थिरीकरण करती है, जो कि अगली फसल के लिए उपयोगी होती है।

पोषक महत्वता

प्रोटीन 31.9%, वसा 0.9%,
कार्बोहाइड्रेट 53.9%, भस्म 3.2%

जलवायु

Tiwda

तिवड़ा शीत ऋतु की फसल होने की वजह से शीतोष्ण जलवायु मे ऊगाई जाती है। साधारण रूप से तिवड़ा की फसल हेतु 15 डिग्री से. से 25 डिग्री से. तापमान की आवश्यकता होती है।

फसल स्तर

बारहवीं पंचवर्षीय योजना (2012-2015) के अंतर्गत भारत में तिवड़ा का कुल क्षेत्रफल 4.93 लाख हे. व उत्पादन 3.84 लाख टन था। देश में क्षेत्रफल (67.26 प्रतिशत) व उत्पादन (59.52 प्रतिशत) की दृष्टि से छत्तीसगढ़ का प्रथम स्थान आता है। इसके बाद बिहार (13.62 प्रतिशत व 20.09 प्रतिशत), मध्य प्रदेश क्षेत्रफल की दृष्टि से तीसरे स्थान (8.80 प्रतिशत) पर है, जबकि उत्पादन में पश्चिम बंगाल तीसरे स्थान (9.56 प्रतिशत) पर आता है क्योंकि इसकी उपज तिवड़ा उत्पादन राज्यों में सबसे अधिक है (DES, 2015-16).

प्रजातियाँ

बायो एल-212 (रतन), प्रतीक, महा तिवड़ा।

भूमि एवं भूमि की तैयारी

यह फसल अधिक अम्लीय मृदा को छोडक़र हर प्रकार की मृदा में लगाई जा सकती है। निचले क्षेत्रों की भारी मृदा में भी इसे लगाया जाता है जहाँ अन्य फसलें नहीं लगाई जा सकती और गहरी काली मृदा में इसका अच्छा उत्पादन होता है। उतेरा पद्धति में इस फसल को लगाने पर जुताई की आवश्यकता नहीं होती है। यद्धपि धान की कटाई के बाद एक गहरी जुताई और हैरो द्वारा एक सीधी और आड़ी जुताई करके पाटा लगाना जरूरी होता है।

बुआई समय

खरीफ फसल के कटने के तुरंत बाद मृदा में संचित नमी में अक्टूबर से नवम्बर के पहले सप्ताह में शुद्ध फसल लगाई जाती है। उतेरा पद्धति में सितम्बर के अंतिम सप्ताह से अक्टूबर के पहले सप्ताह में लगाई जाती है।

बीज दर एवं फसल अंतराल

उतेरा में छिडक़ाव पद्धति से बुवाई के लिए 70-80 किग्रा प्रति हे. एवं कतार विधि से बुवाई के लिए 40-60 किग्रा प्रति हे. के बीज दर की आवश्यकता होती है। उतेरा पद्धति मे तिवड़ा की बुवाई छिडक़ाव विधि से धान की पंक्तियों के मध्य किया जाता है। जबकि सामान्य बुवाई में फसल अंतराल 30310 सेमी. रहता है।

बीजोपचार

बीज को बुवाई के पूर्व थायरम 3 ग्राम फफूंदनाशक प्रति किलो बीज के हिसाब से उपचारित करें। इसके बाद राईजोबियम एवं पीएसबी कल्चर से 5-7 ग्राम प्रति किलो के हिसाब से उपचारित करें।

उर्वरक प्रबंधन

उतेरा पद्धति में फसल को धान फसल में बचे उर्वरा अवशेष में लगाया जाता है हालांकि स्फुर के प्रति तिवड़ा की प्रतिक्रिया उत्तम पाई गई है। 40-60 किग्रा प्रति हे. स्फुर में तिवड़ा की अधिक उपज प्राप्त होती है। किन्तु जहाँ धान फसल को उच्च मात्रा में फास्फोरस दिया गया हो वहाँ अलग से फास्फोरस की आवश्यकता नहीं होती है। सामान्य: फसल के लिए 100 किग्रा डीएपी, 100 किग्रा जिप्सम प्रति हे. आधार उर्वरक के रूप में 2-3 सेमी बीज के नीचे फर्टी सीड ड्रिल की सहायता से दें।

जल प्रबंधन

यह फसल बरानी फसल के रूप में अवशेष नमी में लगाई जाती है। यदि अधिक सूखा की स्थिति हो तो सिंचाई बुवाई के 60-70 दिन बाद देना लाभदायक होता है।

खरपतवार प्रबंधन

सामान्य फसल में एक निंदाई 30-35 दिन में (मृदा की दशा अनुसार अगर नमी कम हो तो) कर देना है। फ्लूक्लोरोलिन (बासालीन) 45 ई.सी. / 0.75-1 किग्रा (सक्रिय तत्व) प्रति हे. 750-1000 लीटर पानी में मिलाकर बुवाई के पूर्व भूमि में मिला दें।

कटाई, गहाई एवं भ्ंाडारण

बालियों के भूरे रंग का होने पर जब बालियाँ भर जाए तथा नमी की मात्रा 15 प्रतिशत रहे तब फसल की कटाई करें। कटी हुई फसल को एक सप्ताह सुखाकर रखें तथा उसके बाद उसका गठ्ठा बनाकर गहाई वाले स्थान पर ले जाएँ। लकड़ी से पीट-पीट कर गहाई करें। साफ बीज को 3-4 दिन के लिए सुखा दें जब तक नमी 9-10 प्रतिशत ना हो जाएँ। बीज को अच्छी तरह से सुखाकर भंडारण करें। कम मात्रा के बीज को भंडारण करने के लिए चूने का अथवा राख प्रयोग कर सकते हंै।

उपज

8-10 क्विंटल प्रति हे. सीधी बुवाई में व 3-4 क्विं. प्रति हे. उतेरा में प्राप्त कर सकते हैं।

अधिक उत्पादन लेने हेतु आवश्यक बिंदू

  • ग्रीष्म कालीन गहरी जुताई तीन वर्ष में एक बार अवश्य करें।
  • बुवाई पूर्व बीजोपचार अवश्य करें।
  • पोषक तत्वों की मात्रा मृदा परीक्षण के आधार पर ही दें।
  • खेसारी में फूल एवं फली बनते समय 2 प्रतिशत यूरिया अथवा 20 पी.पी.एम. सेलिसिलिक एसिड का छिडक़ाव करने पर उपज में बढ़ोतरी पायी गई।
  • पौध संरक्षण के लिये एकीकृत पौध संरक्षण के उपायों को अपनायें।
  • खरपतवार नियंत्रण अवश्य करें।

 

कीट एवं रोग नियंत्रण

माहू : यह कीट पत्ती से रस चूस लेता है, जिसके कारण पत्तियाँ भूरी हो जाती हैं एवं सिकुड़ जाती है। इनके नियंत्रण के लिये डायमिथोएट 30 ई.सी. को 1.7 मि.ली./ली. या मिथाइल डेमेटान को 1 मि.ली./ली. पानी के हिसाब से घोल बनाकर छिडक़ाव करें।

किट्ट (रस्ट): गुलाबी से भूरे रंग की सतह पत्तियों एवं तने पर दिखाई देती है अधिक संक्रमण से पौधे की मृत्यु हो जाती है।
द्य अगेती किस्म का प्रयोग करें।
द्य कार्बेन्डाजिम 2 ग्रा./कि.ग्रा. बीज दर से उपचार करें।
द्य मेंकोजेब का छिडक़ाव/2.5 ग्रा प्रति लीटर पानी के हिसाब से करें।

डाउनी मिल्ड्यू : भूरे रंग की कपासी पदार्थ पत्तियों के निचले हिस्से में दिखाई देते हंै। अंदर के हिस्से में पीले से हरे धब्बे दिखाई देते हैं। इस बीमारी के नियंत्रण के लिए मेंकोजेब/2 ग्रा. प्रति लीटर पानी के हिसाब से छिडक़ाव करें।

भभूतिया : इस बीमारी का लक्षण सबसे पहले पौधे के ऊपरी हिस्से में दिखाई देते हैं व सफेद रंग का चूर्ण पत्तियों एवं तने पर दिखाई देता है।
रोग नियंत्रण के घुलनशील सल्फर/3 ग्रा./ली. या कार्बेन्डाजिम/1 ग्रा./ली. पानी के हिसाब से घोल बनाकर छिडक़ाव करें।

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