Animal Husbandry (पशुपालन)

पशुओं में मुख्य चयापचयी एवं अल्पता रोग

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कैल्शियम अल्पता (मिल्क फीवर / दुग्ध ज्वर)
यह रोग पशु के शरीर में कैल्शियम तत्व की कमी से उत्पन्न होता है तथा सामान्य रूप से मांसपेशियों की कमजोरी, मानसिक अवसाद एवं दूध उत्पादन की कमी के रूप में परिलक्षित होता है। यह रोग अधिक दूध देने वाले पशुओं में ज्यादा पाया जाता है। जनन के 72 घण्टों के अन्दर या जनन के बिल्कुल पहले यह रोग ज्यादा देखा गया है, परंतु कभी-कभी ब्यांत के 3 से 8 हफ्तों के दौरान भी यह रोग होता है। रोग की प्रारम्भिक अवस्था (उत्तेजना अवस्था) में प्रभावित पशु में उत्तेजना, भूख की कमी, अतिसंवेदनषीलता तथा मांसपेशियों की हलचल, सिर का बार-बार झटकना, जीभ का बाहर निकालना, लंगड़ापन, पिछले पैरों का तनाव तथा दांत किटकिटाना आदि लक्षण पाए जाते हैं।
रोग की दूसरी अवस्था (अद्र्धासन अवस्था या बैठ जाने की अवस्था) में पशु उदासीन दिखाई देता है तथा खड़ा होने में असमर्थता, थूथन का सुख जाना, शारीरिक ताप सामान्य से गिर जाना एवं शरीर का ठण्डा पड़ जाना, प्रभावित पशु द्वारा अपनी गर्दन मोड़ कर अपनी कॉंख पर रखना इत्यादि लक्षण देखने को मिलते हैं। इस रोग की तीसरी अवस्था (धराशायी अवस्था) में पशु बैठ भी नहीं पाता है एवं जमीन पर लेट जाता है, तथा उपरोक्त लक्षण और अधिक गहरा जाते हैं। पशु की हृदय गति कम तथा दुर्बल हो जाती है, रूमन (पेट) की गति रूक जाती है। प्रभावित पशु में गुदा की शिथिलता तथा आंख की पुतलियों का फैल जाना भी देखा जा सकता है। इस रोग के उपचार के लिए प्रभावित पशु को रक्त मार्ग से कैल्शियम चिकित्सा देने से तत्काल लाभ मिलता है।
फॉस्फोरस अल्पता (पोस्ट पार्चुरियेन्ट हिमोग्लोबिन्यूरिया)
यह एक फास्फोरस तत्व की कमी से होने वाला रोग है जो प्रभावित पशुओं में लाल रक्त कोशिकाओं के नष्ट होने तथा रक्ताल्पता के रूप में परिलक्षित होता है। यह रोग 3 से 6 ब्यांत की अवधि के दौरान तथा अधिक दूध देने वाले पशुओं में ज्यादा पाया जाता है तथा ब्याने के 2 से 4 सप्ताह के बाद यह रोग अधिक देखा गया है। गायों की बजाय भैंसों में यह रोग अधिक पाया जाता है। भूख की कमी, कमजोरी, दूध उत्पादन में कमी, पशु के शरीर में रक्त की कमी एवं श्लेश्मिक झिल्लियों का पीलापन, पशु के शरीर में जल की कमी के कारण गोबर का सूखा एवं कठोर होना, पीलिया तथा हृदय की गति बढ़ जाना इस रोग में पाये जाने वाले मुख्य लक्षण है। प्रभावित पशु में रक्त की कमी (एनीमिया) तथा भूख की कमी के कारण कुछ ही दिनों में पशु मर भी सकता है। उपचार के लिए प्रभावित पशु को फॉस्फोरस उपलब्ध कराने के लिए सोडियम एसिड फास्फेट रक्त मार्ग (नस से) तथा त्वचा के नीचे दिया जा सकता हैं, भोजन के साथ हड्डियों का चूरा या डाइकैल्शियम फास्फेट भी लाभकारी होता है। रक्त बढ़ाने के लिए कॉपर, लोहा तथा कोबाल्ट सम्मिश्रित टॉनिक लाभकारी होते हैं। रोग की रोकथाम के लिए ऐसे क्षेत्र जहां की मिट्टी में फास्फोरस की कमी हो में पशुओं को पूरक आहार के रूप में खनिज मिश्रण संतुलित आहार के साथ नियमित रूप से देना चाहिए।
कीटोसिस (कीटोनमियता)
इस रोग का कारण पशु के शरीर में दोषपूर्ण ग्लुकोज का चयापचय है, जिसकी वजह से पशु के रक्त में कीटोन प्रकृति के तत्वों की अधिकता हो जाती है एवं मूत्र, दूध एवं सांस में कीटोन तत्वों का उत्सर्जन बढ़ जाता है। यह रोग पशुओं में उनके अधिक दूध उत्पादन की अवस्था में अधिक पाया जाता है। भेड़ एवं बकरियों में यह रोग गर्भावस्था में पाया जाता है, इसलिए इन पशुओं में इसे गर्भावस्था विषाक्तता के नाम से जाना जाता है। भली भांति पोषित पशुओं में अधिक प्रोटीन आहार, प्रारम्भिक दुग्धावस्था में अल्प ऊर्जा पूरित आहार, अपर्याप्त श्रम एवं आहार में कोबाल्ट की अल्पता का सम्बंध भी इस रोग से है। पशु की मांसपेशियों में हलचल तथा अकडऩ भी देखने को मिल सकती है। भेड़ एवं बकरियों में यह रोग गर्भावस्था के दौरान मानसिक रोग के रूप में प्रकट होता है तथा प्रभावित पशुओं में चलने की विवशता देखी जाती है। प्रभावित पशु अपने सिर को किसी अजीवित वस्तु के विरूद्ध टकराते है। यह रोग क्षयकारी एवं मानसिक बीमारी के रूप में पाया जाता है। प्रभावित पशुओं में धीरे-धीरे भूख की कमी (पशु दाना/चाट खाना कम या बंद कर देता है परन्तु सुखा चारा खाता रहता है) एवं दूध उत्पादन की कमी के रूप में प्रकट होता है।
पशु का शारीरिक वजन तथा चमड़ी के नीचे की वसा कम हो जाती है एवं पशु धीरे-धीरे कमज़ोर होने लगता है। पशु के दूध, मूत्र एवं सांस से कीटोनिक (मीठी) गन्ध आने लगती है। मानसिक रोग की स्थिति में पशु में जबड़ों की भ्रामक गतिशीलता, अत्याधिक लार, अतिसंवेदनशीलता, अन्धापन, लडख़ड़ाहट, असामान्य चाल तथा घोड़े की तरह लात मारना देखा गया हैं। इस रोग की चिकित्सा के लिए 20 से 25 या 50 प्रतिषत ग्लुकोज पशु की रक्त वाहिनी में लगाया जाता है।
इस रोग के उपचार के लिए प्रोपाईलिन ग्लाईकोल, ग्लिसरिन, सोडियम प्रोपियोनेट, ऐड्रिनोकोर्टिक्वाइड, ग्लुकोकोटिक्वाइड या इंसुलिन का प्रयोग भी लाभकारी सिद्ध होता है। पशु आहार में कोबाल्ट, फॉस्फोरस एवं आायोडीन की उचित मात्रा, संतुलित पशु आहार एवं व्यायाम से इस रोग को होने से रोका जा सकता है।
मैग्नीशियम अल्पता/लैक्टेशन टेटेनी/ग्रास
टेटेनी यह रोग शरीर में मैग्नीशियम तत्व की कमी के कारण होता है। चूंकि पशुओं के दूध एवं हरी घास में मैग्नीशियम का स्तर काफी कम होता है इसलिए नवजात कटड़े-कटडिय़ों में यह रोग ज्यादा देखा गया है। रोगी पशुओं में उत्तेजना, मांसपेशियों में अकडऩ, चिल्लाना, लडख़ड़ाना, लार गिरना, शरीर का ताप बढ़ जाना एवं अन्त में गिर जाना आदि लक्षण पाये जाते हैं। नवजात पशुओं में इस रोग का अगर जल्द से जल्द इलाज नहीं किया जाता है, तो पशु की मृत्यु भी हो सकती है। उपचार के लिए 10 प्रतिशत मैग्नीशियम सल्फेट का घोल 100 मि.ली. इन्जेक्शन द्वारा दिया जाता है। बड़े पशुओं में 500 मि.ली. 5 प्रतिशत मैग्नीशियम सल्फेट का घोल आधा त्वचा के नीचे और आधा रक्त वाहिनी में इन्जेक्शन द्वारा दिया जाता है। रोगी पशु को 50-100 ग्राम मैग्नीशियम सल्फेट 12-15 दिनों तक भोजन में भी खिलाया जाता है।
अस्थिमृदुता (ऑस्टियोमलेशिया)
यह एक वयस्क दुधारू पशुओं में पाया जाने वाला कंकाल सम्बधित रोग है जो कि पशु के शरीर में कैल्शियम, फास्फोरस एवं विटामिन-बी की कमी से हो सकता है। आहार दोष विशेष रूप से खनिज लवणों से युक्त आहार का पूरित न होना, आहार में गेहूं, चोकर या दाल-चूरी की अधिकता एवं शहरी वातावरण में रखी गई दुधारू गाय एवं भैंस में यह रोग अधिक प्रचलित है। दुधारू पशु में दूध उत्पादन कम हो जाना, प्रजनन क्षमता कम हो जाना, भूख की कमी, पैरों की मांसपेशियों में कठोरता, असन्तुलित चाल, जोड़ो में दर्द, धनुषाकार कमर, पशु को उठने-बैठने में दिक्कत होना एवं चलते समय लंगड़ाने के साथ जोड़ों से आवाज आना इस रोग में पाये जाने वाले मुख्य लक्षण हैं। पिछले पैरों में लंगड़ापन इस रोग में अधिक पाया जाता है, अधिक दुधारू पशुओं में यह स्थति ”मिल्कलैग” के नाम से जानी जाती है। इस रोग के उपचार के लिए पशु आहार को विटामिन-ए, बी तथा सी के साथ-साथ खनिज लवणों से परिपूरित करें। प्रभावित पशुओं में अस्थि निर्माण में सहायक तत्व इन्जेक्शन के रूप में दिए जाने पर भी फायदा होता है। गर्भावस्था एवं वृद्धिकाल में पशुओं को संतुलित आहार एवं खनिज मिश्रण का उपयोग करने से इस रोग को पनपने से रोका जा सकता है।

रिकेट्स
वृद्धिशील, अल्पायु पशुओं में कैल्शियम एवं फास्फोरस के चयापचय का दोषपूर्ण होना या विटामिन-डी एवं कैल्शियम की कमी इस रोग को जन्म देते हैं। प्रभावित पशु की वृद्धि रूक जाना, पैर कमानाकार (टेढ़ा-मेढ़ा हो जाना), जोड़ों का आकार बढ़ जाना, हड्डियों का आकार छोटा हो जाना, जोड़ों का सख्त हो जाना, लंगड़ाकर चलना, पशु के दांतों मेंं विकार उत्पन्न होना एवं मिट्टी खाने की प्रवृति बढ़ जाना आदि लक्षण देखे जा सकते है। इस रोग के उपचार के लिए विटामिन-ए, डी-3, कैल्श्यिम बोरोग्लुकोनेट, मैग्नीशियम और फास्फोरस देने से लाभ मिलता है। वृद्धिशील पशुओं में विटामिन-डी, मछली का तेल, हड्डियों का चूरा, डाइकैल्शियम फॉस्फेट, प्रोटीन, कैल्शियम एवं फास्फोरस-युक्त आहार का प्रयोग इस रोग की रोकथाम के लिए लाभकारी सिद्ध होता है।
  • डॉॅं. रूपेश जैन
  • डॉॅं. पी.पी. सिंह
    email: rupesh_vet@rediffmail.com
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