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अपने पर्यावरण का यह अनुपम आदमी

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ये कागज़ मैं उन्हीं अनुपम मिश्र और उनके काम पर काले कर रहा हूं, जिनका जिक्र आपने इस जगह पर कई बार देखा और पढ़ा होगा. खतरा है कि आप में से कई लोग मुझ पर पक्षपात करने, यानी अपने ही लोगों में रेवड़ी बांटने जैसा अंधत्व होने का आरोप लगा सकते हैं, लेकिन इसलिए कि आप पर कोई आरोप लगा सकता है, आप वह करना और कहना छोड़ दें, जो आप को करने और कहने को प्रेरित कर रहा है, तो आपके होने-करने का मतलब क्या रह जाएगा?
लोकलाज या आरोप लगने का डर अगर आप को वह करने और कहने से रोकने लगे, जो आप को अपने से सच्चा बनाता है तो देखते-देखते आप मुखौटे हो जाएंगे. फिर आप को खुद ही समझ नहीं पड़ेगा कि आप वही हैं, जो अंदर हैं या वह, जो मुखौटे से दिखते हैं? मुखौटों के बिना दुनिया और जीने का काम नहीं चलता. लेकिन जो आदमी मुखौटा हो जाए, उसका जीना अपना नहीं रहता. वह दूसरों के बताए जीवन को जीता है और ऐसे जीने से खोखला कोई जीना नहीं होता.
यह सफाई नहीं है. भूमिका भी नहीं. आगे जो कह रहा हूं, उसका निचोड़ भी नहीं है. यह जीने का रवैया है, जिसे पहले समझे बिना अनुपम मिश्र के काम और उसे करने के तरीके को समझना मुश्किल है. जो बहुत सीधा, सपाट और समर्पित दिखता है, वह वैसा ही होता तो जि़न्दगी रेगिस्तान की सीधी और समतल सड़क की तरह ऊबाऊ होती. आप हम सब एक पहलू के लोग होते. और दुनिया लंबाई, चौड़ाई और गहराई के तीन पहलुओं वाली बहुरूपी और अनंत संभावनाओं से भरी नहीं होती. विराट पुरुष की कृपा है कि जीवन संसार अनंत और अगम्य है. कितना अच्छा है कि अपने हाथों की पकड़, आंखों की पहुंच और मन की समझ से परे कितना कुछ है कि अपनी पकड़, पहुंच और समझ में कभी आ ही नहीं सकता. ऐसा है, इसीलिए तो जीना, करना और खोजना है. ऐसा न हो तो जीने और संसार में रह क्या जाएगा?
मन में कहीं बैठा था कि अनुपम से मुठभेड़ सन् इकहत्तर में हुई. लेकिन यह गलत है. गांधी शताब्दी समिति की प्रकाशन सलाहकार समिति का काम संभालने के बाद देवेंद्र भाई, यानी राष्ट्रीय समिति के संगठन मंत्री ने कहा कि भवानी भाई ने गांधी पर बहुत-सी कविताएं लिखी हैं. वे उनसे लो और प्रकाशित करो. उन्हें लेने के जुगाड़ में ही भवानी मिश्र के घर जाना हुआ और वहीं उनके तीसरे बेटे, यानी अनुपम प्रसाद मिश्र, अनुपम मिश्र या पमपम से मिलना हुआ. भवानी भाई की ये कविताएं गांधी पंचशती के नाम से छपीं – पांच सौ से ज्यादा कविताएं हैं.
गांधी शताब्दी समाप्त होते-होते एक दिन देवेंद्र भाई ने कहा कि अनुपम आने वाले हैं. उन्हें हमें गांधी मार्ग और दूसरे प्रकाशनों में उपयोग करना है. फिर राधाकृष्ण जी ने कहा कि किसी को भेज रहा हूं, जऱा देख लेना. अनुपम को देखा हुआ था. लेकिन किसी के भी भेजे हुए को अपन जऱा दूर ही रखते हैं. जब तक भेजा हुआ आया हुआ नहीं हो जाता, तब तक वह अपनी आंखों में नहीं चढ़ता. बहरहाल अनुपम ने काम शुरू किया – सेवक की विनम्र भूमिका में. सर्वोदय में सेवकों और उनकी विनम्र भूमिकाओं का तब बड़ा महत्व होता था. सीखी या ओढ़ी हुई विनम्रता और सेवकाई को मैं व्यंग्य से ही वर्णित कर सकता हूं. विनम्र और सेवक होते हुए भी अनुपम सेवा को काम की तरह कर सकता था.
सेवा का पुण्य की तरह ही बड़ा पसारा होता है. विनम्र सेवक का अहं कई बार तानाशाह के अहं से भी बड़ा होता है. तानाशाह तो फिर भी झुकता है और समझौता करता है, क्योंकि वह जानता है कि ज्यादती कर रहा है. लेकिन विनम्र सेवक को लगता है कि वह गलत कुछ कर नहीं सकता, क्योंकि अपने लिए तो वह कुछ करता ही नहीं है न! अनुपम में अपने को सेवा का यह आत्म औचित्य नहीं दिखा, हालांकि काम वह दूसरों से ज्यादा ही करता. लादने वाले को न नहीं करता था और बिना यह दिखाए कि शहीद कर दिया गया है – लदान उठाए रहता. तब उसकी उम्र रही होगी इक्कीस-बाईस की. संस्कृत में एमए किया था और समाजवादी युवजन सभा का सक्रिय सदस्य रह चुका था. संस्कृत पढऩे वाले का पोंगापन और युवजन सभा वाले की बड़बोली क्रांतिकारिता अनुपम प्रसाद मिश्र में नहीं थी.
भवानी प्रसाद मिश्र के पुत्र होने और चमचमाती दुनिया छोड़कर गांधी संस्था में काम करने का एहसान भी वह दूसरों पर नहीं करता था. ऐसे रहता, जैसे रहने की क्षमा मांग रहा हो. आपको लजाने या आत्म दया में नहीं, सहज ही. जैसे उसका होना आप पर अतिक्रमण हो और इसलिए चाहता हो कि आप उसे माफ कर दें. जैसे किसी पर उसका कोई अधिकार ही न हो और उसे जो मिला है या मिल रहा है, वह देने वाले की कृपा हो. मई बहत्तर में छतरपुर में डाकुओं के समर्पण के बाद लौटने के लिए चंबल घाटी शांति मिशन ने हमें एक जीप दे दी. हम चले तो अनुपम चकित! उसे भरोसा ही न हो कि अपने को एक पूरी जीप मिल सकती है. सच इस जीप में अपन ही हैं और अपने कहने पर ही यह चलेगी! ऐसे विनम्र सेवक का आप क्या कर लेंगे? समझ न आए तो अचार भी डालकर नहीं रख सकते. अनुपम मिश्र को बरतना आसान नहीं था. अब भी नहीं.
बहरहाल गांधी शताब्दी आई गई हो गई और गांधी संस्थाओं ने उपसंहार की तरह गांधी का काम फिर शुरू कर दिया. विनोबा क्षेत्र संन्यास लेकर पनवार के परमधाम में बैठे और बी से बाबा और बी से बोगस कहकर ग्राम स्वराज्य कायम करने की निजी जिम्मेदारी से मुक्त हो गए. सब को लगता कि अब यह काम जेपी का है. और जेपी को लगने लगा कि ग्राम स्वराज्य सर्वेषाम अविरोधेन नहीं आएगा. संघर्ष के बिना आंदोलन में गति और शक्ति नहीं आएगी और अन्याय से तो लडऩा ही होगा. बाबा के रास्ते से जेपी कुछ हटना चाहते थे, लेकिन लक्ष्य उनका भी ग्राम स्वराज्य ही था. मुसहरी में जेपी ने नक्सलवादी हिंसा का सामना करने का ऐलान किया. फिर बांग्लादेश के संघर्ष और चंबल के डाकुओं के समर्पण में लग गए.
सर्वोदयी गतिविधियों का दिल्ली में केंद्र गांधी शांति प्रतिष्ठान हो गया और अनुपम और मैं आंदोलन के बारे में लिखने, पत्रिकाएं निकालने और सर्वोदय प्रेस सर्विस चलाने में लग गए. उसी सिलसिले में अनुपम का उत्तराखंड आना-जाना होता. भवानी बाबू गांधी निधि में ही रहने आ गए थे, इसलिए कामकाज दिन-रात हो सकता था. फिर चमौली में चंडीप्रसाद भट्ट और गौरा देवी ने चिपको कर दिया. चिपको आंदोलन पर पहली रपट अनुपम मिश्र ने ही लिखी और चूंकि सर्वोदयी पत्रिकाओं की पहुंच सीमित थी, इसलिए वह रपट हमने रघुवीर सहाय को दी और दिनमान में उन्होंने उसे अच्छी तरह छापा.
चिपको आंदोलन को बीस से ज्यादा साल हो गए, लेकिन अनुपम का उत्तराखंड से संबंध अब भी उतना ही आत्मीय है. जिसे हम पर्यावरण के नाम से जानते हैं, उसके संरक्षण का पहला आंदोलन चिपको ही था और वह किसी पश्चिमी प्रेरणा से शुरू नहीं हुआ. पेड़ों को काटने से रोकने के लिए शुरू हुए इस आंदोलन और इससे आई पर्यावरणीय चेतना पर कोई लिख सकता है तो अनुपम मिश्र. लेकिन कोई कहे कि वही लिखने के अधिकारी हैं तो अनुपम मिश्र हाथ जोड़ लेंगे. अपना क्या है जी, अपन जानते ही क्या हैं – उनकी छोटी बहन डॉक्टर नमिता (मिश्र) शर्मा भी इसी लहजे में कह सकती हैं.
 लेकिन इसके पहले कि अनुपम मिश्र पूरी तरह पर्यावरण के काम में पड़ते, बिहार आंदोलन छिड़ गया. हम लोग गांधी प्रतिष्ठान से एवरीमैंस होते हुए एक्सप्रेस पहुंच गए और प्रजानीति निकालने लगे. तब भी दिल्ली के एक्सप्रेस दफ्तर में कोई विनम्र सेवक पत्रकार था तो अनुपम मिश्र. सबकी कॉपी ठीक करना, प्रूफ पढऩा, पेज बनवाना, तम्बाकू के पान के ज़रिये प्रेस को प्रसन्न रखना और पत्रकार और आंदोलनकारी होने की हवा भी न खाना, झोला लटका के पैदल दफ्तर आना और जब भी काम पूरा हो, पैदल ही घर जाना. प्रोफेशनल जर्नलिस्टों के बीच अनुपम मिश्र विनम्र सेवक मिशनरी पत्रकार रहे. इमरजेंसी लगी, प्रजानीति और फिर आसपास बंद हुआ तो अनुपम को इस मुश्किल भूमिका से मुक्ति मिली.                               (सप्रेस)

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