Animal Husbandry (पशुपालन)

गर्भवती एवं नवजात पशु की देखभाल व प्रबंधन

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  • धर्मेंद्र प्रताप सिंह, डॉ. सतेंद्र कुमार
  • अवधेश कुमार पटेल , रेणु पाठक
  • डॉ. शैलेन्द्र सिंह गौतम
    कृषि विज्ञान केंद्र, डिंडोरी

2 फरवरी 2022, गर्भवती एवं नवजात पशु की देखभाल व प्रबंधन –

गर्भवती पशु की देखभाल

गर्भवती पशुओं पर विशेष ध्यान देने की जरूरत होती है। उनके स्वास्थ्य के अलावा उनके गर्भ में पलने वाले बच्चे का विकास तथा भविष्य में उनसे प्राप्त होने वाले दूध के लिए उनके खान-पान एवं रहन-सहन का विशेष प्रबंध हो।

प्रसव की देखभाल
  • प्रसव पीडि़त पशु को अन्य पशुओं से अलग शान्त स्थिति में रखें।
  • प्रसव की अवस्था में पशु पालक को उपस्थित रहकर दूर से निगरानी करें। क्योंकि नजदीक होने से पशु का ध्यान बंट सकता है तथा प्रसव में देरी अथवा बाधा उत्पन्न हो सकती है।
  • यदि प्रसव में किसी प्रकार की बाधा दिखाई पड़े तो विशेषज्ञ से तुरन्त सहायता लें।
  • प्रसव के बाद नवजात पशु का मुंह-नाक, आंख-कान साफ कर दें।
  • प्रसव के बाद गर्भपोष यानी जेर को 4-6 घंटे के अन्दर निकल जाना चाहिए। यदि उसके निकलने में विलम्ब हो तो विशेषज्ञ से सहायता लें।
  • पशु पालक को सावधान रहना चाहिए कि जैसे ही जेर निकल कर गिरे उसे तुरंत हटाकर कहीं दूर गड्ढे में गाड़ दें अन्यथा कुछ पशु जेर को खा लेते हैं जिसका प्रभाव पशु के स्वास्थ्य एवं दुग्ध उत्पादन पर पड़ता है।
  • प्रसव के स्थान को फिनाइल घोल से अच्छी तरह साफ कर दें।
  • नवजात पशु को मां का पहला दूध जिसे खीस कहते हैं, तीन-चार दिनों तक अवश्य पिलायें।
  • नवजात पशु स्वयं खड़ा होकर मां की थन की ओर जाकर दूध पीने का प्रयास करता है। यदि नवजात को दूध पीने में असमर्थता हो तो दूध पीने में पशु पालक को मदद करें।
  • नवजात शिशु की नाल को ऊपर से 4-5 सेन्टीमीटर नीचे में धागा से बांध कर काट दें तथा टिंचर बेन्जवायन या बेटाडीन घोल लगाकर पट्टी बांध दें।
प्रसव के बाद पशु को क्या खिलायें
  • प्रसव के तुरंत बाद धान, गुड़, बांस की पत्तियां आदि खिलायी जा सकती है।
  • पशु की ताजगी और स्फूर्ति के लिए हल्दी 30 ग्राम, सौंठ 15 ग्राम, अजवाइन 15 ग्राम और गुड़ 250 ग्राम को एक लीटर पानी में उबाल कर 2-3 दिनों तक सुबह-शाम पिलायें।
  • पशु को 5-7 दिनों तक दाना तथा तेल खली नहीं दें। यदि पशु बिना दाना के न खाये तो उसे थोड़ा सा सुपाच्य दाना दिया जा सकता है।
  • तीन दिनों तक पशु को सूखी मुलायम घास, पुआल, भूसा आदि शीघ्र पचने वाला सूखा चारा दें। तीन दिनों के बाद सूखे चारे के साथ गेहूं, जौ या बाजरा की दलिया गुड़ में मिलाकर 5-7 दिनों तक देें।
  • एक सप्ताह के बाद दाना थोड़ा-थोड़ा दें। दाना की मात्रा धीरे-धीरे बढ़ायें।
  • दो सप्ताह के बाद दूध के उत्पादन के अनुसार दाना की पूरी खुराक में अनाज, खली, घास या हरा चारा आदि दें।
  • प्रसव के तुरन्त बाद पशु को ठंडा पानी नहीं पिलायें विशेषकर जाड़े के मौसम में। गर्मी के दिनों में ताजा-स्वच्छ जल पिलाया जा सकता है।
  • प्रसव के बाद पशु को गुनगुना स्वच्छ पानी पिलायें।
गर्भावस्था के दौरान पशुपालकों को ध्यान रखने योग्य बातें –

गर्भवती पशु के प्रबंधन का सबसे महत्वपूर्ण पहलू है उसका आहार एवं खानपान :

  • गाभिन पशुओं का आहार संतुलित, सुपाच्य एवं पौष्टिक हो।
  • उनके आहार में हरे चारे के साथ दाने में प्रोटीन, कैल्शियम, फॉस्फोरस, मैग्नेशियम एवं विटामिन हो।
  • एक गाभिन गाय/भैंस को सामान्यत: 30-35 किलोग्राम हरा चारा, 3-4 किलोग्राम सूखा चारा, 2-3 किलोग्राम दाना, 75-100 ग्राम खनिज तथा 50 ग्राम नमक प्रतिदिन दिया जाये।
  • यदि पशु को मुख्य रूप से सूखे चारे पर रखना है तो उसे 5-8 किलोग्राम भूसा और 5-10 किलोग्राम हरा चारा दें।
  • वर्षाऋतु में लोबिया एवं मक्का का हरा चारा अथवा लोबिया और ज्वार की कुट्टी का मिश्रण उत्तम रहता है।
  • गाभिन पशु को हमेशा साफ सुथरे, स्वच्छ एवं शांत वातावरण में रखें।
  • गाभिन पशु को केवल साधारण व्यायाम दें।
  • पशु को डराना, धमकाना या परेशान नहीं करें।
  • पशु को दौड़ाना नहीं चाहिए। उन्हें गर्मी, सर्दी एवं बरसात से बचायें।
  • ब्याने की अनुमानित तिथि के दो माह पूर्व से दूध लेना बन्द कर दें एवं उसके दाने में वृद्धि कर दें। यह वृद्धि दूध देते समय की आधी हो।
  • जिन पशु के ब्याने से पूर्व दूध उतर आता है, उसे ब्याने से पहले नहीं दुहना चाहिए।
  • पशु के ब्याहने के 15 दिन पूर्व उसे अन्य पशुओं से अलग कर दें।
  • प्रसव का दिन निकट आने पर विशेषकर दो-तीन दिन पहले से लेकर प्रसव के दिन तक पशुपालक को सावधान रहें क्योंकि प्रसव दिन या रात किसी भी समय हो सकता है।
नवजात पशु की देखभाल

बच्चा जन्म लेते ही सांस लेना आरम्भ कर देता है। यदि बच्चे को मां से अलग नहीं किया गया तो वह अपने बच्चे को तुरंत चाटने लगती है। इस चाटने की क्रिया से बच्चे के सांस और रक्त संचालन में सहायता मिलती है। यदि बच्चे का मुँह झिल्ली से ढंका हो तो उसे हटाकर साफ कर दें और यदि सांस नहीं चल रहा हो तो जीभ को आगे-पीछे खींचकर कृत्रिम सांस का प्रयोग अपनायें। हल्के हाथ से बच्चे की छाती का मसाज करना भी सांस चलने में सहायक होता है। नये जन्मे बच्चे स्वभावत: चन्द मिनटों में स्वत: खड़े हो जाते हैं और दूध पीने का प्रयास करते हैं। बच्चा पैदा होने के आधे घंटे के अन्दर वे पहला दूध पीना आरम्भ कर देते हैं। यदि उनके प्रयास में कोई कठिनाई उत्पन्न हो तो पशु पालक को उसके दूध पीने में सहायता करें। कुछ बच्चे कमजोर पैदा होते हैं और खड़े नहीं हो पाते। वैसे बच्चों को पकडक़र खड़ा कर दूध पीने दें तथा दूध पीने में असमर्थ होने पर उसकी मां का दूध निकाल कर बोतल से या निप्पल द्वारा दूध पिलायें। पहले 2-4 दिनों का दूध जो खीस कहलाता है उसे बच्चे को पिलाना आवश्यक है क्योंकि इससे बच्चे का पेट साफ होता है, पाचन क्रिया में सरलता मिलती है, संक्रामक रोगों से बचने की शक्ति उत्पन्न होती है तथा मिनरल्स और विटामिन्स की पूर्ति होती है। इसमें अन्य पौष्टिक तत्व आवश्यकतानुसार मिले रहते हैं। इसमें प्रोटीन अधिक होता है जो शारीरिक विकास में सहायक है। यदि किसी कारणवश प्रसव के बाद पशु की मृत्यु हो जाए तो दूसरे पशु का दूध बच्चे को पिलायें और ऐसे दूध में दो चाय चम्मच अरण्डी का तेल या मछली का तेल मिला दें। मां से अलग किए गए बच्चे को मां का दूध किसी चौड़े बरतन में निकालकर या रखकर हाथ के अंगूली को दूध में डुबाकर उस अंगूली के सहारे दूध चटाने से बच्चा दूध पीना सीख लेता है।

नवजात बच्चे का नाभि कई अनेक रोग संक्रमण का कारण बन सकता है। इसलिए इसका समुचित उपचार तुरंत करें। अंगूठे और पहली अंगुली से नाभि को पकडक़र नम्रता से निचोड़ कर खाली कर देें। नाभि के जड़ से 4-5 सेंटीमीटर छोडक़र धागे से बांधकर जीवाणु रहित कैंची या ब्लेड से काट दें तथा उस पर टिन्चर आयोडीन या बीटाडीन घोल लगाकर जीवाणु रहित रूई रखकर पट्टी बांध देें। इससे कौए या अन्य पक्षी चौंच मारकर नोंच नहीं सकेंगे। एक हफ्ते के अन्दर नाभि सूख जाती है। गाय-भैंस के बच्चे कृमि रोग से अधिक प्रभावित होते हैं। इसलिए 10-15 दिनों की उम्र पर उन्हें कृमि रोग की दवा अवश्य पिला दें। पुन: एक माह के अन्तराल पर 6 माह की उम्र तक कृमि रोग की दवा पिलाते रहें। अत: हरेक पशु पालकों को चाहिए कि अपने गर्भवती एवं नवजात पशुओं के प्रबंधन एवं देखभाल में ऊपर बताए गए हरेक नियम एवं सावधानियों का पालन करें ताकि उसके पशु स्वस्थ रहें और उसके उत्पादन और पुनरुत्पादन क्षमता में बढ़ोतरी होती रहे।

 

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