फसल की खेती (Crop Cultivation)

एंडोसल्फान का अध्याय समाप्त: भारतीय कृषि में ज़हर, संघर्ष और परिवर्तन की कहानी

31 जनवरी 2025, नई दिल्ली: एंडोसल्फान का अध्याय समाप्त: भारतीय कृषि में ज़हर, संघर्ष और परिवर्तन की कहानी – बीते दशकों तक एंडोसल्फान भारतीय कृषि में सबसे ज्यादा इस्तेमाल होने वाले कीटनाशकों में शामिल रहा। महाराष्ट्र के कपास खेतों से लेकर पंजाब की सब्ज़ी फसलों तक, यह कीटनाशक कृषि उत्पादन बढ़ाने और फसलों को बचाने का पर्याय बन गया था। लेकिन इसकी प्रभावशीलता के पीछे छिपा था एक गंभीर खतरा—स्वास्थ्य पर विनाशकारी प्रभाव और पर्यावरण को भारी नुकसान। एंडोसल्फान की कहानी केवल एक कीटनाशक की नहीं, बल्कि कृषि प्रगति की कीमत, अनियंत्रित रसायनिक प्रयोग के दुष्प्रभाव और बदलाव की दिशा में भारत की जागरूकता का प्रमाण है।

एंडोसल्फान का उदय: भारत में कैसे बढ़ा इसका इस्तेमाल?

1970 के दशक में भारत में एंडोसल्फान का आगमन हुआ, और जल्द ही यह किसानों के लिए फसलों को कीटों से बचाने का एक प्रमुख साधन बन गया। कपास की फसलों पर बॉलवर्म, सब्ज़ियों पर एफिड्स और चाय के बागानों में मच्छरों पर नियंत्रण के लिए इसका व्यापक रूप से उपयोग किया गया। सिंजेंटा इंडिया और एक्सेल क्रॉप केयर जैसी कंपनियों ने इसे बाज़ार में उतारा, और यह अपने कम लागत और तेज़ असर के कारण तेज़ी से लोकप्रिय हुआ।

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गुजरात के कपास उत्पादक क्षेत्रों से लेकर दार्जिलिंग की पहाड़ी चाय बागानों तक, एंडोसल्फान को किसानों के लिए वरदान समझा गया। इसके इस्तेमाल से कपास की पैदावार बढ़ी, सब्ज़ियों को कीटों से राहत मिली, और भारतीय कृषि अर्थव्यवस्था में सुधार देखा गया।

छिपा हुआ ख़तरा: स्वास्थ्य और पर्यावरण पर भारी असर

लेकिन समय के साथ इस “सटीक समाधान” की कड़वी सच्चाई सामने आने लगी। जिन किसानों ने इसे इस्तेमाल किया, वे खुद इसकी चपेट में आने लगे। धीरे-धीरे ग्रामीण इलाकों से ऐसे मामले सामने आने लगे, जिनमें गंभीर बीमारियों की शिकायतें बढ़ रही थीं।

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2000 के दशक की शुरुआत में महाराष्ट्र के उरण शहर में एंडोसल्फान के असर से एक बड़ी त्रासदी सामने आई। कपास की फसलों पर अत्यधिक छिड़काव से स्थानीय जल स्रोत दूषित हो गए, जिसके चलते जन्मजात विकृतियाँ, तंत्रिका तंत्र से जुड़ी बीमारियाँ, कैंसर और मानसिक रोगों के मामले बढ़ गए। भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (ICMR) की 2001 की रिपोर्ट में यह पुष्टि हुई कि एंडोसल्फान का ज़हर मानव शरीर में जमा हो जाता है और दीर्घकालिक स्वास्थ्य समस्याओं को जन्म देता है।

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पर्यावरण पर भी इसका असर भयावह था। मिट्टी, जल स्रोत और पारिस्थितिकी तंत्र के अन्य जीव जैसे मधुमक्खियाँ, पक्षी और मछलियाँ इसके प्रभाव से बुरी तरह प्रभावित हुए। एंडोसल्फान का असर इतने लंबे समय तक बना रहता था कि इसके जहरीले प्रभाव वर्षों बाद भी महसूस किए जाते थे।

प्रतिबंध की मांग: एंडोसल्फान के खिलाफ आंदोलन

जैसे-जैसे जागरूकता बढ़ी, एंडोसल्फान पर प्रतिबंध लगाने की मांग भी तेज़ होने लगी। सामाजिक कार्यकर्ता, पर्यावरणविद् और प्रभावित समुदाय इस जहरीले रसायन के खिलाफ आवाज़ उठाने लगे। मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुँचा और सरकार को इस पर फैसला लेने के लिए मजबूर होना पड़ा।

2011 में, वैज्ञानिक शोध, कानूनी लड़ाइयों और बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शनों के बाद, भारत सरकार ने केंद्रीय कीटनाशक बोर्ड एवं पंजीकरण समिति (CIBRC) की सिफारिशों के आधार पर एंडोसल्फान के उत्पादन, बिक्री और उपयोग पर पूर्ण प्रतिबंध लगाने की घोषणा की।

यह फैसला भारतीय कृषि के इतिहास में एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुआ। सुप्रीम कोर्ट की रिपोर्ट में एंडोसल्फान के दुष्प्रभावों के पुख्ता सबूत पेश किए गए थे। सरकार ने जब नागरिक समाज और पर्यावरण संगठनों के दबाव को महसूस किया, तो उसने इस खतरनाक कीटनाशक पर रोक लगाने का निर्णय लिया। हालांकि, इस प्रतिबंध का विरोध भी हुआ। कई किसान, जो वर्षों से एंडोसल्फान पर निर्भर थे, इस बात को लेकर चिंतित थे कि इससे उनकी फसलों को अधिक नुकसान होगा और उत्पादकता घट जाएगी।

बदलाव की ओर कदम: रसायनिक खेती से सतत कृषि की ओर

प्रतिबंध के बाद शुरुआती समय में किसानों को मुश्किलों का सामना करना पड़ा, लेकिन दीर्घकालिक प्रभाव सकारात्मक साबित हुए। किसानों को जब एंडोसल्फान का विकल्प तलाशना पड़ा, तो भारतीय कृषि में एक महत्वपूर्ण बदलाव शुरू हुआ।

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इस प्रतिबंध ने एकीकृत कीट प्रबंधन प्रणाली को बढ़ावा दिया, जिसमें जैविक नियंत्रण विधियाँ, कीट-प्रतिरोधी फसलें और कम से कम कीटनाशकों के उपयोग पर जोर दिया गया। इससे जैविक कीटनाशकों और नीम-आधारित समाधानों को बढ़ावा मिला, जो स्वास्थ्य और पर्यावरण दोनों के लिए सुरक्षित हैं।

कृषि में फसल चक्र, मिट्टी सुधार तकनीक और मिश्रित खेती जैसी प्राकृतिक पद्धतियों को अपनाया जाने लगा। इससे न केवल कीटनाशक निर्भरता घटी, बल्कि मिट्टी की उर्वरता और जैव विविधता भी बेहतर हुई। कृषि विस्तार सेवाओं और किसान जागरूकता कार्यक्रमों की मदद से किसान धीरे-धीरे रसायनों पर निर्भरता कम करने लगे।

प्रतिबंध के कुछ वर्षों बाद, भारत में कीटनाशकों से जुड़ी बीमारियों में कमी देखी गई और पर्यावरण प्रदूषण में भी सुधार हुआ। बीटी कपास और जैविक कीटनाशकों की सफलता ने साबित कर दिया कि भारतीय कृषि बिना एंडोसल्फान के भी समृद्ध हो सकती है। हालाँकि अभी भी चुनौतियाँ बनी हुई हैं, लेकिन सतत कृषि की दिशा में भारत ने मजबूत कदम बढ़ा लिए हैं।

एंडोसल्फान का सबक: ज़िम्मेदार कृषि की ओर बढ़ता भारत

एंडोसल्फान की कहानी केवल एक खतरनाक कीटनाशक की समाप्ति की नहीं है, बल्कि यह भारतीय कृषि में एक बड़े बदलाव की कहानी है। जो कीटनाशक कभी उत्पादकता बढ़ाने का जरिया माना जाता था, वही किसानों और पर्यावरण के लिए सबसे बड़ा खतरा बन गया। लेकिन इसके खिलाफ हुए आंदोलन और प्रतिबंध के बाद, भारत ने अधिक टिकाऊ और पर्यावरण-अनुकूल खेती की ओर कदम बढ़ाया।

हालांकि एंडोसल्फान का अध्याय समाप्त हो गया, लेकिन सतत कृषि की दिशा में भारत की यात्रा अभी जारी है। यह पूरी कहानी हमें यह सिखाती है कि कृषि में प्रगति और सततता के बीच संतुलन बनाए रखना कितना महत्वपूर्ण है। असली जीत केवल एक कीटनाशक को खत्म करने में नहीं, बल्कि एक हरित और स्वस्थ भविष्य की ओर बढ़ने में है।

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