फसल की खेती (Crop Cultivation)

क्या किसानों को जलवायु परिवर्तन की भयावहता के बारे में जानकारी है

  • शशिकान्त त्रिवेदी,
    वरिष्ठ पत्रकार

 

11 अक्टूबर 2021, भोपाल । क्या किसानों को जलवायु परिवर्तन की भयावहता के बारे में जानकारी है – आजादी के बाद के शुरुआती दशकों में भारतीय कृषि की प्रमुख चुनौती किसी भी कीमत पर फसल उत्पादन और पैदावार में वृद्धि करना था। आज, यह चुनौती कृषि आय को बढ़ाने के बारे में है, साथ ही साथ बढ़ती आबादी के लिए उत्पादन भी सुनिश्चित करना है. ऐसी खेती जिसमें लागत काम लगे, संसाधनों का उचित उपयोग हो और जो जलवायु के लिए माकूल हो. इन दिनों हर देश जलवायु परिवर्तन पर गहन विचार विमर्श कर रहा है और उन उपायों के बारे में किसी निष्कर्ष पर पहुँचना चाहता है जिससे जलवायु परिवर्तन के कारण खेती पर आई किसी भी आफत से निपटा जा सके. हाल में प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने खेती के लिए फसलों की कुछ ख़ास 35 किस्मों को भारतीय किसानों को सौंपा है.

जलवायु परिवर्तन का कृषि पर प्रभाव

विभिन्न फसलों की ये सभी किस्में जलवायु के उतार चढ़ाव को बर्दाश्त कर सकती हैं और इनमें उच्च पोषक तत्व हैं जिन्हे 2021 में विकसित किया गया है। इनमें चना की सूखा रोधी किस्म, मोज़ेक वायरस रोधी अरहर, सोयाबीन की जल्दी पकने वाली रोग प्रतिरोधी किस्में शामिल हैं। चावल और बायोफोर्टिफाइड किस्मों के गेहूं, बाजरा, मक्का और चना, क्विनोआ और फावा बीन्स शामिल हैं। उदाहरण के तौर पर इन में से एक भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान द्वारा विकसित एक नई खरपतवार रोधी चावल की किस्म को जारी किया है. इसे तैयार करने और रोपने की जरुरत नहीं है इसे सीधे बोया जा सकता है.

बाढ़ वाले खेतों में धान की रोपाई

किसान मुख्य रूप से खरपतवारों को नियंत्रित करने के लिए बाढ़ वाले खेतों में धान की रोपाई करते हैं और उगाते हैं, लेकिन यह किस्म प्राकृतिक रूप से खरपतवार रोधी है. यह किस्म हमारे देश के वैज्ञानिकों ने धान की जीन को उत्परिवर्तित करके विकसित की है. इस पर खरपतवार काफी हद तक असर नहीं करती और जब खरपतवार नाशक दवा का छिडक़ाव धान पर किया जाएगा तो केवल खरपतवार ही नष्ट होगी धान पर कोई असर नहीं होगा। साथ ही साथ इस किस्म की धान की खेती बिना किसी नर्सरी की तैयारी, रोपाई, पोखर और बाढ़ के बिना की जा सकती है। पारंपरिक रोपाई की तुलना में किसान लगभग 30 प्रतिशत पानी, 3,000 रुपये प्रति एकड़ श्रम लागत और सीधे बुवाई से 10-15 दिनों के समय की बचत करेंगे। आज जलवायु परिवर्तन के कारण आने वाली आपदाओं की आशंकाओं के कारण न केवल किसान बल्कि हमारे वैज्ञानिक भी चिंतित हैं. चिंता केवल खेती को लाभ का धंधा बनाने की नहीं है, बल्कि इस बात की भी है कि क्या हम आने वाले किसी बुरे वक्त के लिए सार्वजनिक कृषि अनुसंधान में निवेश के महत्व को समझ पा रहे हैं.

भारत के सामने चुनौती

आजादी के बाद भारत के सामने चुनौती यह थी कि वह अपनी आबादी का भरण-पोषण करे और अनाज की आत्मनिर्भरता प्राप्त करे, जो 1960 और 1970 के दशक के दौरान अच्छी उपज देने वाली किस्मों के बिना पूरी नहीं की जा सकती थी। लेकिन आज जलवायु परिवर्तन के कारण आने वाली आपदाओं के बारे में हमें कुछ भी नहीं मालूम। औसत तापमान बढ़ रहा है, सर्दियां कम हो रही हैं और समग्र ‘सामान्य’ मानसून के साथ भी बारिश के दिनों की संख्या गिर रही है। ऐसी परिस्थितियों में फसल उगाना और पशुओं को पालना- अत्यधिक गर्म और ठंडे या लंबे समय तक सूखे मौसम और भरी बारिश के कारण सब मुश्किल होता जा रहा है, साथ ही किसानों को जल-स्तरों के घटने, ऊर्जा की बढ़ती लागत और नए कीटों और बीमारियों के उभरने की समस्याओं का भी सामना करना पड़ रहा है। कृषि और जलवायु परिवर्तन इतना महत्वपूर्ण है कि इसे केवल सामान्यवादी नौकरशाहों, अर्थशास्त्रियों और कार्यकर्ताओं पर नहीं छोड़ दिया जाना चाहिए। सब्सिडी और कल्याणकारी योजनाओं की तरह खेती में किया गया किसी भी तरह का अनुसंधान, राजनीतिक लाभांश नहीं दे सकता है या अल्पावधि में कर्ज नहीं चुका सकता। लेकिन कृषि अनुसंधान से मिलने वाला रिटर्न इससे स्पष्ट है कि भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान (ढ्ढ्रक्रढ्ढ) की किस्में अकेले भारत के 32,000 करोड़ रुपये के वार्षिक बासमती चावल निर्यात का 95 प्रतिशत से अधिक हैं और इसके कुल गेहूं क्षेत्र का लगभग आधा हिस्सा हैं.

विशेषज्ञों का मानना है कि जलवायु परिवर्तन के खतरे के प्रति किसानों की पहली प्रतिक्रिया उनके इस धंधे की दक्षता में सुधार करने के लिए होनी चाहिए। आज जरुरत है कि भारत जो मुख्यतया खेती पर आधारित है पशुओं के राशन में मीथेन न पैदा करने वाले पदार्थों का इस्तेमाल करे, नए उर्वरक विकसित करे और मिट्टी में मौजूद कार्बन को अलग कर दर में सुधार के लिए पहल करे.

खतरों पर गहन चिंता

दुनिया भर के नेताओं, धर्मगुरुओ, वैज्ञानिकों और विचारकों ने जलवायु परिवर्तन के खतरों पर गहन चिंता जताई है. अक्टूबर माह में ग्लास्गो में जलवायु परिवर्तन पर आयोजित होने वाले ष्टह्रक्क 26 सम्मेलन के बारे में सोमवार को पोप फ्रांसिस ने आगाह किया, ग्लासगो में होने वाला सम्मेलन ष्टह्रक्क 26 हमारे सामने खड़े अभूतपूर्व जलवायु परिवर्तन के संकट और उन मूल्यों के संकट के लिए प्रभावी प्रतिक्रिया प्रदान करने के लिए है जो हम वर्तमान में अनुभव कर रहे हैं, और इस तरह भविष्य की पीढिय़ों को हम कोई ठोस उम्मीद दे सकेंगे।

कृषि, जलवायु और ग्रामीण

ब्रिटेन में उत्तरी आयरलैंड में कृषि, जलवायु और ग्रामीण मामलों के प्रमुख संस्थान एग्री फ़ूड एन्ड बायोसाइंस की निदेशक डॉ. एलिजाबेथ मैगोवन कहती हैं कि उत्तरी आयरलैंड में कुल ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन स्तर पिछले 30 वर्षों में काफी कम हो गया है और ऐसा करने के लिए ऊर्जा और अपशिष्ट प्रबंधन क्षेत्रों में कई तरह के तरीके अपनाने पड़े हैं. लेकिन नतीजा ये हुआ कि खेती अब स्थानीय अर्थव्यवस्था के भीतर ही भीतर ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन का सबसे बड़ा उत्पादक है। वे कहती हैं कि अगर खेती को अलग अलग हिस्सों में देखा जाय तो गोमांस से सबसे जयादा नुक्सान हुआ है क्योंकि वह ग्रीनहाउस गैस पैदा करने वाले पदार्थों की सूची में सबसे ऊपर है.

जलवायु परिवर्तन का खेती से क्या सम्बन्ध है. दरअसल खेती के कारण मीथेन और नाइट्रस ऑक्साइड गैस बनती है. मीथेन एक ग्रीनहॉउस गैस है जिसका उत्पादन आंतों की पाचन प्रक्रियाओं के कारण होता है जो सभी जुगाली करने वाले जानवरों की खासियत होती है जबकि नाइट्रस ऑक्साइड का उत्पादन जैविक खाद और रासायनिक उर्वरकों के प्रबंधन से जुड़ा होता है। मवेशियों या पशुधन उद्योग द्वारा पैदा होने वाली कुल ग्रीनहाउस गैस का लगभग 50 प्रतिशत है।

मैगोवन ने आगे बताया- ‘स्मार्ट तकनीकों का उपयोग और सटीक पशुधन खेती प्रणाली का उपयोग भी आने वाले वर्षों में सामने आएगा। हमे आवश्यकता है कि हम कम मीथेन पैदा करने वाले जानवरों की प्रजातियाँ विकसित करें।’

संभव है उनकी बात एकदम सही हो लेकिन प्रश्न यह है कि खेती के कानून के लिए पिछले एक साल से लडऩे वाले किसानों या न लडऩे वाले किसानों के पास क्या ऐसी जानकारी है जिससे उन्हें यह मालूम हो सके कि वे क्या करें और क्या न करें? क्या हमारे किसान, पर्यावरण से जुड़े वैज्ञानिक और खेती के अनुसन्धान में जुटी संस्थाएं आने वाली किसी भयानक मुसीबत के बारे में चिंता और चर्चा कर रही हैं? क्या किसानों को मालूम है कि वे कार्बन ऑडिट के जरिये यह पहचान सकते हैं कि उनकी खेती के धंधे में कहाँ कहाँ ग्रीन हॉउस गैस बनाने वाले स्रोत मौजूद हैं?

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