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जमीन का जबरिया अधिग्रहण किसान केे सपनो का बधियाकररण

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प्रधानमंत्री जी,
आपके मन की हो गई,
अब हमरे मन की तो करो।

सुनील गंगराड़े,
मो. : 9826034864

देश के आत्ममुग्ध प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने पिछले रविवार दरियादिली दिखाते हुए किसानों से ‘मन की बात’की। मन भर की। पर स्वयं का मन ही भरा। किसानों के मन की न पूछी। उनके सवालों का कोई जवाब नहीं मिला। इनका हनीमून भी तो खत्म नहीं हो रहा। मॉरीशस, मालदीव, तो खाता-पीता हिन्दुस्तानी हनीमून के लिये जा पाता है। इनके जाने का कारण आम हिन्दुस्तानी नहीं समझ पाता। ये बात अलग है कि अंकल सैम को अपने संबंधों की ताकत बताना है या ड्रैगन की लपलपाहट को रोकना है। किसानों की सड़क किनारे की महंगी जमीनों का जबरिया अधिग्रहण कर उन पर उद्योग खड़े करना और उन कारखानों में किसानों को सस्ती नौकरियां दिलाने का लालच, क्या किसान की माली हालत सुधार देगा? तथाकथित विकास के इस मॉडल के गर्भ में कितने विपरीत पर्यावरणीय, सामाजिक, सांस्कृतिक प्रभाव होंगे, ये अलग विषय है। औद्योगिक क्षेत्र की जो गति है, वो गति खेती ने क्यों नहीं पकड़ी? खेती में किसानों पर दया, अहसान कृपा का भाव दिखाते हुए प्रत्यक्ष रूप से अनुदान आधारित नीतियां हैं, पर परोक्ष रूप से वे उर्वरक उद्योग, कृषि मशीनरी उद्योग को ही लाभ पहुंचाती है। इस बात को यूं समझ सकते हैं कि गन्ना हार्वेस्टर की कीमत 1 करोड़ बीस लाख है और सरकार उस पर 60 लाख का अनुदान दे रही है। अनुदान का लाभ किसकी जेब में जा रहा है?
वहीं दूसरी तरफ उद्योगपतियों की खिदमत में कमर झुका कर टेबिल पर नक्शा बिछा कर निवेदन किया जाता है, ‘कृपावंत, कौन सी जमीन पर आप कारखाना लगाएंगे।’ साथ ही ‘करों में छूट’ का तोहफा पेश किया जाता है। बाद में वे उद्योग एनपीए की श्रेणी में आ जाते हैं और सरकार उनके कर्ज भी माफ कर देती है। दूसरी और किसान से कर्ज चुकाने में चूक हुई तो ट्रैक्टर, मवेशी खींच लेते हैं बैंक। सरकार की ये दोहरी नीति सामाजिक असंतुलन, द्वेष पैदा करती है।
आंकड़ों की बाजीगरी में सिद्धहस्त सरकार बताती है कि सकल घरेलू उत्पाद में कृषि वृद्धि दर गत वर्ष के 4 प्रतिशत की तुलना में 4.6 प्रतिशत हो गई है। वहीं सरकार की एक एजेंसी के संकेतों की बानगी देखिए। नेशनल सेंपल सर्वे आर्गनाईजेशन के मुताबिक देश में 57.8 प्रतिशत परिवार खेती कर रहे हैं। 68.3 प्रतिशत ग्रामीण आबादी की आय का मुख्य स्त्रोत कृषि है। देश के 9 करोड़ परिवार की रोजी-रोटी खेती पर निर्भर है। इन 9 करोड़ में से 52 प्रतिशत कर्ज में डूबे हैं क्योंकि इन की मासिक औसत आय महीने भर का खर्च चलाने के लिये नाकाफी है। इसलिये 45 प्रतिशत परिवार भी मनरेगा में मजदूरी पर निर्भर हंै।
1 अप्रैल से शुरू होने वाले वित्तीय वर्ष 2014-15 के लिए कृषि मंत्रालय के योजनान्तर्गत व्यय में करीब 30 प्रतिशत की कटौती कर दी गई है। कृषि महकमे के बजट में कटौती का सीधा असर कृषि से जुड़ी फ्लेगशिप योजनाओं यथा राष्ट्रीय कृषि विकास योजना, आत्मा, राष्ट्रीय बागवानी मिशन, राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन के अमल पर पड़ेगा। विश्व के अन्य किसी भी देश में खेती और किसान को इतनी आपदाओं -विपदाओं का सामना नहीं करना पड़ता जितना भारत के किसान को झेलना पड़ता है। ये बात और है कि इन मुसीबतों में अधिकांशत: मानव निर्मित ही होती है। जैसे महंगे कृषि आदान, आसमान छूते भावों पर बीज, वहीं घटिया कीटनाशक, नकली उर्वरक, सेवा के बदले शुल्क मांगने वाला अधिकारी। और किसान अभिशह्रश्वत है,
लागत से कम दामों पर फसल बेचने के लिये, मान भी लें कि देश में किसानों की हालत सुधारने के लिये क्या वजीर, क्या अफसर सभी चिंतित हैं। कई पहल भी हुई है। फसल बीमा, या मौसम आधारित बीमा। कर्ज माफी। सभी लोक लुभावन घोषणाएं। नुकसान होने पर मुआवजा देने की मंशा बीमा कंपनियों की कभी नहीं रही। फसल बीमा का प्रीमियम याने किसान जो बैंक से कर्ज लेता है, बीमा कंपनियां अपने रजिस्टर में उसका नाम चढ़ा कर नाल काटती है। जैसे सटोरिये के यहां एक फुरसती आदमी बैठ कर रकम अंटी करता है।
मध्यप्रदेश के किसान पुत्र मुख्यमंत्री श्री शिवराज सिंह चौहान ने बड़ी सहजता से माना कि फसल बीमा योजना की पेचीदगियां मुझे ही समझ में नहीं आई तो किसान बेचारा कहां से समझेगा। प्रश्न उठता है कि ये फसल बीमा के ये प्रावधान किसान के भले के लिये हैं या बीमा कंपनियों के मुनाफे के लिये। स्वयं मुख्यमंत्री ने फसल बीमा योजना और बीमा कंपनियों की सार्थकता पर प्रश्न चिन्ह लगा दिया है।
एक रिपोर्ट के मुताबिक देश में फसल बीमा को बढ़ावा देने के लिये व्यापक स्तर पर मौसम केंद्र होना चाहिए। वर्तमान में 176 मौसम केन्द्र हैं और 126 खोले जाने हैं। देश में खेती का रकबा 14.1 करोड़ हेक्टेयर है और इसके लिये 6 हजार मौसम केंद्र की जरूरत है। देश प्रदेश की सरकारें बदलते ही सत्ता
के अंबानी-अडाणी भी बदल जाते हैं, नहीं बदलती है तो गंगाराम की खेती। किसान की खेती की सिंचित जमीन उद्योगों के लिये लेना है तो रातों-रात अध्यादेश जारी हो जाते हैं। किसान को खेती के लिये जमीन देना है तो पीढिय़ों की एडिय़ां घिस जाएंगी पर सरकार नहीं पिघलेगी। उद्योगों के लिए खेती की बलि क्यों देना चाहती है सरकार? जब खेती नहीं बचेगी तो कृषि कर्मण पुरस्कार किसे दोगे, सरकार।
बकौल अदम गोंडवीघर
में ठंडे चूल्हे पर गर खाली पतीली है,
बताओ कैसे लिख दंू धूप फागुन की नशीली है।

कब तक धीरज धरे किसान
भाजपा ने 2014 लोकसभा चुनाव के वक्त जारी अपने घोषणा पत्र में किसानों की आय में वृद्धि का वादा करते हुए ऐसे कदम उठाने की बात कही थी जिससे किसानों को अपनी लागत पर 50 प्रतिशत तक लाभ हो याने मुनाफा मिले। पर आंकड़ों के आईने में तस्वीर उलट है। मुनाफा तो दूर, खेती में लागत ही निकल जाए, हमारा किसान भाई यही ईश्वर से दुआ करता है। राज्य सरकार यदि बोनस देकर गेहूं खरीदना चाहती है तो केंद्र धमकाता है कि केन्द्रीय पूल में उस राज्य का गेहूं नहीं लिया जाएगा।

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