फसल की खेती (Crop Cultivation)

नर्सरी तैयार कर सिंघाड़ा लगाएं

सिंघाडा जिसे अंग्रेजी में water chestnut के नाम से जाना जाता है। जिसका उपयोग पूजन एवं उपवास में मुख्यता से किया जाता है। इसकी खेती तालाबों में की जाती है। जलीय खेती में मुख्यत: कमल, कूटू, सिंघाड़ा एवं मखाना उगाए जाते हैं। विश्व में सिंघाड़े की खेती भारत पाकिस्तान, वर्मा, बांगलादेश, चीन, श्रीलंका, मलेशिया एवं दक्षिण अफ्रीका में होती है। भारत में सिंघाड़े की खेती मुख्यत: बिहार, उत्तरप्रदेश, तमिलनाडु, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, कश्मीर एवं पंजाब आदि राज्यों में प्राकृतिक तालाबों, पोखरों, झीलों एवं ठहरे हुए पानी में की जाती है, जहां पानी अधिक गहरा नहीं होता है। मध्यप्रदेश में लगभग 6000 हेक्टेयर में सिंघाड़ा की खेती होती है। मध्यप्रदेश में मुख्यत: जबलपुर, दमोह, सागर, टीकमगढ़, छतरपुर, पन्ना, भिण्ड, मुरैना, शिवपुरी, सिवनी, छिंदवाड़ा तथा मण्डला जिलों में सिंघाड़े की खेती होती है।

नर्सरी तैयार करना 

सिंघाड़े की खेती करने के लिए पहले नर्सरी तैयार की जाती है, नर्सरी तैयार करने का उपयुक्त समय फरवरी से जून तक का होता है उसके पश्चात् मुख्य फसल की रोपाई जुलाई-अगस्त में कर दी जाती है। शीघ्र पकने वाली किस्मों में 15 सितंबर तक फूल आना प्रारंभ हो जाते हैं तथा अक्टूबर प्रारंभ तक फल आने लगते हैं। अंतिम तुड़ाई अक्टूबर से प्रांरभ होकर तुड़ाई दिसंबर के पहले पखवाड़े तक करते हैं। जबकि देर से पकने वाली किस्मों में 15 नवंबर तक फूल आना प्रारंभ हो जाते हैं। फलों की तुड़ाई दिसंबर से प्रारंभ होकर जनवरी तक होती है।

जलवायु एवं भूमि का चुनाव:

सिंघाड़े की खेती के लिए पानी का जमाव 60 से 120 सेंटीमीटर तक जून माह से जनवरी माह तक होना आवश्यक है ।

प्रजातियाँ:

सिंघाड़े की दो किस्में प्रचलित हैं, हरे छिल्के वाली तथा लाल छिलके वाली भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद- भारतीय सदजी अनुसंधान ने सिंघाड़े की निम्न प्रजातियाँ विकसित की है।

लाल छिलके वाली-

बी.आर.डब्लू.सी-1, बी.आर.डब्लू.सी-2

हरे छिलके वाली – बी.आर.डब्लू.सी.-4 सिंघाड़े की प्रजातियाँ पकने के आधार पर भी वर्गीकरण किया गया है ।

जल्द पकने वाली जातियाँ :

(पहली तुड़ाई अक्टूबर) हरीरा गठुआ लाल गठुआ एवं गुडकुआ, लाल चिकनी गुलारी एवं कटीला।

देर से पकने वाली जातियाँ :

(पहली तुड़ाई नवम्बर) करिया हरीरा, गुलरा, गहरा लाल एवं हरीरा गपाचा।

देर से पकने वाली किस्मों में अक्टूबर के पहले पखवाड़े तक फूल आना प्रारंभ हो जाते हैं, जबकि फल आना नवंबर प्रथम पखवाड़े से प्रारंभ होकर जनवरी के अंतिम पखवाड़े तक आते हैं। कुल तुड़ाई 3 से 4 प्रत्येक 20 दिन के अंतराल पर होती है। तुड़ाई करते समय ध्यान रखें कि तुड़ाई पूर्ण रूप से पके हुए फलों की ही करें। कच्चे फलों से गोटी अच्छी नहीं बनती, तुड़ाई में देरी भी ना करें, क्योंकि पूर्ण पके फल कुछ संख्या में पानी में गिर जाते हैं। कच्चे हरे फल 60 से 90 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तथा सूखी गोटी 10 से 15 क्विंटल प्रति हेक्टेयर प्राप्त होती है ।

फलों को सुखाकर गोटी बनाना :

सिंघाड़ा फलों को तोडऩे के पश्चात अच्छी तरह पानी से धोकर साफ कर लेते हैं। पक्के फर्श पर सूर्य की रोशनी में फैला देते हैं। प्रत्येक चार दिनों के अंतराल पर फलों को पलट देते हैं, लगभग 20 से 25 दिन में फल सूख जाते हैं। यदि पक्का फर्श न हो तब कच्चे खलिहान में दीमक एवं चूहों से बचाव हेतु गोबर पानी में क्लोरोपायरीफॉस मिलाकर खलिहान की लिपाई करें, खलिहान सूखने पर फलों को फैलाकर सुखाएं। खलिहान के आस पास चूहों के बिल दिखाई देने पर शाम के समय गीली मिट्टी से बिलों को बंद करें।

फलों की छिलाई:

फलों के अच्छी तरह सूख जाने पर सूखे फलों को सरोते या सिंघाडा छीलक यंत्र द्वारा निकालकर दो दिन तक सूर्य की रोशनी में सुखाकर पॉलीथिन में पैक कर संग्रहित करते हैं।

फलों का प्रसंस्करण:

सिंघाड़ा फलों का प्रसंस्करण फलों की तुड़ाई के पश्चात ही प्रांरभ हो जाता है । यदि कच्चे फलों को बाजार में भेजना है, तो उन्हें अच्छे साफ-पानी से धोकर सीधे ही बाजार में भेज देते हैं, अन्यथा कच्चे फलों को उबालकर सीधे ही खा सकते हैं। कच्चे फलों से बनी सब्जी बहुत स्वादिष्ट होती है। सिंघाड़ा ताकत प्रदान करने वाला एवं मांस-पेशियों के विकास में मददगार होता है। नाड़ी तंत्र को बलशाली बनाने, आंतरिक सूजन दूर करने में भी सिंघाड़े का प्रयोग होता है सिंघाड़े की छाल को घिसकर लगाने से सूजन एवं दर्द दूर होता है।

 

सिंघाड़े खाये जाने योग्य भाग का पोषण मूल्य (100 ग्राम)

पोषक तत्व ताजा सिंघाड़ा सूखा सिंघाड़ा
जलांश (प्रतिशत) 70 13.8
ऊर्जा (किलो कैलोरी) 115 338
प्रोटीन (ग्राम) 4.7 13.4
वसा (ग्राम) 0.3 0.8
कार्बोहाड्रेट (ग्राम) 23.3 68.9
फाइबर (मि.ग्रा.) 0.6
कैल्शियम (मि.ग्रा) 26 70
फास्फोरस (मि.ग्रा) 150 440
लौह तत्व (मि.ग्रा) 1.3 2.4
विटामिन ए (माइक्रो ग्राम) 12
विटामिन ‘सी’ (मि.ग्रा.) 9

उपयोग:

सिंघाड़े का उपयोग उपवास के समय अधिकतर किया जाता है। सिंघाड़े के आटे से तरह-तरह के व्यंजन जैसे- पुड़ी, पराठा, हलुआ, चकली, नानखटाई, बिस्किट, खीर, चकली, लड्डू, थाली पीठ बनाने में करते हैं। सिंघाड़े के आटे या सिंघाड़े को भूनकर, उबालकर भी खा सकते हैं। कच्चे सिंघाड़े की आलू की तरह सब्जी बनाकर भी खा सकते हैं। सिंघाड़े को कम से कम सप्ताह में एक बार जरूर खाना चाहिए।

  • डॉ. दीपाली बाजपेयी, वैज्ञानिक
    संचालनालय विस्तार सेवायें,
    ज.ने.कृ.वि.वि., जबलपुर
    deepali.bajpai2007@gmail.com
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